पाकिस्तान के लिए बड़ा खतरा बन गया है तालिबान

आतंरिक अशांति और आर्थिक परिस्थितियों से जूझ रहे पाकिस्तान ने जब अपनी अवाम को कुछ साहसी एहसास कराने के लिए पिछले दिनों अफगानिस्तान में हवाई हमला करके दो दर्जन से ज्यादा अफगान नागरिकों को मार दिया, जो उसके मुताबिक तहरीक-ए-तालिबान के आतंकी थे और उसकी सम्प्रभुता के साथ खिलवाड़ कर रहे थे,जबकि अफगानिस्तान का कहना है कि पाकिस्तान ने अपनी हवाई सेना की ताकत की धौंस जमाने के लिए अफगानिस्तान के आम लोगों को निशाना बनाया है ताकि अपनी आंतरिक परेशानियों से लोगों का ध्यान बंटा सके। बहरहाल पाकिस्तान के हवाई हमले को अपने देश पर हमला मानते हुए, अफगानिस्तान में सत्तारूढ़ तालिबान ने पाकिस्तान पर जबरदस्त पलटवार किया और सरहदी चौकियों में तैनात 19 पाक रेंजर्स को मार गिराया। यही नहीं पाकिस्तान पर अफगानिस्तान ने जिस तरह से हमला करके उसकी दो सीमा चौकियों पर कब्जा कर भी लिया है, उससे अंदाज़ा लग रहा है कि दोनों के बीच किस हद तक जंग भड़क चुकी है।
सवाल है अगर यह संघर्ष तुरंत नहीं थमा तो यह कहां जाकर रुकेगा,कोई नहीं जानता। भले कागज़ों और आंकड़ों में पाकिस्तान अफगानिस्तान की कोई तुलना ही न हो, लेकिन व्यवहारिक सच्चाई और हाल के दशकों में दुनिया की दो-दो सैन्य महाशक्तियों के विरूद्ध तालिबान की जीवटता को ध्यान में रखें तो उसके पास भले पुराने पड़ चुके हथियार हों, लेकिन उनका दुस्साहस और उनमें आत्मघात का जो जुनून है, उसके सामने पाकिस्तान का टिकना मुश्किल होगा। 
गौरतलब है कि तालिबान ने पहले सोवियत संघ और फिर दुनिया की सबसे आधुनिक और ताकतवर माने जाने वाली अमरीकी सेना को भी इसी फिदाइन जुनून के सामने घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया था। अंतत: सैन्य महाशक्तियों को अफगानिस्तान छोड़कर जाना पड़ा। तालिबान के खाते में यह इतिहास उसके आत्मविश्वास को और भी खूंखार बना देता है। इसलिए अगर कहा जाए कि पाकिस्तान ने तालिबानी बर्र के छत्ते पर अंगुली देकर उसे उकसा दिया है और उसका यह उकसना अब पाकिस्तान के लिए भारी पड़ सकता है, तो अतिश्योक्ति न होगी ।
गौरलतब है कि एक लम्बे समय तक पाकिस्तान ने तालिबानों का मध्यस्त बनकर अमरीका से अच्छे खासे डॉलर कमाता रहा है। क्योंकि अमरका के लिए पाकिस्तान ने अफगानिस्तान में पहले सोवियत संघ की सेनाओं से तालिबान को लड़ाने का ठेका ले रखा था और फिर जब 9/11 के बाद तालिबान अमरीका का दुश्मन बन गया तो तालिबान को खत्म करने में मदद करने के लिए भी पाकिस्तान अमरीका को चूसता रहा। सालों साल कभी तालिबान को, कभी सोवियत सेना को ब्लैकमेलिंग का ज़रिया बना कर पाकिस्तान ने लम्बे समय तक न सिर्फ  तालिबान जैसे फुंकारते नागों का पालन पोषण किया है, बल्कि उनके शुभचिंतक के रूप में भी अपने को पेश करता रहा। 
