फड़नवीस के लिए आगे के रास्ते आसान नहीं 

मीडिया में कहा जा रहा है कि महाराष्ट्र में ‘देवा भाऊ’ वापस आ गया है। ‘देवा’ का मतलब हुआ देवेंद्र फड़नवीस और ‘भाऊ’ का मतलब हुआ बड़ा भाई। भाजपा ने चुनावी मुहिम के दौरान यही प्रचार किया था कि ‘देवा भाऊ’ को मुख्यमंत्री बनाना है। इस मौके पर फड़नवीस का वह फिकरा भी नमक-मिर्च लगा कर पेश किया जा रहा है जिसमें मुख्यमंत्री पद छिनने पर फड़नवीस ने कहा था कि ‘मेरा पानी उतरते देख कर किनारे घर मत बना लेना, मैं समंदर हूँ लौट के आऊंगा।’ बहरहाल, वे महाराष्ट्र की राजनीति के नये हीरो हैं। अमित शाह की लाख कोशिशों के बावजूद वे ही मुख्यमंत्री बने। शाह की लॉबी ने कई तरह के शकों को उनके रास्ते का रोड़ा बनाने की कोशिश की। पूछा गया कि क्या उनके मुख्यमंत्री बनने से मराठा तो नाराज़ नहीं हो जाएंगे? यह भी पूछा गया कि उनके शपथ लेने से ओबीसी को आपत्ति तो नहीं होगी। लेकिन संघ उन्हें बनाने पर अड़ा रहा। दरअसल, वे संघ की पहली पसंद थे, और चार जून को बहुमत खोने का असर ऐसा हुआ है कि मोदीजी संघ को नाराज़ नहीं करना चाहते। बहरहाल, प्रचार जो भी किया जा रहा हो— महाराष्ट्र की राजनीति के मौजूदा दौर की समझ रखने वालों का मानना है कि मुख्यमंत्री के तौर पर फड़नवीस की राह आसान नहीं होगी।
गठजोड़ राजनीति इस लिहाज़ से एक अजीब सी चीज़ है कि उसमें केवल बहुमत के संख्याबल पर ही सरकार स्थिर नहीं रहती। गठजोड़ पार्टनरों के आपसी समन्वय, उनके नेताओं की महत्वाकांक्षाओं और राजनीतिक फायदे-नुकसान से जुड़ी रणनीतियों के उतार-चढ़ाव से तय होता है कि सरकार ज्यादा दिन चलेगी या नहीं चलेगी। ऐसा कई बार हो चुका है कि कोई गठजोड़ चुनाव में शानदार जीत हासिल करता है, लेकिन उसकी सरकार पर लगातार अस्थिरता की तलवार लटकती दिखाई दी है। 2015 में बिहार में बनी महागठबंधन की सरकार इसका सबसे नज़दीक और प्रभावी उदाहरण है। लालू, नितीश, कांग्रेस और वामपंथियों के इस गठजोड़ ने अपने सामाजिक समर्थन के दम पर भारतीय जनता पार्टी को केवल 53 सीटों पर समेट दिया था। बाकी पूरी विधानसभा पर उनका ही कब्ज़ा था। लेकिन, सरकार बनते ही उसमें एक के बजाये सत्ता के दो केंद्र हो गये। तेजस्वी यादव उपमुख्यमंत्री के तौर पर अपने विधायकों की बैठक अलग से करने लगे। उनके और मुख्यमंत्री की तरफ से एक-दूसरे को काटने वाले आदेशों का सिलसिला शुरू हो गया। इसी हिसाब से अफसरशाही की निष्ठाएं भी भर गईं। देखते ही देखते नितीश कुमार की एनडीए में वापसी हो गई, और तगड़ा बहुमत होने के बावजूद महागठबंधन का प्रयोग बुरी तरह से फ्लॉप हो गया। नब्बे के दशक में उत्तर प्रदेश की राजनीति में भाजपा ने मायावती के साथ गठजोड़ सरकार बनाने के तीन प्रयोग किये, लेकिन हर बार उनकी उम्र बहुत कम निकली। ये सभी सरकारें विपक्ष की राजनीति के दबाव से नहीं गिरी थीं। उनके अपने अंतर्विरोधों ने उनकी घंटी बजायी थी। यहां प्रश्न यह है कि महाराष्ट्र में बनी महायुति की गठजोड़ सरकार पर भी बिहार और उ.प्र. के ये अंदेशे लागू होते हैं या नहीं? क्या चुनावों में शानदार जीत से मिला असाधारण बहुमत उसके पार्टनरों के खुले और छिपे इरादों के बावजूद उसे टिका पायेगा?
