पूर्वी भारत में गुरु साहिबान की यात्राएं एवं सिख संगत

 

पूर्वी भारत में असम, बंगाल तक के निवासियों को पटना की धरती ने नवाज़ा है। यहां श्री गुरु नानक देव जी अपनी प्रथम उदासी के समय पधारे थे तथा श्री गुरु तेग बहादुर जी ने भी मुगल बादशाह औरंगज़ेब की नीति से प्रताड़ित पूरे विश्व के सिखों के लिए यहां विचरण किया था। पटना साहिब पांच तख्तों में दूसरा तख्त है। वैसे भी इस धरती पर मनुष्य का अस्तित्व अढ़ाई हज़ार से अधिक वर्षों से है। पटना साहिब की उत्तमता का कारण श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी बने, जिनका जन्म यहां का था। 
थोड़ा समय वाराणसी में रह कर सिख मत का प्रचार करने वाले भाई गुरदास जी सिख संगत का ज़िक्र करते हुए लखनऊ, फतेहपुर, प्रयागराज, जौनपुर, पटना, राज महल, तथा ढाका तक की सिखों की मानवीय जांबाज़ी का गुणगान करते रहे। 
सिख मिशन कलकत्ता वाले जगमोहन सिंह गिल की नव-प्रकाशित पुस्तक Exploring in Sikh Roots in Eastern India  (पूर्वी भारत के सिखों की पृष्ठभूमि) इतिहास के इस पक्ष को विस्तार से पेश करती है।
कुछ भी कहें, पूर्वी भारत में सिख मर्यादा के असल संचरण का श्रेय श्री गुरु तेग बहादुर जी को जाता है। यहां पहुंच कर उन्होंने अपने परिवार को पटना छोड़ कर पूरे क्षेत्र का भ्रमण किया और समाप्त हो रही संगत मर्यादा बहाल की तथा नई को संगत के साथ जोड़ा और प्रेरित किया। पटना साहिब का मान-सम्मान भी शीर्ष पर पहुंचाया। 
कोलकाता में साहूकारी करते एक धनाढ्य श्रद्धालू अमी चन्द ने तो अपनी बहुत-सी पूंजी की वसीयत ही पटना के श्री हरिमंदिर साहिब के नाम कर दी थी। संख्या के पक्ष से पंजाब तथा कश्मीर के बाद बिहार के सिख आते हैं। ऐसे श्रद्धालुओं में बड़े ज़मींदार भी शामिल थे, जो अपने कारिंदों को इस मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करते थे। बिहार के सिखों में से सासारामी अग्रहारी सिखों का योगदान भी कमाल है। वे श्री गुरु तेग बहादुर जी के समय से सिख मत की मानवीय भावनाओं को समर्पित हुए हैं। उनकी पंजाबी देवनागरी अक्षरों में सच्ची तथा सुच्ची सिख मर्यादा वाली है। 
अंत में जगमोहन सिंह गिल ने उत्तर-पूर्वी सिखों की श्रद्धा का हवाला देकर लिखा कि हमें भी उन्हें अपने साथ जोड़ने का प्रबंध करना चाहिए ताकि वे भी हमारी तरह व्यापक स्तर पर शताब्दियां मना सकें। गुरमत की भाषण शृंखला आरंभ करने के अतिरिक्त इस मत को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाए जाना भी लेखक की भावना में शामिल है। 
नई जागीरदारी : एक व्यंग्य
रियासती तथा दूसरे जागीरों के टूटने तक पंजाब के सिख जागीरदार अपने बेटे-बेटियों का जागीरदारों के घर ही विवाह करते थे। जागीर प्रत्येक छठे माह ही मिलती थी, परन्तु कम या अधिक होने से कोई फर्क नहीं पड़ता था। मेरे पिता को 66 रुपये छिमाही तथा मेरे एक मौसा को 250 रुपये। जिस गांव में मेरी भूआ का विवाह हुआ था, उसका नाम ही कंग जगीर था। फिल्लौर के निकट बड़े जागीरदार एक से अधिक शादियों के लिए भी जाने जाते थे। जिनके गांव शहर के निकट होते थे, उन जागीरदारों की पत्नियां चार-चार या छह-छह मिल कर निकटवर्ती शहर में होटलों की चाय पीने जाती थीं। बड़े घागरे पहन कर तथा दोहरी चादर ओड़ कर। पुरुष पीपल के पेड़ों के नीचे ताश खेलते थे। उस समय सरदारी के रंग-ढंग यही थे। यह प्रथा जागीरें टूटने तक बनी रही। 
वर्तमान में इस प्रथा ने नया रूप ले लिया है। महिलाएं चल कर नहीं जातीं। पंजाब रोडवेज़ की बसों में टिकट नहीं लेनी पड़ती। आधार कार्ड दिखा कर पंजाबी महिला किसी भी स्थान पर जा सकती है। पुरुषों ने भी अपने काम उन्हें सौंप दिये हैं। मुफ्त में पूर्ण हो जाते हैं। पूंजीपति हों या गरीब, सभी जागीरदार हैं। उन पर ‘दो पैर घट्ट तुरना, पर तुरना मड़क दे नाल’ वाली कहावत भी लागू नहीं होती। 
कटे-फटे पंजाब के शिव बटालवी
देश के विभाजन के समय पंजाबी कवि शिव कुमार के माता-पिता को भी इस तरफ के पंजाब में आना पड़ा था। जिस रेलगाड़ी में वे यात्रा कर रहे थे, जस्सड़ के निकट उसकी सभी यात्रियों की निर्मम हत्या करके उनकी नकदी तथा सामान लूट लिया गया था। 10 वर्ष की आयु वाला शिव बच गया। शायद इस कारण ही उसके पास कोई लुट जाने वाली वस्तु नहीं थी। बड़े होकर उसने इस घटनाक्रम बारे ‘माये नी माये मेरे’ गीतों वाली कविता में अपनी अल्प आयु के चौखटे में फिट करके स्वयं को ‘आपे ही मैं बालड़ी ते आपे ही मैं मत्तां जोगी’ लिखा एवं काव्यकारी में ‘बिरहा दा सुल्तान’ बना। शिव कुमार बटालवी 36 वर्ष की आयु में ही चला गया। क्या भारतीय और क्या पाकिस्तानी, उसके लिए समान रूप से अपनापन जताते थे। इंटरनैट पर पेश किए ‘मेला’ कार्यक्रम में एहसान बाजवा ने ‘माये नी माये’ वाली रचना को शिव के बचपन से जोड़ कर इस रचना के महत्व में कमाल की वृद्धि की है, परन्तु वह शिव के पिता का नाम कृष्ण गोल के स्थान पर जसपाल बताते हैं। ‘मेला’ के आयोजक इसका संशोधन कर लें ताकि उनकी नकल करने वाले यह गलती न करते रहें।