भाजपा के लिए सबसे नाज़ुक साल सिद्ध होगा 2025

दिल्ली की चुनावी राजनीति में इस समय जो हो रहा है, वह पिछले दो चुनावों में एक बार भी नहीं दिखाई पड़ था। इस बार पहली नज़र में ऐसा लग रहा है कि जैसे आम आदमी पार्टी को हराने के लिए कांग्रेस और भाजपा के बीच में एक अघोषित सा समझौता हो गया है। न केवल भाजपा उपराज्यपाल से ‘आप’ सरकार की शिकायतें कर रही है, बल्कि कांग्रेस ने भी यही रवैया अपना रखा है। दोनों एक ही भाषा बोलते हुए अपनी चुनावी मुहिम चला रहे हैं। कांग्रेस को इस बात की कोई परवाह नहीं है कि अभी छह महीने पहले ही वह केजरीवाल के साथ मिल कर लोकसभा का चुनाव लड़ रही थी। राजनीतिक समीक्षकों का विचार है कि संभवत: कांग्रेस के दिल्ली के नेताओं (अजय माकन) ने पंजाब के नेताओं (प्रताप सिंह बाजवा) के साथ मिल अपने आलाकमान को समझा लिया है कि दिल्ली में केजरीवाल का हारना ज़रूरी है, वरना पार्टी पंजाब को आम आदमी पार्टी से नहीं छीन पाएगी। ़खास बात यह है कि यह दलील कांग्रेस के आलाकमान ने पचा ली है। उसे भी लग रहा है कि अगर इस पार्टी के लांचिग पैड (दिल्ली) को नष्ट कर दिया जाए तो शायद पंजाब से उसकी पकड़ ढीली हो जाएगी। कांग्रेस को इस बात की भी परवाह नहीं है कि उस पर दिल्ली में भाजपा को जिताने में मदद करने का आरोप लग सकता है। सवाल यह है कि भाजपा क्या सोच रही है? 
भले ही अतीत वापिस न आता हो, लेकिन राजनीति में अतीत की मुश्किलें वर्तमान के लिए पेशबंदी का काम ज़रूर कर सकती हैं। नरेंद्र मोदी और उनके रणनीतिकारों के लिए 2025 की शुरुआत में दस साल पुराने अतीत, यानी 2015 के वर्ष का यही महत्व है। इस समय उनकी कोशिश यही है कि 2025 किसी भी तरह से 2015 न बनने पाए। उन्हें याद है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में शानदार जीत हासिल करने के साल भर से भी कम समय में उनके साथ क्या हुआ था? फरवरी, 2015 में तमाम कोशिशों के बावजूद एक नये दल आम आदमी पार्टी ने दिल्ली विधानसभा के चुनाव में भाजपा का बुरी तरह सूपड़ा साफ कर दिया था। और, उसके  कुछ महीने बाद नवम्बर-दिसम्बर में बिहार के चुनाव में एक बार फिर महागठबंधन के हाथों भाजपा को करारी हार नसीब हुई थी। इन पराजयों का एक परेशान करने वाला फलितार्थ यह हुआ कि रिटायर कर दिये गये नेताओं का सुस्त पड़ा मार्गदर्शक मंडल सक्रिय हो गया। उस मंडल से एक चिट्ठी निकली जिसने मोदी के तत्कालीन नेतृत्व की साख पर सवालिया निशान लगा दिया। 
इस राजनीतिक नुकसान की भरपायी के लिए अगले दो वर्षों में मोदी को तीन बड़ी सफलताएं हासिल करनी पड़ीं। 2016 में नोटबंदी करके अपने आलोचकों का ध्यान दूसरी तरफ ले जाना पड़ा। 2017 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में असाधारण जीत दर्ज करनी पड़ी। और, इसी वर्ष महागठबंधन भी टूटा। एक बार फिर नितीश भाजपा के साथ आए। 2020 में एक बार फिर 2015 के प्रकट होने का खतरा सामने आया। साल भर पहले लोकसभा में असाधारण जीत के बावजूद भाजपा एक बार फिर फरवरी में दिल्ली का चुनाव बुरी तरह हार गई। बिहार में भी सबकुछ अनिश्चित सा था। अपने पिता की अनुपस्थिति में तेजस्वी यादव ने एक ज़बरदस्त चुनाव लड़ा, और जीत से बाल बराबर दूर रह कर सबसे बड़े दल के रूप में उभरे। अब इसी तरह का आसन्न संकट भाजपा के सामने लगातार तीसरी बार है। न दिल्ली में जीत की गारंटी है, न बिहार में। इस बार तो पहले की तरह लोकसभा में उसके पास पूरा बहुमत भी नहीं है। इस बार अगर 2015 घटित हुआ तो मार्गदर्शक मंडल भले ही प्रभावी न रह गया हो, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा मोदी पर डाला जाने वाला भीतरी दबाव और बढ़ जाएगा। 
