रुपये को स्थिर रखने में रिज़र्व बैंक के नये गवर्नर की भूमिका सीमित
रिज़र्व बैंक के नये गवर्नर संजय मल्होत्रा, जो एक पेशेवर नौकरशाह और पूर्व राजस्व सचिव हैं, से मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने, घरेलू मुद्रा को स्थिर करने, विदेशी मुद्रा नियंत्रण और आर्थिक विकास को बढ़ावा देने जैसे केंद्रीय बैंक प्रमुख के प्रमुख कार्यों को पूरा करने के मामले में बहुत उम्मीद करना अनुचित होगा। यदि 2014 के बाद से रिज़र्व बैंक के तीन पूर्ववर्ती गवर्नर—रघुराम राजन, उर्जित पटेल और शक्तिकांत दास उन उद्देश्यों को पूरा करने में सक्षम नहीं थे, तो यह उम्मीद करने का कोई कारण नहीं है कि वर्तमान रिज़र्व बैंक गवर्नर का प्रदर्शन बहुत अलग होगा।
शक्तिकांत दास, जो एक पेशेवर नौकरशाह और पूर्व वित्त सचिव भी हैं, का रिज़र्व बैंक गवर्नर के रूप में दूसरा सबसे लंबा कार्यकाल था। इसके बावजूद दास ने मूल्य और मुद्रास्फीति को रोकने में बहुत कम सफलता हासिल की, खासकर मज़दूरों से जुड़ी वस्तुओं के मामले में जैसे खाद्यान्न वस्त्र, दूध, साबुन, चीनी आदि जो देश की 70 प्रतिशत से अधिक आबादी वाले निम्न और मध्यम आय वर्ग को चिंतित करते हैं। वह रुपये के विनिमय मूल्य में गिरावट को भी नहीं रोक पाये तथा बड़े पैमाने पर प्रत्यक्ष विदेशी निवेश, आवक और जावक दोनों तरह से धन के प्रवाह, एवं व्यापार और आर्थिक विकास को भी स्थिर नहीं रख सके। इसके विपरीत चिंताजनक रूप से रुपया-अमेरिकी डॉलर विनिमय समता 2014 से 40 प्रतिशत से अधिक गिर गयी है। एक अमरीकी डॉलर के लिए विनिमय दर 60.34 रुपये से बढ़कर अब 85 रुपये से अधिक हो गयी है।
निश्चित रूप से यह आरबीआई गवर्नर के अधिकार में नहीं है कि वह स्वतंत्र रूप से अपने कार्यात्मक उद्देश्यों को आगे बढ़ायें और अपनी सफलता या विफलता के लिए जिम्मेदार हों। यह अक्सर होता है कि आरबीआई गवर्नर सरकार और राजनीतिक रूप से प्रभावशाली बड़े औद्योगिक उधारकर्ताओं के दबाव में काम करते हुए देखे जाते हैं।
पिछले 10 वर्षों (2013-2023) में भारत की औसत जीडीपी वृद्धि दर 8.5 प्रतिशत थी। मजदूरों से जुड़े सामान के लिए औसत खुदरा मुद्रास्फीति दर लगभग नौ प्रतिशत थी। यह कहना मुश्किल है कि आरबीआई की ब्याज दर में हेरफेर पिछले कुछ वर्षों में इस तरह की उच्च मुद्रास्फीति प्रवृत्तियों को नियंत्रित करने में कितनी प्रभावी रही है। आरबीआई द्वारा तय की गयी प्राइम लेंडिंगरेट का देश की अर्थव्यवस्था, मुद्रास्फीति दरों और खपत पर बहुत कम प्रभाव पड़ा। अप्रैल 2012 में भारत की उच्चतम बैंक ऋण दर 12.56 प्रतिशत थी। 2012 से 2024 तक भारत में औसत बैंक ऋण दर 10.61 प्रतिशत थी। मुद्रास्फीति नियंत्रण, विनिमय दर स्थिरता, आर्थिक स्थिरता, व्यापार और निवेश के लिए अनुकूल वातावरण और निर्यात को बढ़ावा देने के संबंध में आरबीआई की नीतियां इन क्षेत्रों में सरकार के अपने निर्णयों, कार्यों या निष्क्रियताओं से काफी प्रभावित होती हैं, यदि काफी हद तक निर्देशित नहीं होती हैं तो भी।
कागज़ पर केंद्रीय बैंक मौद्रिक नीति के लिए ज़िम्मेदार है, जिसमें मुद्रा आपूर्ति का निर्धारण करना, मुद्रा मूल्य को स्थिर करने में मदद करने के लिए मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने सम्बंधी नीतियों को लागू करना शामिल है। यदि आरबीआई रुपये की विनिमय दर स्थिरता बनाये रखने में विफल रहा है, तो इसका कारण यह है कि सरकार देश को पर्याप्त रूप से आत्मनिर्भर बनाने में पूरी तरह विफल रही है। देश तेज़ी से आयात पर निर्भर होता जा रहा है, जिससे साल दर साल भारी व्यापार घाटा हो रहा है। इससे रुपये की विनिमय दर स्थिरता प्रभावित हो रही है। शुद्ध विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (एफडीआई) कम बना हुआ है, हालांकि आरबीआई की नीति एफडीआई के अनुकूल है।
आरबीआई देश और उसके बाज़ार के बारे में विदेशी निवेशकों की धारणा को बदलने के लिए कुछ खास नहीं कर सकता, जो मूल रूप से सरकार का काम है। 2024 के दौरान भारत का शुद्ध विदेशी प्रत्यक्ष निवेश केवल 10.58 अरब अमरीकी डॉलर के आसपास रहने की उम्मीद है। सरकार अक्सर उच्च व्यापार घाटे के लिए बढ़ते पेट्रोलियम आयात को दोषी ठहराती है। यह सच नहीं है। (संवाद)