ये हैं जन्म-जन्म के फेरे
आज मोर की नहीं बगुलों की तलाश होती है। फूल नहीं कैक्टसों से बगिया सजाते हैं। लूमड़ भेड़ियों का वेश धारण करके मंचों से जागरण संदेश देते हैं। चूहों का राज आ गया, शेर जंगलों में वनवास झेल रहे हैं।
जो आज तक किताबों में पढ़ा, वह कभी जीवन में पाया नहीं। आज के जीवन की किताब ‘संस्कृति के चार अध्याय’ नहीं खोलती, धर्म स्थलों का इतिहास टटोलती है। उनका चेहरा बदल देने का नारा लगाती है।
जो चाहा वह पाया नहीं। जिन्होंने पाया वह देश में मुट्ठी भर थे। शेष भारी भीड़ जीने का बहाना तलाश रही है। बहाने मिल जाते हैं, परन्तु उसके लिए मोरपंखी होना पड़ता है। अन्न बिकता नहीं, बाज़ार की रियायती दुकानों पर उसका पता बताया जाता है।
इन दुकानों के बाहर भीड़ निरन्तर बढ़ती जा रही है। रोज़गार दिलाने वाली खिड़कियों पर लोगों का जमघट हो गया है। कर्णधार इसे बेकारी की जटिल समस्या का समाधान बताते हैं। उदारता और अनुकम्पा की एक और तश्तरी सजाते हैं। कुर्सी पाने के चाहवान देश में इसके छीन-झपट दल बनाते हैं। कौन किस दल में है, कुछ पता नहीं चलता। लोग अपनी सुविधानुसार सुबह, दोपहर, शाम अपना दल बदल लेते हैं, परन्तु इसे आज के जीवन में प्रतिबद्धता की कमी नहीं, दुनियादारी का चलन बताते हैं।
यहां दुनियादार बनने का मतलब है, मुखौटाधारी बनना। आज मुखौटों के बाज़र सजे हैं। मंत्री से लेकर संतरी तक का मुखौटा यहां बिकता है। समाज सुधारक से लेकर धर्माधीश तक के मुखौटे यहां उपलब्ध हैं। जीना है तो इन्हें पहनने की अनिवार्यता है। यहां मौसम नहीं बंदे रंग बदलते हैं। कौन कहां खड़ा है? कुछ पता नहीं चलता। लोगों ने गिरगिट अपने आदर्श बना लिये। कल जिसे गाली देते थे, आज उसका झण्डा उठा कर चल रहे हैं। विजय गर्व से दिपदिपा रहे हैं। आदमी से जनघोष बन रहे हैं। काम आने वाले महापुरुष की शोभायात्रा निकालते हैं, और उसे जन-चेतना मार्च बतलाते हैं। यह चेतना यात्रा उन्हें जिस मंज़िल तक पहुंचाती है, उसके प्रवेश द्वार पर शार्टकट संस्कृति के पहरे हैं। ‘‘यहां सब चलता है’’ के नारे हैं। लोग यह नारा लगाते हुए तनिक भी नहीं संकुचाते, और अपनी हथेलियों पर सरसों जमा नहीं उगा लेने का सपना साकार करते हैं।
राजनीति का रंग न्यारा है। उसमें से जन-सेवा और राष्ट्र-निर्माण का उद्देश्य तलाश कर भी नहीं मिलता। हमने अपने-अपने हिस्से का हिन्दुस्तान बांट लिया। उस पर जाति और धर्म के झण्डे लहराने के प्रभास हो रहे हैं। अपनी जाति और अपने धर्म का पिष्ट-पोषण हो, दोष नहीं। लेकिन केवल अपनी ही जाति अपने ही धर्म का पिष्ट-पोषण हो, तो गड़बड़ होने लगती है। कट्टवाद पनपता है। कट्टरता अपने गिर्द आरक्षण की दीवारें खड़ी करती है। वंचित को आरक्षण मिले हज़र् नहीं। अपंग को चलने के लिए बैसाखियां मिलें, इसमें दोष नहीं। जब अपंगता दूर हो व्यक्ति धावक बन जाये, तो भी बैसाखियां पकड़े रखने की ज़िद करे, तो उसमेें दोष ही दोष है।
बैसाखियों वाली इमारत खड़ी हो गयी, लेकिन अगर हर इमारत बैसाखियां प्राप्त करने की ज़िद करे, तो भला बताइए सामान्य रूप से अपने बूते खड़ी इमारतों का क्या होगा? आरक्षण की एक सीमा बनी थी, आज तो उसे तोड़ देने की बातें होने लगीं। उसे विस्तार देने की बातें होने लगीं। क्या ऐसा तो नहीं हो जायेगा, कि एक दिन अनारक्षित सामान्य जीने वाले भी अपने लिए अलग आरक्षण मांगने लगेंगे?
सही है, वर्ग केवल दो ही हैं। एक सार्म्थयवान और दूसरा वंचित। एक धनवान, दूसरा निर्धन, परन्तु निर्धन में वर्ग भेद क्यों? क्या इस पूरी जमात का एक साथ विकास नहीं हो सकता? क्यों नहीं हो सकता? हम समावेशी विकास का नारा लगाते हैं, लेकिन सच तो यह है कि विकास तो मध्य जनों की थाती बन गया। यहां टुकड़ा-टुकड़ा विकास नज़र आता है, एक लम्बे-चौड़े मरुस्थल में कहीं-कहीं नखलिस्तान की तरह।
बात पूरे मरुस्थल को उपजाऊ बनाने की होती है, नतीजा नखलिस्तान के अपहरण के रूप में नज़र आता है। साल दर साल गुज़र जाते हैं, नखलिस्तानों में बहार है, मरुस्थल में दम घोंटू रेत के बगूले हरहराते रहते हैं। समाजवाद का लक्ष्य यहां विचाराधीन हो जाता है, और महामारी से लेकर महामंदी तक समर्थ के लिये कमाई का एक नया रण क्षेत्र बन जाते हैं।
इस देश को न अल्प-विकसित कहो, न विकासशील। कोरोना का मारक प्रभाव खत्म हुआ, महामंदी की आमद आज आम आदमी की जेब की बेबसी बन रही है, लेकिन आंकड़े बताते हैं कि अपने देश में धन-सम्पदा के मालिक अरबपतियों की संख्या में इतनी वृद्धि हुई कि हमने अमरीका और चीन के अरबपतियों की संख्या को भी लज्जित कर दिया, लेकिन उसके पहले लज्जित हो गई देश की तीन चौथाई जनता जो आज भी फुटपाथ पर बैठी अच्छे दिनों का इंतज़ार कर रही है। जी हां, इंतज़ार से बड़ा कोई और रोमांस नहीं और सपने देखने से बड़ा कोई और सुख नहीं। तभी तो नये अंतर्राष्ट्रीय सर्वेक्षण भी हमें बताते हैं कि भारत खुशहाल देशों के सूचकांक हमें बताते हैं कि भारत का आम जीवन खुशहाली में सबसे नीचे, लेकिन धीरज रख खुश रहने वाले लोगों में सबसे ऊपर हैं। इसमें हमारी भाग्य रेखाओं का विश्वास और पिछले जन्मों के कुकर्मों का फल भी हमें बस धीरज बंधाता है, और दुनिया के बहुत शांति प्रिय देशों में हमारी गिनती हो जाती है।