5000 कुश्तियां जीतने वाला गामा पहलवान
यूं तो 1947 में भारत का बंटवारा अपने आपमें दुखद था लेकिन उससे भी ज्यादा यह दुखद बंटवारा उन दो महान शख्सियतों के पाकिस्तान चले जाने के कारण और वहां उनकी गुमनामी व मुफ्लिसी में हुई मौत के कारण टीसता है। इन दो अज़ीम शख्सियतों में से एक थे अ़फसानानिगार सआदत हसन मंटो और दूसरे का नाम था रुस्तम-ए-हिंद पहलवान गामा। गामा अद्भुत शख्सियत थे। उनका वास्तविक नाम गुलाम मोहम्मद बख्श था हालांकि उन्हें कई अन्य नामों से भी जाना जाता था जैसे, ‘आधुनिक भीम’, ‘रुस्तम-ए-हिंद’ और ‘अखाड़े का कोहेनूर’। गामा का असली परिचय उनका विश्व विजेता पहलवान होना था। गामा ने अपनी जिंदगी में 5000 से ज्यादा कुश्तियां लड़ीं और बेहद आश्चर्यजनक किन्तु सत्य यह था कि उन्होंने पूरी जिंदगी में कोई एक भी कुश्ती नहीं हारी।
22 मई, 1878 को अमृतसर पंजाब के जब्बो गांव में (अब पाकिस्तान में) पैदा हुए, गामा 10 साल की उम्र से ही पहलवानी करने लग गये थे और इस आधुनिक भीम पर समूचा हिंदुस्तान अपनी जान लुटाता था। हिंदुस्तान के राजा-महाराजा ही नहीं, महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी तक उन्हें सिर-आंखों पर रखते थे, क्योंकि वह रुस्तम-ए-हिंद थे। आज़ादी की लड़ाई लड़ने वाले राजनेता उन्हें देश की संस्कृति और सभ्यता का सबसे बड़ा प्रतीक मानते थे। इसलिए समूचा भारत उन पर कुर्बान रहता था। एक बार जब गामा पहलवान लंदन में विश्व चैंपियन जिबेस्को को पटखनी देकर भारत आए तो भारत में जगह-जगह उनका अभिनंदन किया गया। काशी में मालवीय जी ने गामा को बुलाकर उनका सार्वजनिक अभिनंदन किया। इस मंच पर गामा ने बड़ी विनम्रता से मालवीय जी के पैर छूकर कहा, ‘मैंने तो एक फिरंगी पहलवान को ही पछाड़ा है, मगर आप तो पूरी गोरी सरकार को ही पटकनी दे रहे हैं। सम्मान मेरा नहीं, आपका होना चाहिए।’ गामा पहलवान के ये उद्गार सुनकर वहां मौजूद हज़ाराें लोगों की भीड़ भाव-विह्वल हो गई और उन्हें भारत की आन, बान और शान का चमकता सितारा कहा गया, लेकिन जब भारत में जगह-जगह गामा पहलवान का सार्वजनिक स्वागत अभिनंदन होने लगा तो पराजित विश्व चैंपियन पहलवान जिबेस्को को यह बहुत बुरा लगा और वह रोज़-रोज़ पराजय के इस दंश को झेलते रहने के कारण फिर से दिन रात गामा को कुश्ती के लिए ललकारने लगा।
कुछ दिनों तो यह सब अखबारों तक चलता रहा, लेकिन एक दिन पटियाला के महाराजा ने गामा और जिबेस्को को आमने-सामने खड़े होने का इंतजाम कर दिया। 28 फरवरी, 1928 को 40 हजार दर्शकों के सामने गामा पहलवान ने पटियाला के स्टेडियम में महज 42 सैकेंड में ही जिबेस्को को दूसरी बार चित्त कर दिया और फिर समूचा माहौल गामा पहलवान की गगनभेदी जय-जयकार से गूंज उठा। महाराजा पटियाला गामा की जीत से इतने खुश हुए कि अपने गले में पड़ी बेहद कीमती मोतियों की माला गामा को पहना दी और पूरे पटियाला में उनकी हाथी पर शाही सवारी निकाली गई। यही नहीं, गामा को पटियाला दरबार से 6000 रुपये सालाना की पेंशन बांध दी गई तथा एक बड़ा गांव भी दान में दे दिया गया। गामा पहलवान न सिर्फ हिंदुस्तान की आन, बान और शान थे बल्कि 55 सालों तक उन्होंने एक अजेय विजेता की तरह कुश्ती पर राज किया।
