किसके पक्ष में भुगतेगी जम्मू-कश्मीर की राजनीतिक शतरंज ?
कल्पना कीजिए कि जम्मू-कश्मीर के विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी जीत कर सरकार बना लेती है। उस सूरत में भाजपा वाले अपनी इस अनोखी उपलब्धि का आकलन कैसे करेंगे? मेरा विचार है कि भाजपा और संघ के दायरों में इस उपलब्धि को केंद्र में तीसरी बार सरकार बना लेने (भले ही वह गठजोड़ सरकार ही क्यों न हो) से भी बड़ी और चमकदार कामयाबी के रूप में देखा जाएगा। वे दावा करेंगे कि हिंदुत्व का नैशनल एजेंडा तेजी से सफलता की तरफ बढ़ रहा है और कश्मीर की जनता ने उस पर अपनी मुहर लगा दी है। ़गैर-भाजपा राजनीतिक शक्तियों के लिए यह एक प्रभावशाली संदेश होगा जिसके आधार पर उनके बीच मोदी-शाह की जोड़ी और भाजपा-संघ की जोड़ी प्रति स्वीकारोक्ति कई गुना बढ़ जाएगी। कुल मिला कर अमित शाह का किरदार एक लोकनायक जैसा हो जाएगा और नरेंद्र मोदी के उत्तराधिकारी के रूप में अगले प्रधानमंत्री के तौर पर उनकी कल्पना की जाने लगेगी।
लेकिन क्या भाजपा कश्मीर में जीत सकती है? क्या यह कल्पना राजनीति की ज़मीन पर साकार हो सकती है? मेरा ख्याल है कि भाजपा ने यह स्थिति लाने के लिए एक जो ़खास तरह की पेशबंदी की थी, वह चुनाव परिणामों के बाद अपर्याप्त भी साबित हो सकती है। धारा 370 के अनुच्छेद 35ए को निष्प्रभावी करने का बड़ा कदम उठाने से पहले भाजपा ने एक तिहरी रणनीति बनाई थी। उसने घाटी में उपस्थिति बढ़ाने के लिए बड़े पैमाने पर सदस्यता भर्ती अभियान चला कर लगभग 85,000 सदस्य भर्ती कर लिये थे। उसकी योजना थी कि मुस्लिम बहुल घाटी में अपने कदम मज़बूत करके केंद्र शासित विधानसभा के चुनाव में कम से कम 8-10 सीटें जीती जा सके। घाटी के कुछ इलाके ऐसे थे जहां भाजपा की संभावनाएं परवान चढ़ सकती थीं। मसलन, बडगाम ज़िला शिया बहुल आबादी वाला है। शिया मुसलमान सत्तर के दशक से ही पहले जनसंघ और अब भाजपा के प्रति हमदर्दी रखते रहे हैं। अनंतनाग निर्वाचन क्षेत्र के आतंकवाद पीड़ित त्राल क्षेत्र में भाजपा को नैशनल कांफ्रैंस, पीडीपी और कांग्रेस से ज्यादा वोट मिले थे। भाजपा मान कर चल रही थी कि अगर घाटी से बाहर रह रहे कश्मीरी पंडितों को वोट डालने के लिए एम फॉर्म भरने के जटिल झंझट से न गुज़रना पड़ता तो ़फाऱूक अब्दुल्ला तक को चुनाव में हराया जा सकता था।
़खुफिया एजेंसियों ने योजनापूर्वक घाटी में नयी राजनीतिक शक्तियों को बढ़ावा देना शुरू कर दिया था। आईएएस बने शाह फैज़ल के नेतृत्व में एक पार्टी बनवा दी गई थी। विधानसभा में भाजपा विधायकों के हाथों मुंह काला करवाने वाले इंजीनियर रशीद की पार्टी भी सक्रिय कर दी गयी थी। ़फैज़ल और उनमें गठजोड़ हो गया था। रशीद अ़खबारों में पहले से मोदी समर्थक लेख लिख रहे थे। उनका मानना था कि मोदी को घाटी के बारे में कोई असाधारण कदम उठाना चाहिए। इस तरह उस काम के लिए रास्ता साफ कर रहे थे जो अंतत: अमित शाह ने सितम्बर, 2019 में उठाया।