याद कीजिए, भाजपा विधायक दल का नेता चुने जाने के बाद देवेंद्र फड़नवीस ने क्या कहा था? उनके शब्द थे, ‘मुख्यमंत्री का पद तो एक तकनीकी व्यवस्था है। सरकार हम तीनों मिल कर चलाएंगे।’ सामान्य तौर पर सरकार कोई भी हो, मुख्यमंत्री अपने मंत्रियों से मिल कर ही सरकार चलाता है। लेकिन मंत्री न उसकी ‘अथॉरिटी’ में हिस्सा बंटाते हैं, और न ही उनकी और मुख्यमंत्री की ‘अथॉरिटी’ बराबर की होती है। क्या यहां फड़नवीस के कहने का मतलब यह नहीं निकलता कि मुख्यमंत्री और दोनों उपमुख्यमंत्रियों के पास समान अधिकार होंगे? अगर स्थिति यही है तो इस सरकार में भी सत्ता के तीन केंद्र होंगे। महाराष्ट्र की राजनीतिक परिस्थिति की विशिष्टता केवल यहीं खत्म नहीं होती। चूंकि शिवसेना के नेता एकनाथ शिंदे उपमुख्यमंत्री पद लेने के लिए तैयार नहीं थे, इसलिए फड़नवीस को उन्हें यह आश्वासन भी देना पड़ा कि सरकार में उनका दखल वैसा ही रहेगा जैसा मुख्यमंत्री के रूप में उनका था। अगर यह सही है तो इसका मतलब केवल एक ही हो सकता है। सत्ता के तीन केंद्रों में राष्ट्रवादी कांग्रेस के अजित पवार का केंद्र सबसे कमज़ोर होने के कारण फड़नवीस के केंद्र की मातहती में रहेगा। लेकिन, शिंदे का केंद्र उनके ढाई साल के मुख्यमंत्रित्व के कारण सत्ता के समांतर केंद्र की हैसियत ग्रहण कर लेगा। 
भाजपा चाहती तो केवल पवार की मदद से शिंदे के बिना भी बहुमत की सरकार बना सकती थी। वह सरकार ज्यादा मज़बूत हो सकती थी। उसमें फड़नवीस की ‘अथॉरिटी’ के लिए चुनौती न्यूनतम होती। लेकिन, भाजपा ने शिंदे को मुख्यमंत्री जैसा दखल रखने की गुंज़ाइश देने का जोखिम क्यों उठाया? इसका एक संभव कारण यह दिखता है कि चुनाव में अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने के बावजूद भाजपा महाराष्ट्र की राजनीति में अपना अकेला दबदबा बनाने से खुद को अभी एक कदम पीछे पाती है। शिवसेना को विभाजित करने से जुड़ा उसका मकसद अभी सौ प्रतिशत पूरा नहीं हुआ है। उद्धव ठाकरे का प्रदर्शन बहुत खराब रहा, लेकिन इसके बावजूद उन्होंने मुम्बई की 20 सीटों में से 10 जीत लीं। यानी, बृहनमुम्बई महानगर पालिका को भाजपा बिना शिंदे की मदद के उद्धव से छीनने के प्रति आश्वस्त नहीं है। दूसरे, 288 की विधानसभा में 124 मराठा विधायक चुन कर पहुंचे हैं। मराठा आरक्षण आंदोलन जिस समय अपने उठान पर था, वह भाजपा और फड़नवीस को अपना निशाना बनाता था। तत्कालीन मुख्यमंत्री शिंदे के प्रति उसका रुख नरम रहता था। चुनाव में शरद पवार के पराभव के बाद शिंदे महाराष्ट्र से सबसे बड़े और शक्तिशाली मराठा समुदाय के नये नेता समझे जा रहे हैं। समुदाय की निगाह में अजित पवार अपने चाचा द्वारा खाली की गई जगह भरने लायक नहीं हैं। यह एक बड़ा सामाजिक-राजनीतिक कारण है जिसकी वज़ह से शिंदे को बहुमत के लिए ज़रूरत न होते हुए भी सरकार में शामिल करना भाजपा के रणनीतिकारों के लिए ज़रूरी था। 
फड़नवीस 5 साल तक मुख्यमंत्री रह चुके हैं। उनका वह कार्यकाल बताता है कि वे मुख्यमंत्री के तौर पर अपनी ‘अथॉरिटी’ का सौ प्रतिशत उपभोग करना पसंद करते हैं। लेकिन, इस बार उन्हें काफी लचीलापन दिखाना होगा। कई बार शिंदे की ऐसी बातें भी माननी पड़ेंगी जो वे अन्यथा शायद मानने के लिए तैयार न होते। इसमें कोई शक नहीं है कि शिंदे की सत्ता का दबदबा अपने विधायकों की संख्या से बहुत ज्यादा होगा, और मुख्यमंत्री होने के बावजूद फड़नवीस की सत्ता उनके विधायकों की संख्या से खासी कम होगी। यह स्थिति बहुत देर तक कायम नहीं रह सकती। कहना न होगा कि मुम्बई और थाणे की महानगर पालिकाओं के साथ-साथ पूरे प्रदेश में स्थानीय निकायों के चुनावों के बाद महाराष्ट्र में सरकार की संरचना फिर से बदल सकती है। 

लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।

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