हमारे लिए अच्छी है जस्टिन ट्रूडो की विदाई!

पिछले कई महीनों से अपनी पार्टी के भीतर ही अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे कनाडा के प्रधानमंत्री और सत्ताधारी लिबरल पार्टी के मुखिया जस्टिन ट्रूडो ने अपनी पार्टी के नेता पद से और प्रधानमंत्री के पद से भी इस्तीफा दे दिया। हालांकि लिबरल पार्टी के नये नेता चुने जाने तक वह कनाडा के प्रधानमंत्री बने रहेंगे। यह घटनाक्रम गुजरे 6 जनवरी, 2025 को कनाडा के स्थानीय समय के मुताबिक सुबह तब नाटकीय घटनाक्रम के रूप में सामने आया, जब आनन फानन में बुलायी गई प्रैस कांफ्रैंस में ट्रूडो ने अपने पदों से इस्तीफा देने की घोषणा की, लेकिन जो लोग कनाडा के राजनीतिक घटनाक्रम पर नज़र रख रहे थे, उन्हें कई महीनों से पता था कि ट्रूडो का जाना तय है। साल 2015 से कनाडा के प्रधानमंत्री का पद संभाल रहे ट्रूडो सिर्फ भारत से ही नहीं कई दूसरे देशों से भी बेमतलब पंगा लेने के आदी थे या उनकी कार्यशैली ही ऐसी थी कि अमरीका जैसा पड़ोसी भी ट्रूडो से खुश नहीं था। भारत के साथ तो ट्रूडो कुछ इस तरह से व्यवहार कर रहे थे कि जैसे वो जानबूझकर हमारे साथ संबंध बिगाड़ने पर आमादा थे। हालांकि इसकी वजह से वैश्विक परिदृश्य में तो उन्हें हल्के में लिया ही जाने लगा था, खुद अपने देश में भी उनकी हालत काफी खराब हो गई थी। हद तो यह है कि ट्रंप जो हमेशा से ट्रूडो को पसंद नहीं करते रहे, वह राष्ट्रपति पद का चुनाव जीतने के बाद साफ कह दिया कि अगर कनाडा, अमरीका में घुस रहे प्रवासियों को नियंत्रित नहीं करता तो 20 जनवरी 2025 से कनाडा 25 प्रतिशत टैरिफ भुगतने के लिए तैयार रहे।
गौरतलब है कि कनाडा के कुल निर्यात का 75 प्रतिशत अकेले अमरीका को ही होता है, ऐसे में 25 प्रतिशत टैरिफ लगाये जाने का मतलब है कनाडा की अर्थव्यवस्था का तहस-नहस हो जाना। ट्रूडो, ट्रंप की इस धमकी के बाद भागे भागे उनसे मिलने पहुंचे, लेकिन ट्रंप ने फिर भी भाव नहीं दिया, उल्टे एक नहीं दो नहीं बल्कि तीन बार ऐसा क्रूर और कड़वा मजाक किया, जिससे कोई और देश तथा कोई और नेता होता तो शायद तिलमिला जाता। लेकिन ट्रूडो ने इस अपमान को अनसुना कर दिया। दरअसल ट्रंप ने चुनाव जीतने के बाद से कनाडा को अमरीका का 51वां राज्य ही बताना शुरु कर दिया है। पहली बार लगा कि यह मजाक में कहा होगा, लेकिन दूसरी बार और फिर तीसरी बार भी यह कहना कि कनाडा फायदे में रहेगा, अगर वह अमरीका का 51वां राज्य हो जाए, कनाडा की संप्रभुता का खुलेआम मजाक नहीं तो और क्या है? लेकिन हैरानी की बात है कि तीन-तीन बार इस तरह का मजाक बनाने के बाद भी जस्टिन ट्रूडो के मुंह से ट्रंप या अमरीका के विरूद्ध एक शब्द भी नहीं निकला। जबकि भारत को लेकर ट्रूडो पिछले दो साल से बेवजह ही लंबी चौड़ी उछलकूद कर रहे थे कि भारत ने कनाडा की संप्रभुता पर हमला कर रहा है।
दरअसल जस्टिन ट्रूडो अपने थोड़े से फायदे के लिए एक ब्लंडर कर बैठे थे और फिर उस ब्लंडर से किसी तरह निकलने की बजाय उसे सही साबित करने की कोशिश में लग गये। कनाडा में 2.1 प्रतिशत सिक्खों की आबादी है और इस समय भारतीय मूल के सिख जगमीत सिंह की न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी (एनडीपी) किंग मेकर की भूमिका में है, जिसने पिछले आम चुनाव में 24 सीटें जीती थीं। हालांकि इन पंक्तियों के लिखे जाने के समय जगमीत सिंह की एनडीपी ने जस्टिन ट्रूडो की लिबरल पार्टी से समर्थन वापिस खींच लिया था, इसलिए भी अब उनका सत्ता में बने रहना असंभव था। लेकिन पिछले ढाई सालों से अपनी सत्ता बनाये रखने के लिए और इसके पहले सिखों के वोट बैंक पर अप्रत्यक्ष रूप से अपनी पकड़ बनाये रखने के लिए जस्टिन ट्रूडो भारत से बिना मतलब