यह एक ऐसा समय था जब पीपुल्स डैमॉक्रैटिक पार्टी (पीडीपी) भारतीय जनता पार्टी के साथ गठजोड़ सरकार चलाने के कारण अपनी राजनीतिक छवि पर लगे धब्बे को धोने में नाकाम लग रही थी। लोकसभा चुनाव में महबूबा मुफ्ती समेत उसके सभी उम्मीदवार उस दक्षिण कश्मीर में चुनाव हार गए थे जो कुछ दिन पहले उनका गढ़ हुआ करता था। नैशनल कांफ्रैंस की हालत यह थी कि चुनाव में कुछ सकारात्मक परिणाम मिलने के बावजूद उसकी सांगठनिक हालत खस्ता दिखाई दे रही थी। अब्दुल्ला परिवार के नेतृत्व की चमक पहले जैसी नहीं रह गई थी। ़फारूक अब्दुल्ला भ्रष्टाचार के मामलों में बुरी तरह से फंसे हुए थे, और उमर अब्दुल्ला अरसे से निष्क्रिय पड़े हुए थे। कांग्रेस का संगठन घाटी में पहले ही ठंडा पड़ा था। ऊपर से लोकसभा चुनाव में करारी हार के कारण उसके आलाकमान की हताश निष्क्रियता ने उसे और भी निष्प्रभावी कर दिया था।
केंद्र सरकार ने 35ए हटाने से पहले पूरी शतरंज बिछा चुकी थी। जैसे ही सदन में अमित शाह का प्रस्ताव पारित हुआ, कश्मीर की राजनीति में केवल एक ही खिलाड़ी रह गया। उसे ही शह देनी थी, और उसे ही मात देनी थी। ब़ाकी खिलाड़ी किसी काम के नहीं लग रहे थे। नज़रबंदी ने उनकी रही-सही सक्रियता भी समाप्त कर दी थी। सवाल यह है कि शतरंज की इस एकतरफा बाज़ी का अपेक्षित लाभ आज भाजपा को क्यों नहीं मिल रहा है? क्या जो इंजीनियर रशीद पूरी तरह से सरकारी एजेंट के रूप में देखे जाते थे, वे लोकसभा चुनाव में बारामूला से उमर अब्दुल्ला को हराने के बाद और फिर विशेष ज़मानत के तहत जेल से रिहा होने के बाद एक ़खुदमुख्तयार राजनीतिक खिलाड़ी के रूप में उभर आए हैं? आज उनके बारे में राय बंटी हुई है। कुछ लोग मानते हैं कि वे वही पुराने सरकारी एजेंट हैं, और कुछ लोग कहते हैं कि उनके किरदार में परिवर्तन हो गया है। यह एक खुला हुआ सवाल है कि अगर रशीद ने तीन-चार सीटें जीतीं, तो वे त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में किसे समर्थन देंगे? अगर वे भाजपा के साथ गये तो यह बात पक्की हो जाएगी कि सरकारी एजेंट की उनकी छवि सही है। और, अगर वे ़गैर-भाजपा गठजोड़ के साथ गये तो वे कश्मीर में कांफ्रैंस और पीडीपी के बाद एक तीसरी त़ाकत के रूप में उभर सकते हैं।
भाजपा कश्मीर में तभी सरकार बना सकती है जब वह जम्मू में असाधारण प्रदर्शन करे। वहां 43 सीटें हैं। भाजपा अगर वहां 35 से 40 के बीच सीटें जीत ले, तो फिर ब़ाकी 6-7 सीटों की जुगाड़ करना उसके लिए मुश्किल नहीं होगा। लेकिन, दिक्कत यह है कि जम्मू के मुस्लिम असर वाले इलाकों में नैशनल कांफ्रैंस मज़बूत दावा पेश कर रही है। इसी तरह कांग्रेस का भी जम्मू में पुराना असर है, और वह भी वहां कुछ सीटें जीत सकती है। जहां तक घाटी का सवाल है, भाजपा वहां 28 सीटों पर लड़ ही नहीं रही है। एक मात्र हब्बाकदल क्षेत्र है जहां पंडितों की आबादी है, और मतदान के गिरे हुए प्रतिशत के चलते रहा जा रहा है कि वहां भाजपा का उम्मीदवार जीत सकता है। बाकी घाटी में वह कुछ निर्दलीयों और कुछ डमी किस्म के उम्मीदवारों के भरोसे है कि वे अगर जीते तो उसकी मदद करने के लिए आसानी से तैयार हो जाएंगे। घाटी में सबसे अच्छा चुनाव नैशनल कांफ्रैंस लड़ रही है। कांग्रेस के पास वहां कोई सुपरिभाषित प्रभाव-क्षेत्र नहीं है। दक्षिण कश्मीर में पीडीपी वापसी कर सकती है, और उसकी कुछ सीटें अब्दुल्लाओं की पार्टी और कांग्रेस की सम्भावित सरकार के साथ गठजोड़ की भूमिका निभा सकती हैं। ध्यान रहे कि राष्ट्रीय स्तर पर चल रहे इंडिया गठबंधन में पीडीपी एक पार्टनर है और इसे सभी लोग स्वीकार करते हैं।
लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।