पाकिस्तान को गलतफहमी थी कि उसकी राजनीति को तालिबान कभी समझ नहीं सकता, लेकिन यह उसकी गलती थी। तालिबान पाकिस्तान की दोहरी और ज़हरीली भूमिका को बहुत अच्छी तरीके से समझता था, इसलिए जब वह सोवियत संघ और अमरीका को खदेड़ने में सफल रहा, तब अपना फोकस पाकिस्तान की तरफ  कर दिया और पाकिस्तान को बताया कि वह जिस शरिया का शासन स्थापित करने के लिए उसे तैयार कर रहा है, वही शरिया का शासन क्यों न खुद पाकिस्तान पर लागू किया जाए और जब पाकिस्तान इस पर तालिबान को अपनी ताकत के ज़रिये धमकाने की कोशिश की तो पता चला कि लम्बे समय से उसने तालिबान नामक जो इम्सानी बम तैयार किए हैं, अब वे उसे ही शिकार बनाने के लिए पूरी तरह से तैयार हैं।
पाकिस्तान के अंदर तहरीक-ए-तालिबान (टीटीपी) की 2007 में स्थापना हुई और इस कट्टर सुन्नी समूह ने घोषणा कर दी कि पाकिस्तान में वह इस्लामी यानी शरिया का शासन लागू करके रहेगा। हालांकि तकनीकी तौर पर टीटीपी और अफगान तालिबान के बीच कोई सीधा रिश्ता नहीं है। ये दोनों अलग-अलग संगठन हैं, लेकिन टीटीपी तालिबान की विचारधारा से प्रभावित है और अफगानिस्तान में सत्तारूढ़ तालिबान टीटीपी को संरक्षण देता है। इसलिए जब टीटीपी पर हमला करने के बहाने पाकिस्तान अफगानिस्तान में घुसकर टीटीपी के आंतकियों को निशाना बनाने की बात कहता है तो सत्तारूढ़ अफगानी तालिबान इसे अपनी सम्प्रभुता के खिलाफ हमला मानते हैं और इस तरह न चाहते हुए भी वे टीटीपी के साथ खड़े हो जाते हैं। साल 2007 में विभिन्न चरमपंथी गुटों को मिलाकर बना तहरीक-ए-तालिबान का लक्ष्य वास्तव में पाकिस्तान की सरकार को गिराना और शरिया के नाम पर इस देश में तालिबान का शासन लागू करना है और इसके लिए वह पिछले डेढ़ दशकों से पाकिस्तान पर बार-बार दिल दहलाने वाले चरमपंथी हमले करता रहा है। यह खास तौर पर पाकिस्तान की सेना, पुलिस, यहां के स्कूलों और सरकारी संस्थानों को अपने हमले का निशाना बनाता है ताकि पाकिस्तान की ताकत को कमज़ोर किया जाए।
ऐसे में सवाल है कि क्या पाकिस्तान जिस तालिबान नामक भस्मासुर को कभी अपनी सहूलियत के लिए खड़ा किया था, अब वह उसी के असितत्व के लिए संकट नहीं बन गया? जी हां, ऐसा ही है। हालांकि जैसा कि हमने पहले ही कहा है कि आंकड़ों और आधुनिक पैमानों में पाकिस्तान और तालिबान की कोई तुलना ही नहीं है। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अफगान तालिबान के पास डेढ़ लाख ऐसे आत्मघाती लड़ाके हैं जो किसी भी तरह के दुस्साहस से कभी बाज नहीं आते। वैसे भी अफगान शासन ने हाल में अपनी इस लड़ाकू सेना में 50 हज़ार से ज्यादा नये रंगरूटों को जोड़ने की योजना का खुलासा किया था और अब तक वे इसके साथ जुड़ भी चुके हैं। इसलिए अगर पाकिस्तान को लगता है कि वह तालिबान की खूंखार आक्रामकता का अपनी राजनीतिक तिगड़मबाजी के लिए, दूसरे देशों के विरुद्ध इस्तेमाल कर सकता है और उसके लिए वे कभी खतरनाक नहीं साबित होंगे तो यह उसका दिवास्वप्न है।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर 

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