तेज़ी से बढ़ रही है अमीरी और गरीबी की दरार
केन्द्र सरकार के लिए जागने का समय
यह वर्ष मुश्किलों भरा रहने वाला है। दुनिया में तेज़ी से तकनीक और विज्ञान के क्षेत्र में हो रहे बदलाव के कारण भारत जैसे देश जो गरीबी से निकलकर विकासशील बनने की राह पर हैं और विकसित देशों की कतार में शामिल होना चाहते हैं, उन सभी के लिए सब से बड़ी यह कठिनाई रहने वाली है कि वे अपने अल्प साधनों के बल पर कैसे इस दौड़ में शामिल रह पाएंगे? इसका सबसे बड़ा कारण, अगर हम केवल अपने देश की ही बात करें तो यह है कि हमने गरीब की गरीबी को बढ़ाया है और अमीर को इतने साधन देने का काम किया है कि उसके लिए धन दौलत की सीढ़ियां चढ़ने की रफ्तार थम ही नहीं रही है। कुछ लोगों में तो इस बात की प्रतियोगिता होती दिखाई देती है कि वे दुनिया में सबसे अमीर लोगों में कौन से नम्बर पर आते हैं।
देश में आज़ादी के बाद जहां तक शिक्षा का संबंध है, घोषणा बहादुर सरकारों की कोई कमी नहीं रही और जो वर्तमान भाजपा सरकार है, उसे घोषणा वीर कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। इसका प्रमाण यह है कि अभी तक शिक्षा का बुनियादी ढांचा ही नहीं बन पाया है, ख़ास तौर से देहाती और कसबाई इलाकों में। अगर कुछ है भी तो वह दिल्ली और राज्यों की राजधानियों तक ही सिमटकर रह गया है। अगर किसी को बढ़िया और रोज़गार दे सकने वाली पढ़ाई करनी है तो उसे बड़े शहरों का रुख़ करना होगा। यहां भी अच्छे शिक्षण संस्थानों में प्रवेश मिलना मुश्किल होने से कुकुरमुत्ते की तरह उग आये स्कूल, कॉलेज और भारी फीस लेने वाले शिक्षा के नाम पर दुकानें चलाने वाले लोगों का वर्चस्व है।
ये अधिकतर वे लोग हैं जिनका इरादा अधिक से अधिक मुनाफा कमाना होता है, उनका शिक्षा की गुणवत्ता से कोई लेना देना नहीं होता। इन पर कोई अंकुश भी नहीं लगता क्योंकि यहां धन बल और नेताओं से संबंध होना ही पर्याप्त है। जिस तरह सरकारी स्कूलों में पुराने ज़माने का विकृत इतिहास और सड़े गले विषयों को रटंत विद्या के माध्यम से पढ़ाया जाता है, उसी तरह निजी संस्थानों में भी यही सिलेबस अपनाया जाता है। यहां से निकलने के बाद विद्यार्थी का जब नौकरी या रोज़गार के लिए वास्तविकता से सामना होता है तो वह अपने को अनपढ़ ही पाता है। इस प्रकार कहने को शिक्षित, लेकिन किसी भी सम्मानजनक या अपनी महत्वकांक्षा से प्रेरित होकर कैसा भी व्यवसाय करने की योग्यता का उनमें निरन्तर अभाव रहता है।
वास्तविकता यह है कि तीस वर्ष तक के एक चौथाई युवा बेरोज़गार हैं। या तो वे बिल्कुल अनपढ़ हैं या मामूली अक्षरज्ञान है और वे छोटे मोटे घरेलू या किसी दुकान या गली मोहल्लों में खुले मैकेनिक या कल कारखानों में काम करते हुए अपना जीवन किसी तरह गुज़ार देने को ही अपनी काबिलियत समझते हैं। इस तरह शिक्षा का सीधा संबंध गरीबी और बेरोज़गारी से जुड़ जाता है और देखा जाए तो यह दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
