नये युग के नये संकल्प
हमने छक्कन से पूछा ‘भई नया साल शुरू हो गया है। कुछ दिन पहले इसका शोरोगुल भरा एक रात्रि उत्सव भी मनाया गया था, जिसमें क्लब घरों से निकल कर बड़ी गाड़ियों वाले इन सड़कों पर आधी रात को निकले थे। फुटपाथ पर उमड़ पड़े दो-चार लोगों को तो कुचल कर भी निकल गये थे।’ दूसरी सुबह पता चला कि यह एक संकल्प दिवस भी था। उनकी कुछ खबर हमें मिली है। पहला यह कि इस दुनिया को उन्हीं दो हिस्सों में बंटा रहने देंगे। पहला चन्द करोड़पतियों का हिस्सा जो हर आफत मुसीबत का सामना करने के बल पर एक छलांग लगा कर खरबपति हो जाता है, और दूसरा एक बड़ी दुनिया अपनी किस्मत का रोना रोते हुए वंचितों प्रवंचितों की दुनिया, जो अपने हिस्से की तरक्की करके ़गरीब से फटीचर होती जा रही है और इस अभागी ज़िन्दगी का मुखड़ा बदलने के लिए मेहनत नहीं बल्कि खैरात के वायदों से आस लगाती है, और इसी आस में बकाया जीवन गुज़ार देती है। वही बाबा आदम के ज़माने का सूत्र वाक्य दुहराते हुए, कि ‘अपना देश अमीर होता जा रहा है, जहां बसने वाले ़गरीबों की संख्या भी तेज़ी से बढ़ रही है’। ‘बाकी जो बचा वह महंगाई मार गई’ का पुराना गीत भी अब सुर से गाना सीख गई है।
हमने पूछा, लेकिन जिस आज़ादी का अमृत महोत्सव पिछले दिनों यहां मनाया गया था, उसकी शुरुआत में तो एक वायदा किया गया था, कि देश में अमीर और गरीब का भेद खत्म कर दिया जाएगा, और एक समतावादी समाज की स्थापना की जाएगी। हां ऐसे भाषण इस उगते बरस की नई सुबह में हुए थे। हम भाषण जीवी और सपनाधारी लोग हैं, बार-बार इन भाषणों को सुन कर ताली बजाते हैं। सपना देख गद्गद उठते हैं, और अजब धीरज के साथ जो घट रहा है उसे अपने कर्मों का फल मान कर बकाया जीवन गुज़ाराने पर आमादा हो जाते हैं। धीरज इतना अधिक है कि कई बार यह शांति बहुत डरावनी लगती है, मुर्दा घर जैसी शांति का एहसास देने लगती है। तब कुछ नौजवान उर्फ असमय बूढ़े लोग उठते हैं, और दिन-दहाड़े सड़क चलती बूढ़ी औरतों के कानों की बालियां और राह चलते लोगों के हाथों के मोबाइल छीन कर भाग जाते हैं। तब खड़े तालाब में पत्थर गिरने जैसी हलचल होती है। मीडिया में छपती खबरें सनसनीखेज़ होने लगती हैं, तो चौकसी करने वाले विज्ञप्ति जारी करते हैं, कि ‘हमारे छापों में इतने मोबाइल पकड़े गये। छीनने वाले चन्द लौंडे-लपाड़े गिरफ्तार हुए।’ फिर हस्बेमामूल माहौल उसी लय पर लौट आता है। मोबाइल छीनने वाले मोबाइल छीनते रहते हैं, कानों की बालियां नुचती रहती हैं। इसका समाधान बताने वाले लोग कहते हैं, ‘नये संकल्प करने का युग है। तुम भी पहला संकल्प कर लो, कि रात-बिरात अकेले नहीं निकलोगे। हाथों में बेपरवाही के साथ महंगे फोन नहीं पकड़ोगे, और कानों की सोने की बालियां खरीद कर उसे जारी किये जा रहे नये सोना बांडों में लगा दोगे।’ इसके दो लाभ होंगे। एक तो यह कि देश में नज़र आने वाला स्वर्ण भंडार बढ़ेगा। हमारे राष्ट्र के नव-निर्माण के नाम पर विदेशी निवेशकों के काम आयेगा, और इधर अपने देश के कानून की अवस्था भी अपने आप सुधर जाएगी।
प्रशासन की खाकी वर्दी को भी काम नहीं करना पड़ेगा। वह आराम से यातायात नियंत्रण की जगह सड़क कानून तोड़ने वालों के चालान काटती जाएगी, और यूं शहरों को स्मार्ट बनाने में अपना योगदान दे सकेगी। देख लो यूं तुम्हारे एक संकल्प ने देश की इस गम्भीर समस्या को हल कर दिया। लेकिन हमारे पास महंगे मोबाइल या पहनने को सोने की बालियां कहां हैं? असल समस्या तो रोज़ी-रोटी की है। नौकरी दिलाने वाली बन्द खिड़कियों को खोलने की है?