ज़ाहिर है कि इसी अंदेशे को ध्यान में रख कर भाजपा ने पहले से ज़बरदस्त पेशबंदी कर रखी है। आम आदमी पार्टी से छीनने के लिए इस बार राजधानी को पिछले दो साल से एक प्रयोगशाला बनाया दिया गया है। सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के फैसले ने जब लम्बी सुनवाई के बाद निर्वाचित सरकार के अधिकारों में कटौती करने की उपराज्यपाल की पहलकदमियों को निरस्त किया, तो केंद्र सरकार ने अध्यादेश और फिर विधि-निर्माण के ज़रिये सुनिश्चित किया कि अरविंद केजरीवाल की सरकार अपनी घोषित योजनाओं को ज़मीन पर लागू न कर पाए। नतीजा यह निकला कि निर्वाचित सरकार के पास एक चपरासी की नियुक्ति के अधिकार भी नहीं रह गए। 2022 में जब पंजाब का चुनाव जीतने के बाद आम आदमी पार्टी गुजरात में हस्तक्षेप करके अपनी राष्ट्रीय छवि बनाने की उड़ान भर रही थी, तभी प्रवर्तन निर्देशालय, पीएमएलए कानून और उसकी दफा 45 के कारण कथित शराब घोटाले के तहत इस पार्टी के पूरे नेतृत्व को एक-एक करके जेल जाना पड़ा, और वह ज़मानत पाने के अधिकार से भी वंचित हो गया। 
दिल्ली में भाजपा ने पिछले छह चुनावों से सरकार नहीं बना पायी है। लेकिन मानना पड़ेगा कि उसके पास कम से कम 30-32 प्रतिशत वोट हमेशा रहते हैं। लेकिन, वह इन वोटों को उतना नहीं बढ़ा पाती कि पहले कांग्रेस और फिर आम आदमी पार्टी से आगे बढ़ जाए। इस बार उसे खास तरह की उम्मीद है। हालांकि आम आदमी पार्टी बड़े व्यवस्थित तरीके से चुनाव लड़ने में माहिर है, पर उसे जिस प्रमुख समस्या का सामना करना पड़ रहा है, वह भाजपा के इसी प्रयोग के कारण है। दिल्ली का मध्यवर्ग अपने आप से यह पूछ रहा है कि अगर उसने इस पार्टी को तीसरी बार बहुमत दे दिया और उपराज्यपाल के अनापशनाप अधिकारों ने उसे फिर से काम नहीं करने दिया तो क्या होगा? भाजपा चाहती है कि इसी ख्याल के तहत यह मध्यवर्ग उसे पहले से ज्यादा यानी 40 प्रतिशत से ज्यादा वोट हासिल करे। भाजपा को यह भी उम्मीद है कि इस बार कांग्रेस भी अपने उन वोटों में से कुछ न कुछ वापिस छीन लेगी जो कभी उसके पास थे। बहरहाल, ये सब उम्मीदें ही हैं। 
बिहार में भाजपा की पुरानी महत्वाकांक्षा अकेले दम पर अपनी सरकार बनाने की है। लेकिन, नितीश कुमार के करीब 16 प्रतिशत वोट उसकी इस योजना के गले में अटके हुए हैं। तरह-तरह की बातें हो रही हैं, लेकिन जब तक नरेंद्र मोदी को य़कीन नहीं होगा कि नितीश के वोटों का विकल्प उनके पास विधानसभा चुनाव में ही नहीं बल्कि लोकसभा चुनाव में भी होगा, तब तक भाजपा जनता दल-यूनाइटेड के सहारे ही रहने वाली है। भाजपा के रणनीतिकारों के यह भी पता है कि पिछले चुनाव में नितीश के ही नहीं भाजपा के वोट भी गिरे थे। वोट केवल बढ़े थे तो सिर्फतेजस्वी के। यह स्थिति बिहार में जीत की किसी भी गारंटी को निरस्त कर देती है। मोदी के लिए 2025 ठीक वैसी ही बाधा है जैसी 2015 में आयी थी। 2020 में उसे केवल 50 प्रतिशत नंबर ही मिले थे। इस बार भी यह साल अगले साढ़े चार साल का सबसे नाज़ुक वर्ष होने वाला है। 

लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।

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