डा. मनमोहन सिंह को याद करते हुए

आज के दिन मेरे लिए पूर्व प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह तथा पंडित जवाहर लाल नेहरू की बात करना आप-बीती तथा जग-बीती के पृष्ठ खंगालना है। मैं देश सेवक समाचार पत्र को पटरी पर लाने में व्यस्त था कि 1996 के किसी दिन मुझे लाजपत राय भवन वालों का संदेश आ गया कि वहां कोई कांफ्रैंस हो रही है और मैंने उसमें उपस्थित होना है। भवन के प्रवेश द्वार पर पहुंचा तो कुछ जाने-पहचाने चेहरे बातें करते मिले। मैं भी उनमें शामिल हो गया। अचानक शब्द सुनाई दिए, ‘मुख्य मेहमान आ गए हैं, कुर्सियां खाली हैं।’ मुख्य प्रबंधक मुझे एक तरफ ले जा कर कहने लगा, ‘आप मौका सम्भालें तथा मैं सब को सीटें सम्भालने के लिए प्रेरित करता हूं।’ मौके से उनका भाव मनमोहन सिंह था। मनमोहन सिंह केन्द्र में वित्त मंत्री थे। उन्होंने उद्घाटन करना था और वह दो-चार मिनट पहले ही आ गए थे। मैं उन्हें अगली सीट पर बैठा कर उनके पास बैठ गया। ‘मैं आपके विद्यार्थी समय के साथी सुरजीत हांस का मित्र हूं।’ मुझे और कुछ समझ नहीं आया तो बात शुरू करने के लिए हांस का नाम लिया, जो सरकारी कालेज होशियारपुर में मनमोहन सिंह के कालेज में इतिहास की एम.ए. का विद्यार्थी था। ‘वह तो आजकल पंजाबी यूनिवर्सिटी पटियाला में विज़िटिंग प्रोफैसर हैं।’ मनमोहन सिंह ने हांस के बारे में ये शब्द इस तरह कहे जैसे कोई अपने से बड़े व्यक्ति की बात करता है।
हाल इतना खाली नहीं था जितना प्रबंधकों की घबराहट तथा उनके सांसों की आवाज़ दर्शा रही थी। 8-10 मिनट में सभी सीटें भर गईं। मैं तथा डा. मनमोहन सिंह उस समय के होशियारपुर कालेज की बातें करते रहे जो लाहौर से उजड़ कर आई पंजाब यूनिवर्सिटी का मुख्यालय बन चुका था। डा. साहिब ने यह भी बताया कि उन दिनों में प्रसिद्ध कला पारखू तथा आर्ट हिस्टोरियन बी.एन. गोस्वामी भी आई.ए.एस. अधिकारी वाली नौकरी छोड़ कर उच्च शिक्षा के लिए उस कालेज में आ चुके थे। मुझ से यह सुन कर कि खालसा कालेज माहिलपुर वाला यशदीप बैंस भी उनके कालेज का विद्यार्थी था, जो अमरीका जाकर शेकस्पीयर एवं स्कालर के रूप में प्रसिद्ध हुआ। इन सभी की पढ़ाई के विषय तो अलग-अलग थे, परन्तु एक ही होस्टल में रहते होने के कारण एक-दूसरे के अच्छे वाकिफ थे। खूबी यह कि उनकी बात करते समय डा. मनमोहन सिंह उनके लिए उत्तम सम्बोधिन इस्तेमाल कर रहे थे और मैं बिल्कुल ही नहीं। जब तक मुझे अपनी लापरवाही का एहसास हुआ, प्रबंधक उन्हें मंच पर ले जा चुके थे। यह मेरी उनके साथ पहली एवं अंतिम मुलाकात थी, जिसमें मैंने उनकी विनम्रता को जाना। 
यह भी बता दूं कि इन सज्जनों के होशियारपुर में पढ़ते समय मैं माहिलपुर छोड़ कर अपने माता-पिता के पास दिल्ली जा चुका था। चाहे होशियारपुर वहां (माहिलपुर) से 20 किलोमीटर दूर ही था, परन्तु मेरे बापू जी को माहिलपुर तक गांव से साइकिल पर जाना तो गवारा था, परन्तु होशियारपुर पढ़ने के लिए होस्टल में रहने का खर्च बिल्कुल नहीं। बापू जी रोज़ी-रोटी के लिए ऊंटों पर सामान की ढुलाई करते थे, मनमोहन सिंह के पिता किराने की दुकान करते थे और गोस्वामी का परिवार भी मनमोहन सिंह के परिवार की भांति पाकिस्तान से विस्थापित होकर आया था, परन्तु उसके पिता जी होशियारपुर जज लगे हुए थे। यशदीप बैंस जो मेरे बी.ए. करते समय वहां एफ.ए. कर रहा था, के पिता गुरबचन सिंह की माहिलपुर में काफी जयदाद थी और बाबू जी के नाम से जाने जाते थे। इधर हांस के पिता अंग्रेज़ सरकार के समय नहरों के ओवरसीर थे। 
