केन्द्र सरकार का एक उचित फैसला

केन्द्र सरकार द्वारा उसके अधीनस्थ स्कूलों में विगत कुछ वर्षों से जारी विद्यार्थियों को फेल न करने वाली नीति को खत्म करने की घोषणा, देश की भावी शिक्षा-व्यवस्था की सेहत  के लिए बेहद उपयोगी एक सार्थक परिणामदायी सिद्ध हो सकती है। इस नीति के तहत पांचवीं और आठवीं कक्षा के विद्यार्थियों को भी फेल न किये जाने से बच्चों की आगामी शिक्षा पर बेहद विपरीत प्रभाव पड़ने लगा था। यहां तक कि दसवीं तक के अधिकतर विद्यार्थी भाषा और गणित के मौलिक ज्ञान से वंचित दिखाई देने लगे थे। नि:संदेह अब इस नीति को खत्म किये जाने से जहां  बच्चों की प्रारम्भिक शिक्षा का स्तर सुधरेगा, वहीं देश के सम्पूर्ण शिक्षा ढांचे का म्यार भी ऊंचा होगा। इस प्रकार यह फैसला विद्यार्थियों की भावी उच्च शिक्षा संबंधी नींवों को मजबूत करने का कारण और माध्यम भी सिद्ध होगा। इस नये फैसले से जहां शिक्षा के क्षेत्र में जवाबदेही की भावना मजबूत होगी, वहीं अच्छे परिणामों की सम्भावना भी प्रबल होगी। अतीत में बेशक इस नीति को शिक्षा के प्रचार-प्रसार की भावना से लागू किया गया था किन्तु इसके तत्काल बाद इसकी आलोचना और विरोध भी उसी अनुपात से प्रबल होता चला गया था। प्रशिक्षित अध्यापकों की कमी, समुचित प्रशिक्षण के अभाव और आधारभूत ढांचे की कमी के कारण समुचित परिणाम उपलब्ध नहीं हो पा रहे थे। नतीजतन इस विफलता का सम्पूर्ण खमियाज़ा उन मेधावी विद्यार्थियों को भुगतना पड़ रहा था जो अग्रणी और उच्च शिक्षा प्राप्त करना चाहते थे। ऐसे बच्चों के विकास और उन्नति के पथ पर, पिछड़ने का खतरा भी सदैव बना रहता था। इसके विपरीत जो बच्चे फेल होकर भी अगली श्रेणियों में पदोन्नत कर दिये जाते थे, उनके प्रति शिक्षकों, स्कूलों के अन्य विद्यार्थियों और यहां तक कि पारिवारिक और सामाजिकजनों का रवैया भी उपेक्षापूर्ण बना रहने से उनमें न्यूनता और पिछड़ने की भावना उपजने लगती थी। इससे उनका शारीरिक और मानसिक विकास अवरुद्ध होने का खतरा भी बनता था।
प्राय: बच्चों की शिक्षा को लेकर यह कहा जाता है कि प्राथमिक श्रेणी से ही बालक के ज्ञान की नींव बनना शुरू हो जाती है। इसी चरण पर बच्चे की दिमागी और मानसिक स्थिति परिपक्व होने लगती है, किन्तु विद्यार्थी को मेहनत के लिए प्रेरित करने की बजाय, उसके मन में बिना पढ़ाई किये अगली श्रेणी में बढ़ते जाने की उत्कण्ठा उसे आलसी और श्रम-हीन प्राणी बना कर रख देती है। इसके विपरीत पांचवीं और आठवीं कक्षा से आगे बच्चों में करियर और भविष्य की योजनाएं एवं कल्पनाएं भी तैयार होने लगती हैं, किन्तु शिक्षा और ज्ञान के धरातल पर अब तक शून्य रहा बच्चा इस मामले में अन्य विद्यार्थियों से पिछड़ा हुआ महसूस करने लगता है। लिहाज़ा इससे समाज में एक प्रकार की असमानता और असंतुलन जैसी स्थिति उपजने लगती है जिस कारण हिंसा और अपराध का माहौल सृजित होने लगता है।
अब हम समझते हैं कि ‘देर आयद, दुरुस्त आयद’ के तहत सरकार ने पूर्व के एक गलत फैसले को पलटा है, तो यह भी माना जा सकता है, कि सवेरा तभी होता है जब प्राणी निद्रा से जागता है। नि:संदेह देश के सभी वर्गों के बच्चों को समय के साक्षी बनाये जाने हेतु इस नीति का बदला जाना अत्यावश्यक था, और केन्द्र सरकार ने इस पथ पर एक सार्थक पहल कर दी है। सरकार ने विफल हो जाने वाले विद्यार्थियों को नई नीति के तहत दो मास के भीतर पुन: परीक्षा की भी मोहलत दी है। नि:संदेह बच्चा स्वयं, उसके शिक्षक और अभिभावक इस काल के दौरान उसकी पूर्व में  रह गई कमी को दूर करके उसे विफलता की नदी को पार कर जाने में मदद कर सकते हैं। इससे बच्चे में श्रम करने और स्पर्धा की जंग में आगे बढ़ने की भावना भी उपजेगी। नि:संदेह इस हेतु शिक्षक वर्ग के कंधों पर दायित्व-बोध और बोझ अधिक बढ़ेगा, किन्तु इस हेतु उन्हें विशेष प्रशिक्षण और प्रोत्साहन प्रदान किया जा सकता है। बेशक बच्चों के अभिभावकों को भी अपनी बढ़ी हुई ज़िम्मेदारी को समझना होगा। वो दौर गया जब बच्चे ‘फट्टी-बस्ता’ लेकर स्वयं ही नदी-परबत पार करके पढ़ने हेतु चले जाया करते थे। आज एक बच्चे को पूर्णरूपेण शिक्षित और ज्ञान-वान बनाने के लिए अभिभावक, समाज और शिक्षक वर्ग द्वारा अपने-अपने धरातल पर, अपने दायित्व का निर्वहन पूरी प्रतिबद्धता के साथ किये जाने की बड़ी आवश्यकता है। इस दृष्टिकोण से केन्द्र सरकार के इस फैसले का खुले-बन्दों स्वागत किया जाना चाहिए।
 

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