बहुत गहरा संबंध है राजनीति और रणनीति में

साठ के दशक के आखिरी वर्षों में इंदिरा गांधी अपनी पार्टी के वरिष्ठ क्षत्रपों (कामराज, निजिलिंगप्पा, मोरारजी, चंद्रभानु गुप्त वगैरह) के साथ प्रभुता का संघर्ष कर रही थीं। उनके पिता के नेतृत्व में काम कर चुक ये नेता इंदिरा गांधी को गूंगी गुड़िया से ज्यादा मानने के लिए तैयार नहीं थे। उनका इरादा साफ था। या तो इंदिरा जी उनकी कठपुतली बन जाएं, या फिर दरवाज़ा देखें। इस परिस्थिति से निपटने के लिए इंदिरा जी ने एक दो चरणों की रणनीति बनाई। पहले चरण में उन्होंने राष्ट्रपति चुनाव में वोटिंग के सवाल पर कांग्रेस को विभाजित कर दिया। उन्होंने आत्मा का आवाज़ पर वोट देने की अपील की ताकि इन क्षत्रपों के उम्मीदवार नीलम संजीव रेड्डी के मुकाबले खड़े वी.वी. गिरि चुनाव जीत जाएं। नाराज़ होकर ये बड़े नेता संगठन कांग्रेस बना कर अलग हो गए। इंदिरा गांधी के पास उनके नाम की पार्टी इंदिरा कांग्रेस रह गई। लेकिन वे अब आज़ाद हो चुकी थीं। फिर वे चुनाव में उतरीं और ़गरीबी हटाओ का नारा देकर मैदान जीत लिया। यह वाकया इतिहास में दर्ज हो चुका है। इससे देश की राजनीति की दिशा बदल गई। अगर इंदिरा गांधी पार्टी न तोड़तीं तो वरिष्ठ नेता उन्हें गरीबी हटाओ का नारा न देने देते। दरअसल, वे उन्हें कोई नया काम करने ही नहीं देते।
इस प्रकरण से पता चलता है कि राजनीति और रणनीति में चोली-दामन का साथ है। राजनीति सफल ही तब होती है जब कुशल रणनीति बनायी जाती है। क्या यह अजीब बात नहीं है कि इतनी महत्वपूर्ण होने के बावजूद हम राजनीति के रणनीतिक पहलुओं पर गम्भीरता से विचार नहीं करते? मीडिया में उन्हें महज़ ‘मास्टरस्ट्रोक’ कह कर काम चला लिया जाता है। लेकिन ‘मास्टरस्ट्रोक’ तो केवल एक चतुराई भरी चाल ही हो सकता है। एक रणनीति तो बहुत से मास्टरस्ट्रोकों से मिल कर बनती है। 
नरेंद्र मोदी द्वारा 2016 में की गई अचानक नोटबंदी एक ऐसा कदम था जिसके आर्थिक-सामाजिक-मनोवैज्ञानिक-राजनीतिक-सांगठनिक आयाम थे। इनका मकसद फौरी के साथ-साथ दूरगामी भी था। नोटबंदी से पैदा हुई तकल़ीफदेह अफरातफरी के ज़रिये मोदी ने दो विधानसभा चुनावों (दिल्ली और बिहार) में हुई पार्टी की ज़बरदस्त पराजय से अपने नेतृत्व पर छाये शंका के बादलों को चर्चा से बाहर करने का फौरी लक्ष्य वेधा। उन्होंने समाज में अमीर-़गरीब के वर्ग विभाजन को तीखा करते हुए खुद को दरिद्रों के नज़दीक दिखाया। साथ में आर्थिक-विनिमय के एक सर्वथा नये कैशलैस या नकदीविहीन पहलू को स्थायी रूप से जन्म भी दे दिया। आज मोदी के मुंह से नोटबंदी का शब्द भूल से भी नहीं निकलता, क्योंकि उन्हें अब उसकी ज़रूरत ही नहीं रही। रणनीति गलत भी बैठ सकती है। यह हश्र नोटबंदी का भी हो सकता था। ऐसी आशंकाएं भी जताई गई थीं। पर आज उन्हें कोई याद नहीं करता। नोटबंदी निशाने पर बैठी और उसे जो करना था वह हो चुका है।
 अरविंद केजरीवाल द्वारा जेल से निकलते ही मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देकर एक ऐसी ही चौमुखी रणनीति को गतिशील कर दिया गया है। वे भी मोदी की ही तरह एक परिष्कृत रणनीतिक मानस के धनी हैं। इस्तीफा देने के पीछे मेरी निगाह में अपनी छवि, आम आदमी पार्टी की छवि और दिल्ली सरकार की छवि के आमूलचूल नवीकरण का तितरफा लक्ष्य है। इन तीनों छवियों में पिछले 12 सालों में एक तरह का पुरानापन आ गया था। ऊपर से भाजपा और केंद्र सरकार द्वारा पिछले डेढ़ साल से चलाये जा रहे भ्रष्टाचार के आरोपों व गिरफ्तारी के सघन अभियान से इस पुरानेपन को दुर्गंध में बदलने की नियोजित कोशिश की जा रही थी। कुछ नया और अनपेक्षित करना ज़रूरी था। केजरीवाल इससे न केवल ़िफज़ां बदलना चाहते हैं, बल्कि दो व्यक्तियों (केजरीवाल और सिसोदिया) के नेतृत्व में सीमित अपनी युवा और तेज़ी से विकसित हो रही पार्टी को सक्षम नेतृत्वकारी कतार की दूसरी पंक्ति भी देना चाहते हैं। 