छक्कन ने समझाया, ‘अरे जो खिड़कियां बन्द हैं, उन्हें खोलने की हुज्जत क्यों करते हो।’ तुम्हारे लिए नयी खिड़कियां खुल तो गई हैं, अनुकम्पा उदारता की खिड़कियां। देखो ज़िन्दा रहने के लिए तुम्हें अनाज कितना सस्ता मिल जाता है। यहां शासन के कर्णधारों ने फिर संकल्प ले लिया है। देश चाहे कितनी बड़ी आर्थिक शक्ति बन जाये, सस्ते अनाज की यह उदारता बन्द नहीं होगी। देश की आबादी बढ़ गई है। पहले अस्सी करोड़ में ऐसा अनाज बंटता था, अब ऐसा कल्याण पाने वालों की यह संख्या बढ़ा देंगे। आखिर दया धर्म का मूल है। हम अपने धार्मिक होने की पहचान को भी तो नहीं खो सकते?
‘ऐसे उदार धार्मिक माहौल में हमारा क्या संकल्प होना चाहिए, छक्कन गुरु?’ हमने पूछा।
—अहोभाव। बस जो मिल रहा है, उसके प्रति अहोभाव। इसीलिए तो दुनिया के नये सर्वेक्षण इस देश के लोगों को सन्तुष्ट और इस सन्तोष से खुश बता रहे हैं। बस संकल्प कर लो, ‘हम जहां हैं वहीं रहेंगे, और दिखाये जाने वाले सपनों को देख-देख परम हर्षित होते रहेंगे।’
हम एक नये संकल्प कर लेने की सम्भावना पा कर प्रसन्न हुए। आखिर संकल्प करना ऊंचे प्रासादों में रहने वालों का ही काम क्यों हो? हम भी तो संकल्प कर सकते हैं।
‘लेकिन क्या हमें सदा यूं ही रहना होगा? अधूरे सपनों का ओढ़ना बिछौना बना कर?’ हमने पूछने का साहस कर ही लिया।
—नहीं-नहीं रास्ता है। इस अन्धकूप से बाहर आने का रास्ता भी है। जानते हो समृद्ध और वंचित होने की ऊंचाई और खाई के बीच भी एक रास्ता है, सेतु बन जाने का। इस सेतु को सांस्कृतिक नाम भी दे दिया गया है। बिचोलिया संस्कृति या सम्पर्क संस्कृति। इसका प्रशिक्षण चाटुकारिता की राह से होता है, जिसे आम भाषा में चम्मच मार्ग भी कहते हैं। इसके द्वारा असम्भव को सम्भव बनाओ। लोगों के छोटे-छोटे कामों को उनके लिये पहाड़ जैसा कठिन बना कर अपनी दलाल व्यवस्था से चुटकियों से करवा देने का धन्धा सीख लो, बन्धु। बस तेरी कोठरी में भी दाने आने लगेंगे। तूने सुना तो है जिसके ‘घर दाने उसके कमले भी सियाने।’
हमें लगा अवश्य ही ये दाने वे नहीं जो अनुकम्पा की दुकानों से लेकर राजनीतिक दलों के चुनाव एजेंटों में बंटते हैं। ये वे दाने हैं जिन्हें आजकल नये लोगों ने एक नयी संस्कृति की खोज करने के बाद अपने-वारे न्यारे कर लिये हैं। हम भी इस संस्कृति को अपना कर नव-संस्कृतिवादी हो जाएंगे, हमने संकल्प लिया, और सफल हो जाने का सपना देखने लगे।