भारत की सड़कें, वाहन तथा दुर्घटनाएं
पाकिस्तान दौरे पर जाएं तो वहां की सड़कों के किनारे पेड़ तथा इन पर चलने वाले चार पहिया वाहनों की कमी खटकती है। सड़कें खाली-खाली हैं तथा कारें बहुत कम। इस तरफ के पंजाब का विकास भी याद आता है और खालिस्तानी मांग की चर्चा भी।
यह बात अलग है कि इस तरफ सड़क दुर्घटनाएं उपरोक्त गर्व की हवा निकाल देते हैं। उत्तर प्रदेश वाले विशेषकर। भारत की कुछ सड़कों में सिर्फ पांच प्रतिशत हाईवेज़ हैं, परन्तु इन पर होने वाली मौतों का प्रतिशत 60 फीसदी है।
सड़क का निर्माण करने वालों की लापरवाही तथा बेइमानी भी खटकती है और मुरम्मत करने वालों की लापरवाही भी। दुर्घटनाओं का शिकार होने वालों के लिए स्थापित किए गए ट्रामा सैंटर भी नाममात्र हैं। जो हैं, उनमें आवश्यक सुविधाएं नहीं। बुरी बात यह कि यहां के वाहन चालक ही नहीं सरकारें भी अपनी ज़िम्मेदारी नहीं निभातीं। चालक गलत साइड से मोड़ काट कर पैट्रोल बचाते हैं, रेहड़े वाले लाल बत्ती से वंचित वाहन सड़क के किनारे खड़े करके चले जाते हैं और पुलिस चालान काटने की बजाय पैसे लेकर भेज देती है। जितना बड़ा वाहन उतनी ही गलतियां। इसे मुहावरे ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ का वर्तमान विकल्प भी कह सकते हैं। साइकिल वाले इधर-उधर देखे बिना उंगली या हाथ का इशारा करके तुरंत मोड़ काट लेते हैं। सरकारें तथा उनके मंत्री यह सब कुछ जानते हैं, परन्तु इसके समाधान की ओर ध्यान नहीं देते।
वैसे तो पुल बनते नहीं, यदि बन रहे होते हैं तो खतरे से सावधान नहीं करते। परिणामस्वरूप बरेली से बदायूं के बीच एक पुल का निर्माण 2018 में शुरू हुआ था, परन्तु बीच में इसके निर्माण की ज़िम्मेदारी पी.डब्ल्यू.डी. ने ले ली। सावधानी का बोर्ड किसी ने भी नहीं लगाया था। नवम्बर माह में दुर्घटना घटित हो गई। ब्रेक लगाने से पहले ही कार गिर कर क्षतिग्रस्त हो गई और उसमें सवार लोग मारे गए। आरोपी बचाव का मार्ग जानते हैं। यहां भी ढूंड लेंगे।
प्रदूषित दिल्ली एवं उचित विधियां
मैं कल ही दिल्ली से लौटा हूं। अब दिल्ली वह नहीं रही, जिसमें मैंने 1953 से 1984 तक मौज की थी। इतनी कि चंडीगढ़ आकर पीछे छोड़ी दिल्ली की याद सता रही थी, परन्तु अब दिल्ली की ओर कदम बढ़ाते हुए डर लगता है, परन्तु जाए बिना भी नहीं रहा जाता। प्रदूषण के बारे में पढ़ते रहने का आदी हूं। स्वयं को दिल्ली से बाहर रह रहे उन पाठकों में गिनता हूं, जिन्हें प्रदूषण के बारे में पूरी जानकारी है।
हाल ही में विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा वायु गुणवत्ता संबंधी किए गए सर्वे की रिपोर्ट आई है। यह बताती है कि विश्व की कुल आबादी के 99 प्रतिशत लोग ऐसी हवा में सांस लेते हैं, जिसकी गुणवत्ता शुद्धता के मापदंडों पर पूरी नहीं उतरती। आम जन द्वारा सांस हेतु ली जाती हवा ऐसे कणों से भरपूर है, जो व्यक्ति के रक्त की कोशिकाओं में दाखिल होकर भयानक रोगों का कारण बनते हैं। देश की राजधानी दिल्ली तथा इसके पड़ोसी कस्बे एवं शहर गाज़ियाबाद, नोएडा तथा फरीदाबाद के आंकड़े अत्यंत दुखद हैं।
दिल्ली विश्व भर की राजधानियों से अधिक प्रदूषित घोषित की गई है। इसका मुख्य कारण औद्योगिक विकास के लिए आवश्यक ऊर्जा में हुई वृद्धि है। विशेषकर फरीदाबाद से गाज़ियाबाद तक शहरीकरण में हुई वृद्धि को भी शामिल कर लें तो भारत आज ऊर्जा की खपत करने वाला विश्व का तीसरा देश बन चुका है और यहां ऊर्जा की मांग भी प्रत्येक वर्ष तीन प्रतिशत बढ़ रही है।
विशेषज्ञों का कहना है कि सरकार, उद्योगपति तथा उच्चाधिकारी मिलजुल कर प्रयास करें तो इसका समाधान मिल सकता है। वे तो ऊर्जा, उद्योग तथा आवाजाही के स्रोतों में बदलाव सहित आम जन तथा सरकारों को सचेत करते हैं कि धुएं के माध्यम से बारीक कण एवं ज़हरीली गैस छोड़ने वाले ईंधन के स्थान पर ग्रीन एवं क्लीन ऊर्जा का उपयोग करें। पैट्रोल एवं डीज़ल से चलने वाले वाहनों की जगह बिजली से चलने वाले वाहनों का इस्तेमाल बढ़ाना पड़ेगा। सूर्य से प्राप्त होती ऊर्जा स्वच्छ, मुफ्त एवं भरपूर मात्रा में उपलब्ध होती है, जिसे हरित ऊर्जा के नाम से जाना जाता है।
सरकार द्वारा छतों पर सौर पैनल लगाने की बात कही जा रही है। ज़रूरत है कि यह सब कुछ सस्ता करके तथा इस पर सब्सिडी देकर आम लोगों की पहुंच में लाया जाए तथा बिजली से चलने वाले ई-वाहन भी सस्ते किए जाएं। पंद्रह वर्ष से अधिक पुराने हो चुके दो-पहिया एवं चार-पहिया वाहनों के मालिकों को वाहन बदलने के लिए सस्ती दरों पर कज़र् दिया जाए। मैं यह भी जानता हूं कि मेरे द्वारा लिखे लेख की ओर कोई ध्यान नहीं देगा। मैंने तो अपने मन की भड़ास निकाली है। जहां तक दिल्ली का संबंध है, न मैंने दिल्ली के मार्ग का त्याग करना है और न ही पढ़ने-सुनने वालों ने। फिर भी...।
अंतिका
(मिट्टी मलसियानी की खुशबो)
बंदे खाणीयां माड़ीयां सड़कां,
बई हाकमा जहाज़ लै लिया।
आओ रब्ब दे घरां दी राखी करीये,
ते रब्ब राखा दुनिया दा।