अगर केजरीवाल का मकसद सफल हुआ तो उनका समर्थन करने वाले अधिसंख्य मतदाताओं को एक बार फिर वही ‘एक्टिविस्ट’ नेता दिखेगा जिसने राजनीति में नयी ज़मीन तोड़ने का वायदा करते हुए प्रवेश किया था। उनके इसी ‘एक्टिविस्ट’ पुनरावतार से भाजपा चिंतित है और अंदाज़ा लगाने की कोशिश कर रही है कि इसका क्या असर होगा। केजरीवाल जानते हैं कि उनकी राजनीति का लांचिंग पैड दिल्ली है, भले ही इसकी विधानसभा केंद्र सरकार द्वारा एक म्युनिस्पैलिटी में घटा दी गई हो। वे दिल्ली का दंगल हारने या कम सीटों पर जीतने से होने वाले नुकसान को झेलने के लिए तैयार नहीं हैं। इसीलिए इस्तीफे वाले भाषण में उनके मुंह से हरियाणा का नाम तक नहीं निकला। बावजूद इसके कि वे हरियाणा के ही हैं और वहां उनकी पार्टी हर सीट पर लड़ रही है। केजरीवाल का फोकस सिर्फ दिल्ली पर है और फिलहाल रहेगा।  
एक और रणनीति है जो पिछले सप्ताह ही गतिशील की गई है। इसके केंद्र में तिरुपति के महाप्रसादम के लड्डुओं में पशुओं की चर्बी मिलाने का विवाद है। इस बहुमुखी रणनीति का संचालन एक नहीं बल्कि दो पार्टियों के हाथ में है। भाजपा और तेलुगु देशम पार्टी : दोनों ही एनडीए में हैं। लक्ष्य भी दोहरे हैं। देशम चाहती है कि उसे प्रमुख प्रतिद्वंद्वी जगन मोहन रेड्डी (जो मज़हब से ईसाई हैं) पर किसी न किसी प्रकार हिंदू विरोधी होने का आरोप लगाया जाए। जगन के पिता राजशेखर रेड्डी के खिलाफ नायडू ने दस साल तक यह कोशिश चलाई थी, पर कामयाब नहीं हुए। 
तो क्या यह पूरा प्रकरण एक राजनीतिक चाल है? नहीं, मिलावट की बात सही भी हो सकती है। पर देखने की बात यह है कि देश की सबसे बड़ी केंद्र सरकार द्वारा चालित फोरेंसिक लेबोरेटरी हैदराबाद में है, पर नायडू ने लड्डुओं के सैम्पल की जांच गुजरात की एक प्रयोगशाला से करवाई। जांच रिपोर्ट के मुख्य हिस्से में इस मिलावट का कोई ज़िक्र नहीं है। उसके साथ नत्थी ‘अनेक्स्चर’ में है, पर रिपोर्ट यह नहीं बताती कि मिलावट की मात्रा क्या है। इसी तरह ताज्जुब होता है कि यह आधी-अधूरी रिपोर्ट तो नायडू के पास जुलाई के मध्य में आ गई थी। ज़ाहिर है कि उन्होंने कुछ सोच कर ही पहले इसे ठंडे बस्ते में डाला और फिर निकाल 19 सितम्बर को जारी किया। भाजपा की दिलचस्पी इस रिपोर्ट में क्यों है? दरअसल, यह पार्टी बहुमत खोने के बाद से ही कोई ऐसा ट्रिगर पाइंट तलाश रही है जिसके ज़रिये उसे हिंदू ध्रुवीकरण को तीखा करने और नये चरण में ले जाने का मौका मिले। बांग्लादेश में हिंदुओं पर होने वाले ज़ुल्मों में उसने यह ट्रिगर पाइंट खोजने की कोशिश की, पर नहीं मिला। अब वही खोज वह तिरुपति के महाप्रसादम में कर रही है। हिंदू धर्म और उसकी आस्था को एक बार फिर ‘खतरे में’ बताया जा रहा है। यह रणनीति तभी कामयाब हो सकती है जब उसे लम्बे अरसे तक चलाने का मौका मिले। इसकी संभावनाएं बहुत कम हैं। 

लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।

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