गर्म रहने वाला है एससी/एसटी आरक्षण का मुद्दा
हल ही में देश के उच्चतम न्यायालय ने एक फैसला दिया है जिसके तहत राज्यों को अधिक पिछड़े हुए वर्ग के लिए अलग कोटा देने के उद्देश्य से उप-वर्गीकरण करने की इजाज़त दी है। इसके विरोध में भारत बंद की काल भी थी। एससी के उप-वर्गीकरण की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखने वाले सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर विवाद छिड़ गया है। इससे पहले केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने एससी/एसटी के लिए आरक्षण में क्रीमीलेयर की शुरुआत को लेकर अटकलों को दूर करने की कोशिश की थी और घोषणा की थी कि इस तरह की कोई योजना नहीं है। अब राजनीतिक बहस इसलिए छिड़ी है क्योंकि अदालत के फैसले ने न केवल उप-वर्गीकरण की अनुमति दी, बल्कि कई न्यायाधीशों ने एससी आरक्षण से क्रीमीलेयर को बाहर करने पर भी अपनी राय ज़ाहिर की है। अब दो मुद्दे दांव पर नज़र आने लगे हैं-एक कानूनी और दूसरा राजनीति से प्रेरित। फैसले की आलोचना करने वाले कह रहे हैं कि एससी आरक्षण का आधार भेदभाव का ऐतिहासिक अनुभव है। दलितों के भीतर भी भारी असमानताएं देखी जाती हैं, लेकिन यह बात इतना महत्त्व नहीं रखती। विशेषाधिकार प्राप्त दलित होना क्या भेदभाव से बच रहा है? जबकि मंडल के तहत आरक्षण के विस्तार ने ऐसे हालात पैदा किए हैं जहां दलित और ओ.बी.सी. की स्थिति लगातार उलझी रही है। दोनों के साथ उपेक्षा की एक कहानी रही है। लेकिन देखा गया कि न केवल उनके इतिहास अलग हैं, अपितु एक दूसरे से टकराव की स्थिति भी बनी रही है। जब दोनों को एक करके देखा गया तो दलित के अनुभव की विशिष्टता पिछड़ेपन में नहीं, बल्कि भेदभाव में देखी गई है। आरक्षण का मुद्दा अब मुख्य रूप से पिछड़ेपन के तौर पर ही समझा जाता है। इस देश में सामाजिक न्याय की लड़ाई की एक कड़ी मंडल आयोग को लागू कर पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने 1990 में जोड़ी थी। सामाजिक न्याय की बात करने वाले मुख्य नेतागण को स्कूल और अस्पतालों को बचाना चाहिए था, वहीं से दलित आदिवासी-पिछड़े, अल्पसंख्यकों और पूरे गरीब वर्ग का भविष्य निर्मित होता है लेकिन उन नेताओं ने इसकी प्राथमिकता पर ध्यान नहीं दिया। सर्वोच्च न्यायालय के हाल में दिये गये फैसले पर जो राजनीतिक स्टैंड है वह दो दावों पर आधारित है। पहला यह आरक्षण को कमज़ोर करने की चाल है? इस आक्षेप पर यह कहा जा सकता है कि उप-वर्गीकरण नियमों के तहत जो पद खाली रह गए हैं, उन्हें वापस एससी कोटे में नहीं रखा जा सकता। दूसरा यह कि यह दलित राजनीति को विभाजित करने की कोशिश है, लेकिन यह तर्क प्रतिनिधित्व के उस तर्क का ही परिणाम है, जिसे पहले से अपनाया जा रहा है। विपक्ष का नारा है, ‘जितनी आबादी उतनी हिस्सेदारी’ वह उप विभाजन के तर्क पर ही कायम है। असल में दलित राजनीतिक चेतना पहले ही दलितों के बीच असमानता और दलित राजनीति करने वाले दलों के कमज़ोर होने से धीमी हो रही थी। उच्चतम न्यायालय ने कुछ भी गलत नहीं किया जब यह धारणा व्यक्त की कि आरक्षण योग्यता के विरुद्ध नहीं है। दरअसल आरक्षण उन समुदायों से योग्यता की पहचान करने का उपकरण है, जिन्हें ऐतिहासिक रूप से हाशिए पर रखा गया है, लेकिन उप-वर्गीकरण लागू करना प्रशासन के लिए गम्भीर चुनौती रहेगी। समाज के उन हिस्सों में भी समता समानता का विस्तार ज़रूरी है। कुछ समय पहले ब्राह्मण जाति में पैदा हुई लड़की साक्षी और दलित समुदाय में जन्मे अजितेश के प्रेम विवाह से हिंदी पट्टी में हंगामा छिड़ गया था। ब्राह्मण एवं दलित समाज में मातम-सा छा गया था। प्रतिक्रियाओं से कुछ ऐसा लग रहा था कि साक्षी मिश्रा ने दलित लड़के से अपनी इच्छा से विवाह करके अपने पिता राजेश मिश्रा के साथ-साथ पूरे ब्राह्मण समाज की नाक कटवा दी है। उच्च जातियों के जातीय संगठनों और व्यक्तियों द्वारा बिना पिता या परिवार के अन्य सदस्यों की अनुमति के शादी को अवैध ठहराने की मांग की जाने लगी।