जो पैसे वाले और समर्थ हैं, वे अपने बच्चों को कहीं भी पढ़ने के लिए भेज सकते हैं, चाहे देश हो या विदेश, लेकिन जो किसी तरह दो वक्त की रोटी का ही जुगाड़ मुश्किल से कर पाते हैं, उनका अपना और उनके बच्चों का भविष्य ही अंधकारमय होता है। इसलिए इस विषय पर सरकार को विशेषकर और समाज को अनिवार्य रूप से चिंतन मनन करने की ज़रूरत है वरना हम पिछड़ेपन के दौर से न तो निकल पायेंगें और न ही कभी इतने सक्षम हो सकेंगे कि प्रतिदिन नए कीर्तिमान स्थापित करती आधुनिक टेक्नोलॉजी और प्रमुख रूप से आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के साथ कदमताल मिला कर चलने के योग्य हो पायें। वर्तमान सरकार की नीतियों की बदौलत इस साल महंगाई अपने चरम पर रहने वाली है। हमारी विकास दर नीचे गिर रही है और सरकार है कि उस पर लगाम लगाने में नाकाम साबित हो रही है क्योंकि उसका लक्ष्य केवल अधिक से अधिक टैक्स वसूलना है। चाहे वह सामने दिखाई देता हो या जनता की जेब से चुपचाप निकाल लिया जाता हो। जो नौकरीपेशा हैं या स्वरोज़गार करने वाले हैं, उन्हें इस वर्ष अनेक मुसीबतों का सामना करना पड़ेगा क्योंकि उनके लिए जितनी भी घोषणाएं की जाती हैं, वे अपना असर दिखाने से पहले ही अंधेरों में गुम हो जाती हैं और सामान्य व्यक्ति अपने को ठगा सा महसूस करता है। जितनी तनख्वाह बढ़ी या कमाई हुई उससे अधिक आवश्यक वस्तुओं, जैसे पेट्रोल डीज़ल तथा खाद्य पदार्थों की कीमतें बढ़ जाती हैं। सरकार की केवल धनी वर्ग को ध्यान में रख कर बनाई जाने वाली आर्थिक नीतियों के कारण कॉर्पोरेट जगत और बड़े घरानों की आमदनी और उनका लाभ लगातार बढ़ता रहेगा।
यदि फरवरी में पेश किए जाने वाले बजट में कोई उचित प्रावधान जिससे महंगाई कम हो सके, नहीं किया गया तो जनता का आक्रोश अपनी सीमा लांघ सकता है और सरकार के प्रति अविश्वास और उसके अस्तित्व के लिए चुनौती बन सकता है।
अर्थव्यवस्था में सुधार और कीमतें कम करने के लिए उपभोक्ता वस्तुओं को कॉर्पोरेट जगत से निकालकर निजी छोटे निवेशकों को सौंपने से यह समस्या आंशिक रूप से हल की जा सकती है। इसी से जुड़ा दूसरा मुद्दा है कि सामान्य व्यक्ति को सामाजिक सुरक्षा और निर्धन तथा ज़रूरतमंद के जीवन के लिए रोज़गार उपलब्ध कराने के लिये सरकार को नीतियां बनानी होंगी क्योंकि हमेशा के लिए एक बड़ी आबादी को मुफ्त अनाज और दूसरी सुविधाएं नि:शुल्क देते रहने के परिणाम भयंकर होंगे। लोगों के काम करते रहने की आदत कम होती जाएगी और विशाल जनसंख्या हमेशा के लिए मुफ्त में मिलने वाली सुविधाओं की वजह से निठल्ली और निकम्मी बन जाएगी।
भारत की सबसे बड़ी समस्या भ्रष्टाचार है। सुविधा शुल्क की महामारी अब निचले स्तर पर भी तेज़ गति से फैल रही है। चाहे नौकरी हो, रोज़गार या व्यवसाय हो या फिर कोई साधारण काम हो, मुट्ठी गर्म करने का इंतज़ाम करना पड़ता है। इसी से जुड़ी समस्या प्रदूषण की है जिसका जन्म भ्रष्टाचार से ही हुआ है। जब कानून है कि वायु और जल प्रदूषण करने वाली यूनिटों पर सख्त कार्यवाही होगी तो फिर नदियों में ज़हरीले रसायन क्यों छोड़े जाते हैं, बिना ट्रीटमेंट के कचरा कैसे जला दिया जाता है? विकास के नाम पर पेड़ों की अंधाधुंध कटाई और हरियाली समाप्त करने की क्या तुक है, यह समझ से परे है। यही कुछ है जो 2025 में अपेक्षित है जिसकी अगर उपेक्षा की गई तो यह अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने के समान होगा।