लेकिन हाय रे देश का दुर्भाग्य! 1947 में देश के बंटवारे के बाद गामा पहलवान ने पाकिस्तान में ही रहने का निर्णय कर लिया जिस कारण उनकी पेंशन और आय का ज़रिया उनका एक बड़ा गांव उनसे छिन गया। पाकिस्तान ने गामा पहलवान को कोई गांव, कोई पेंशन, कोई घर तो छोड़िये, उसके बच्चों को कोई सरकारी नौकरी तक नहीं दी। गामा को पाकिस्तान सरकार ने सिर्फ लाहौर शहर में रहने के लिए एक छोटा सा प्लाट दिया, जिस पर घर भी उन्हें अपने पैसों से बनाना पड़ा। जीवन के अंतिम पायदान पर अचानक आयी इस मुफलिसी और गुमनामी ने भारत की शान रहे गामा पहलवान को तोड़कर रख दिया, वह भारत नहीं आये; क्योंकि हालात ही कुछ ऐसे बन गये थे। इस कारण आर्थिक तंगी को झेलते हुए गामा पहलवान पाकिस्तान में महज 13 साल के अंदर न केवल मर गये बल्कि इन 13 सालों में भी उन्हें ज्यादातर समय भुखमरी, गुमनामी और गरीबी में बिताना पड़ा। पाकिस्तान सरकार ने उन्हें जेल में तो नहीं डाला, लेकिन कहीं वो भारत न चले जाएं, इसलिए एक तरह से जब तक वो जिये, ज्यादातर समय उन्हें नज़र-कैद करके रखा।
सवाल है, गामा पहलवान की इतनी बुरी दुर्गति क्यों हुई? दरअसल इसकी कई वजहें थीं। एक वजह तो यह थी कि गामा पहलवान का एक समय पर बहुत खर्च हो गया था। एक छोटी मोटी रियासत को चलाने के लिए जितने पैसों की दरकार होती है, गामा पहलवान का खर्च लगभग उतना था। गामा पहलवान की दिनचर्या सुबह तीन बजे शुरू होती थी। वह सुबह सबसे पहले एक हजार दण्ड और एक हजार बैठक लगाते थे। फिर पांच मील पैदल चलते थे। लौटकर एक घंटा तैरते थे। तैरने के बाद वह भारी-भारी पत्थर और रेत से भरी बोरियों को दो घंटे तक उठाते और फेंकते थे। गामा पहलवान ने कई मौकों पर एक हजार किलोग्राम से ज्यादा वजन उठाया था। वजन की उठाने वाला व्यायाम करने के बाद वह 8 बजे से अखाड़े में कुश्तियां लड़ते थे। फिर सुबह के दस बजे अपनी मालिश करवाते थे। इतनी कड़ी प्रैक्टिस करने वाले गामा की खुराक भी जबर्दस्त थी। वह हर दिन सुबह तीन गैलन दूध, पांच पौंड पिसे हुए बादाम, 14 पौंड मांस, सूप और हरी सब्जियां खाते थे। इसलिए उन्हें हर दिन अपने पर खर्च करने के लिए उस समय के हिसाब से सैकड़ों और आज के हिसाब से हजारों रुपये की ज़रूरत होती थी। जब वह भारत में थे तो एक दर्जन से ज्यादा राजघराने और रियासतें उन्हें भरपूर आर्थिक मदद करती थीं। यह मदद इतनी ज्यादा थी कि अपने तमाम शाहाना खर्च के बावजूद गामा पहलवान अपने परिवार, दोस्तों, रिश्तेदारों आदि पर भी दोनों हाथों से दौलत लुटाते थे।
लेकिन जब वह पाकिस्तान में ही रहने का निर्णय लेकर वहीं रह गये तो उन्हें बेहद मुफलिसी में जीवन गुजारना पड़ा। इस कारण उनकी ज़िंदगी स्याह अंधेरे में डूब गई। बुढ़ापे में भी अपनी अच्छी खासी खुराक के कारण गामा को पाकिस्तान में कई बार भूखे रहना पड़ता था जिस कारण कई बीमारियों ने उन्हें जकड़ लिया। इस स्थिति के चलते उन्हें हाई ब्लड प्रेशर, अस्थमा और हृदय रोग जैसी समस्याएं हो गईं। यहां तक कि उन्हें अपना घर चलाने के लिए मिले सैकड़ों पदकों को भी एक-एक करके बेचना पड़ा ताकि वह अपना आर्थिक गुजारा कर सकें। जिस गामा पहलवान का नाम आज हिंदुस्तान ही नहीं, पूरी दुनिया में बल और शोहरत के मुहावरे के रूप में इस्तेमाल होता है, उसी महान हिंदुस्तान के पहलवान को बिकने से बचे अपने एकमात्र ‘गोल्ड मेडल’ को सीने से लगाये हुए 21 मई, 1960 को 80 वर्ष की उम्र में, लाहौर की सरजमीं पर मौत को गले लगाना पड़ा। अगर गामा पाकिस्तान में न रह गये होते तो वह भारत के उतने ही बड़े आइकॉन होते, जैसे बाद में मिल्खा सिंह बने।
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