का पंगा ले रहे थे। बिना किसी ठोस सबूत और अपनी पुलिस द्वारा की जा रही जांच के पूरा होने के पहले ही जस्टिन ट्रूडो कनाडा में खालिस्तान समर्थक हरदीप सिंह निज्जर की हत्या का आरोप भारत पर मढ़ दिया। वह भी उन्होंने राजनायिक चौनल के बजाय आम जनसभाओं और फिर विश्व मंचों में यह कहना शुरु कर दिया कि कनाडाई नागरिक हरदीप सिंह निज्जर की हत्या में भारतीय एजेंटों की भूमिका के उनके पास ठोस सबूत है लेकिन भारत द्वारा बार-बार मांगे जाने के बावजूद कनाडा ने कभी भी ये ठोस सबूत नहीं दिये, उल्टे इसके लिए अमरीका, इंग्लैंड और फ्रांस के साथ मिलकर गिरोहबंदी करने पर उतर आये। अमरीका ने तो कई बार उनके कहने पर इस मुद्दे को उठाया भी, लेकिन अमरीका ने एक व्यवस्थित प्रोटोकॉल के अनुशासन को नहीं तोड़ा। अमरीका ने एक बार भी इस मुद्दे को राजनयिक स्तर से निकालकर राजनेताओं के स्तर तक नहीं ले गया। डिप्लोमेटिक चैनल से ही इस पर बातें करता रहा।
कनाडा लगातार भारतीय छात्रों को, जो कि बड़े पैमाने पर कनाडा में पढ़ने जाते हैं, ब्लैकमेल करने की कोशिश की। जबकि कनाडा को पता है कि उसके यहां आने वाले कुल विदेशी छात्रों में से 40 प्रतिशत अकेले हिंदुस्तान के छात्र हैं, जोकि उसकी अर्थव्यवस्था खासकर शिक्षा व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाये रखने के लिए अच्छी खासी मात्रा में धन पैदा करती है। यही नहीं भारत, कनाडा के 10 शीर्ष कारोबारियों सहयोगियों में से है। कनाडा से भारत बड़ी मात्रा में दालें मंगवाता है, जिसे वह उससे भी सस्ती दरों में ऑस्ट्रेलिया से और अपने पड़ोस के बर्मा या ब्राजील और मैक्सिको से भी आयात कर सकता है। भारत-कनाडा के कारोबार में, भारत की ऐसी कोई निर्भरता नहीं है कि उसके बिना मुश्किल हो जायेगी। जबकि कनाडा भारत से बड़े पैमाने पर दवाएं मांगता है, अगर भारत की बजाय वह चीन से ये दवाएं खरीदता है, तो उनकी विश्वसनीयता संदिग्ध रहेगी और अगर वह इन दवाओं को अमरीका या यूरोप से आयात करता है, तो 4 गुना ज्यादा पैसे खर्च करने पड़ेंगे। ऐसा नहीं है कि कनाडा भारत के महत्व को नहीं जानता। कनाडा की विभिन्न पार्टियों और उनके प्रमुख इसीलिए लगातार भारत के साथ संबंधों को लेकर ट्रूडो की आलोचना करते रहे। यहां तक कि खुद उनकी पार्टी यानी लिबरल पार्टी के अधिकतर नेता भी इस पक्ष में नहीं थे कि ट्रूडो भारत के साथ इस तरह की बिगाड़ करे।
भारत और कनाडा के बीच 2023-24 में 8.4 अरब डॉलर का कारोबार हुआ। अगर सामान्य स्थितियां होती तो यह बढ़कर 20 अरब डॉलर तक पहुंच सकता था, क्योंकि भारत ने 2023-24 में अपने आयात और निर्यात दोनों में ही काफी बढ़ोत्तरी की है। लेकिन लगातार रिश्ते इस कदर आशंकाओं से घिरे रहे कि बढ़कर कारोबारी पहल के लिए दोनों देशों की सरकारों की हिम्मत ही नहीं बन सकी। कुल मिलाकर जिस तरह से जस्टिन ट्रूडो भारत के साथ खिसियाने अंदाज में डील कर रहे थे, वह कतई दोनों देशों के पक्ष में नहीं था और अब जबकि वह चले गये हैं, तो भी हालांकि रातोंरात दोनों देशों के रिश्ते एकदम से गुडी-गुडी नहीं हो जाएंगे। लेकिन इससे और ज्यादा नहीं बिगड़ेंगे और अगर इस साल अक्तूबर में होने वाले चुनाव में कंजर्वेटिव पार्टी जीतकर आती है, जिसके चांस काफी ज्यादा हैं तो स्थितियां सचमुच बेहतर होंगी। तब दोनों देशों के रिश्ते फिर से गर्मजोशी भरे वातावरण में आगे बढ़ सकते हैं। इसलिए जस्टिन ट्रूडो की यह चुनी गई विदाई कम से कम भारत के तो पक्ष में ही है और ईमानदारी से कहा जाए तो खुद कनाडा के पक्ष में भी है बल्कि भारत से भी कहीं ज्यादा है।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर 

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