यह सबब की बात है कि मनमोहन सिंह के निधन के एक दिन पहले भारत को मारूती 800 जैसी सुंदर कार देने वाले ओधामु सुज़ुकी का भी 94 वर्ष की आयु में निधन हो गया और चार दिन बाद अमरीका के सौ वर्षीय पूर्व राष्ट्रपति जिन्मी कार्टर भी चल बसे। इस सभी ने 2024 के अंतिम सप्ताह को महान श़िख्सयतों के चले जाने वाला बना दिया। इनमें से अकेले मनमोहन सिंह थे, जिन्होंने पाकिस्तान के छोटे से गांव में जन्म लेकर अपनी बुद्धि-विवेक से वजीफा प्राप्त करते हुए आक्फोर्ड एवं कैम्ब्रिज से शिक्षा प्राप्त की। राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के प्रमुख रहे। योजना आयोग, भारतीय रिज़र्व बैंक, यूनिवर्सिटी ग्रांट कमिशन, अंतर्राष्ट्रीय साऊथ कमिशन जेनेवा तथा भारत के दो बार प्रधानमंत्री रहे। इनमें से 1995 का इंडियन साइंस कांग्रेस वाला जवाहर लाल नेहरू पुरस्कार भी शामिल कर लें तो मिज़र्ा ़गलिब का शे’अर याद आ जाएगा :
मंज़र एक बुलंदी पर और हम बना सकते,
अर्श से इधर होता काश कि मकां अपना।  
नि:संदेह उन्होंने एक साधारण परिवार से उठ कर ऊंची बुलंदियों को छूआ था।
पंडित जवाहर लाल नेहरू के निधन के समय मैं बस के द्वारा पटियाला से दिल्ली जा रहा था। 27 मई को तपिश भरा दिन था। अम्बाला से चढ़ने वाले टिकट चैकर ने तपिश और भी बढ़ा दी। वह किसी बात से कन्डक्टर से नाराज़ था और बस में प्रवेश करते ही उस पर बरस पड़ा। यात्रियों ने गर्मी का वास्ता देकर उसे शांत किया तो बस शाहबाद मारकंडा से निकल चुकी थी। इसके बाद ‘आपको पता है पंडित जी चल बसे हैं?’ उसके वाक्य ने पूरे माहौल को शांत कर दिया। ‘कौन से पंडित जी?’ किसी की धीमी सी आवाज़ आई, ‘अपने प्रधानमंत्री पंडित नेहरू।’ 
चैकर ने सहजता से उत्तर दिया। यह सुनते ही ड्राइवर ने ब्रेक लगा कर बस सड़क की बाएं ओर खड़ी कर दी और सभी ओर खामोशी छा गई। यात्रियों के मन में ड्राइवर का सम्मान था। बस के पुन: चलते ही पंडित नेहरू की प्रशंसा में इतनी बातें हुईं कि प्रत्येक को गर्मी की तपिश भूल गई। पता नहीं लगा कि कब पानीपत पहुंच गए। तब वहां का फ्लाईओवर नहीं बना था। क्या देखते हैं कि दाएं-बाएं की दुकानें बंद हैं और सभी लोग एक बड़े जुलूस के रूप में चल रहे थे। 
एक बड़ा जुलूस चुप-चाप जा रहा था कि ड्राइवर ने अचानक ब्रेक लग कर पहले की भांति बस रोक ली। भीड़ का कोई अंत नहीं था। मैंने देखा कि जुलूस वाले ड्राइवर को नीचे खींचते हुए कुछ बोल रहे थे। यह भी कि उसने हॉर्न क्यों बजाया था। ड्राइवर सिख था और हम हरियाणा के उस गढ़ में से गुज़र रहे थे, जहां पंजाबी सूबे की मांग के कारण हरियाणवी हिन्दू सिखों को देखना पसंद नहीं करते थे। ड्राइवर को कोई भी आंच आ सकती थी। उस ड्राइवर को जिसका पंडित जी के प्रति मोह एवं सम्मान हमने आधा-पौणा घंटा पहले ही देखा था। 
मैंने मौका सम्भालने के लिए हस्तक्षेप करना चाहा तो नीचे उतर कर क्या देखता हूं कि सिख ड्राइवर को सीट से नीचे की ओर खींचने वालों में सिख अधिक थे और हिन्दू कम। शायद इसलिए कि इस अवसर पर हिन्दुओं का हस्तक्षेप स्थिति को गलत अर्थ प्रदान कर सकता था। ऐसे में बस से नीचे उतर कर उन्हें समझाने की शक्ति भी मुझे बुरी खबर सुन कर सिख ड्राइवर द्वारा बस खड़ी करने से मिली थी। जब मैंने देखा कि किसी प्रकार की दुर्घटना की आशंका नहीं तो उसी समय वापिस लौट कर अपनी सीट पर जा बैठा।  
यदि पंडित नेहरू वाली उस बात का प्रसंग यहां भी जुड़ता हो, मेरा मन तब भी बताए बिना नहीं रह सकता। 

अंतिका
(इस वर्ष का राष्ट्रीय साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता हिन्दी शायरा गगन गिल)

पिता ने किहा
मैं तैनूं अजे तक विदा नहीं कीता
तूं मेरे अंदर है
दुख दी थावें
........
चिन्ता ना, कर
पिता ने किहा
हुण दुख ही तेरा पिता है
अनुवाद : अमरजीत कौंके।     

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