गांधीगिरी राखिए आंगन कुटी छवाय

गांधी लोकतंत्र की आत्मा हैं। गांधी हमारे बीच नहीं हैं, वैसे न रहने वाले तो काफी हैं। लेकिन गांधी, नेहरू और जिन्ना का जीवन दर्शन जिंदा है। समय-समय पर उन्हें याद किया जाता है। आजकल संसद से सड़क तक गांधीगिरी का दौर है। कहीं उपवास तो कहीं गांधीगिरी चल रही है। हमें अपने लोकतंत्र पर कितना गर्व है। देखिए! बिल पर राजनीति बिलबिला रही है। सरकार बिल पर पीली है और ध्वनिमत का जयघोष कर दिया, लेकिन विपक्ष बिलबिला रहा है तो कोई बिल में घुसने को बेताब है। गांधी दर्शन में सफेद परजीवियों का अटूट विश्वास है। जब टूट जाते हैं तो गांधीगिरी पर लौट आते हैं। 
बापू की आत्मा अपने मुल्क की प्रौढ़ता पर कितनी गर्वित होती होगी। क्योंकि उनका उपवास, सत्याग्रह, चरखा और चिंतन, अहिंसा मंचों और भाषणों में कितना जिंदा और सुरक्षित है। अपुन के लोकतंत्र में कभी-कभी गांधी जी के क्लोनवादी फफूंद की तरह उभर आते हैं, जिसकी वजह से गांधी के पेटेंटवादियों के पेट में मरोड़ उठता है। खांटी गांधीवादी चिंता में पड़ जाते हैं। गांधीवाद के उत्तराधकारियों को यह बात पचती नहीं क्योंकि गांधीगिरी को जन्मसिद्ध अधिकार मानते हैं। उनके विचार में जब यह जिम्मेदारी वे भलीभांति निभा रहे होते हैं तो फिर दूसरों की क्या ज़रूरत।
समाजशास्त्री कहते हैं कि विचार कभी मरते नहीं हैं। फिर गांधी, नेहरू और गोडसे हमारे बीच भले जिंदा न हों, लेकिन उनके विचार जिंदा हैं। हमारे लोकतंत्र के लिए यह शुभ संकेत और उपलब्धि है। अपन के मुल्क में लाखों लोग हर रोज मरते और पैदा होते हैं, लेकिन किसी का विचार छोड़िए यादें तक जिंदा नहीं बचती। यहीं कम क्या हैं इनकी बची हुई है। दक्षिणपंथी, वामपंथी और सेक्यूलरवादी भी उतनी ही भावभक्ति से गांधी दर्शन को मानते हैं। वैसे गांधी को याद करने के लिए दो विशेष दिवस हैं, लेकिन इसी एक में गोडसे दर्शन ने भी अतिक्रमण कर लिया है। उस दिवस विशेष पर इस तरह के वादी बिल से भराभरा कर निकल आते हैं। यह गोडसे दर्शन के सामयिक चिंतक हैं, बाकि दिनों में गांधीवाद का ही अनुशरण करते हैं। हमारे जीन में गांधी और गोड्से जिंदा हैं। अगर वह मर गए तो  गांधी और गोड्सेवाद मर जाएगा। सत्ता और सिंहासन के साथ सियासत मर जाएगी। लोकतंत्र का दम निकल जाएगा। इसलिए उन्हें जिंदा रखना है। 
हम लोकतंत्र में विश्वास रखते हैं। हमारा संविधान समता-समानता की वकालत करता है। इसलिए हम गांधी और गोड्से में कोई फर्क नहीं रखते हैं। हमें बिल पर बवाल मंजूर नहीं। जब हम बिल पर आम सहमति चाहते हैं तो फिर मतविभाजन की क्या ज़रूरत? अपना का मुलुक दुनिया भर में ‘यूनिटी इन डायवर्सिटी’ के लिए जाना जाता है, फिर बिल का मतविभाजन क्यों कराएं। लोग हैं कि संविधान की मूल आत्मा को समझ नहीं पाते। अब सिर-फिरे विपक्ष को कौन बताए। इसीलिए हमने जनमत के बजाय ध्वनिमत का रास्ता अपनाया। यह मुल्क और संसद की विशुद्ध गांधीगिरी है। अब यह कितनी गिरी है यह अलग बात है। 
देश के कुछ विचारवादियों का मानना है कि आत्माएं भूत बन कर भी मंडराती हैं। जिसकी वजह से गोडसे की आत्मा हमारे लोकतंत्र में रह-रह कर हावी हो जाती है। अपनी संसद में भी बिल के खिलाफ यहीं बिलबिलाहट दिखी। माइक तोड़ी जाती है और बिल फाड़े जाते हैं। जिंदा और मुर्दाबाद होते हैं। लेकिन फिर गांधीवाद शर्मशार करने लगता है और बापू की आत्मा शान्ति के लिए हम प्रतिमा शरणम गच्छामि हो लेते हैं। उपवास चलता है और गांधीगिरी जिंदा हो जाती है। हम गांधी के ऋणी भले न हों, लेकिन उनकी प्रतिमाओं का शुक्रगुजार होना चाहिए जो हमें गांधी दर्शन की याद दिलाती हैं। 
भगवान कृष्ण ने युद्धभूमि में अर्जुन को उपदेश देते हुए स्वयं कहा है। आत्मा अजर अमर है, इसका कभी विनाश नहीं होता। वह केवल शरीर त्यागती है यानी गांधी और गोड्से ने केवल शरीर का त्याग किया है, उनकी आत्मा तो हमारे बीच है। उनका रहना बेहद ज़रूरी है। क्योंकि किसी कवि ने कहा है कि ‘सुई का काम तलवार नहीं कर सकती और न तलवार का काम सुई। इस लिए गांधी का काम न गोडसे कर सकते हैं और न गोडसे का गांधी। नेहरूजी तो बस, मौका देख कभी-कभी टपक पड़ते हैं। फिलहाल गांधी और गोडसे का जिंदा रहना नितांत ज़रूरी है। क्योंकि वर्तमान दौर में दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। जब गोडसेगिरी काम नहीं आती तो आखिर गांधीगिरी चल पड़ती है। इसलिए गांधीगिरी को आंगन में कुटी छवा कर रखना होगा। (सुमन सागर)

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