इज़रायल-हमास युद्ध विराम का ईमानदारी से पालन होना चाहिए
यह शांतिपूर्ण विश्व संरचना के लिये सुखद ही है कि करीब डेढ़ वर्ष से जारी इज़रायल-हमास संघर्ष खत्म करने के लिये युद्ध विराम पर सहमति बन गई है, लेकिन ऐसे युद्धों ने ऐसे अनेक ज्वलंत प्रश्न खड़े किये हैं कि जब युद्ध की अन्तिम निष्पत्ति टेबल पर बैठ कर समझौता करना ही है तो यह युद्ध के प्रारंभ में ही क्यों नहीं हो जाता? युद्ध भीषणतम तबाही, असंख्य लोगों की जनहानि एवं सर्वनाश का कारण बनता है तो ऐसी तबाही होने ही क्यों दी जाये? इज़रायल और हमास ने बुधवार को युद्ध विराम समझौते के पहले मसौदे पर सहमति जताई, जो संघर्ष को समाप्त करने की दिशा में अब तक का सबसे बड़ा एवं अहम कदम है। अब यह ज़रूरी है कि युद्ध विराम का ईमानदारी से पालन हो। अन्य बातों के अलावा, 60 दिवसीय युद्ध विराम प्रक्रिया में दोनों पक्षों के बंधकों को रिहा करना, सहायता बढ़ाना, नष्ट हो चुके फिलिस्तीन का पुनर्निर्माण करना और हमलों को रोकना शामिल होगा। डेढ़ साल से अधिक समय के युद्ध के बाद, युद्ध विराम फिलिस्तीन के लोगों तथा हमास द्वारा बंधक बनाए गए लोगों के लिए बहुत बड़ी राहत है। इसी तरह रूस एवं यूक्रेन के बीच लम्बे समय से चल रहा युद्ध भी समाप्त हो, यह शांतिपूर्ण उन्नत विश्व संरचना के लिये नितांत अपेक्षित है, क्योंकि ऐसे युद्धों से युद्धरत देश ही नहीं, समूची दुनिया प्रभावित होती है। इस तरह युद्धरत बने रहना खुद में एक असाधारण और अति-संवेदनशील मामला है, जो समूची दुनिया को विनाश एवं विध्वंस की ओर धकेलने देता है। ऐसे युद्धों में वैसे तो जीत किसी की भी नहीं होती, फिर भी इन युद्धों का होना विजेता एवं विजित दोनों ही राष्ट्रों को सदियों तक पीछे धकेल देता, इससे भौतिक हानि के अतिरिक्त मानवता के अपाहिज और विकलांग होने के साथ बड़ी जनहानि का भी बड़ा कारण बनता है।
इज़रायल-हमास में पिछले डेढ़ साल से चल रहे युद्ध के विराम को एक अहम कामयाबी माना जा रहा है। भले ही इस समझौते के लिये अमरीका में सत्ता परिवर्तन के बीच संघर्ष समाप्ति का श्रेय लेने की होड़ हो, लेकिन गाज़ा के लोग जिस मानवीय त्रासदी से जूझ रहे थे, उन्हें ज़रूर इससे बड़ी राहत मिलेगी। संयुक्त रार्ष्ट के तमाम प्रयासों व मध्यपूर्व के इस्लामिक देशों एवं भारत की बार-बार की गई पहल के बावजूद अब तक शांति वार्ता सिरे न चढ़ सकी थी, जिसकी कीमत करीब पचास हज़ार लोगों ने अपनी जान देकर चुकायी। इस युद्ध से गाज़ा के विभिन्न क्षेत्रों में जो तबाही हुई है, उससे उबरने में दशकों लग सकते हैं। नि:संदेह, इज़रायल व हमास के बीच युद्ध विराम पर सहमति होना महत्वपूर्ण है, लेकिन जब तक समझौता यथार्थ में लागू होता न नज़र आए, तब कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी। संघर्ष में वास्तव में हमास के कितने लड़ाके मारे गए यह कहना कठिन है, लेकिन बड़ी संख्या में बच्चों-महिलाओं ने युद्ध में जान गंवाई। एक अनुमान के अनुसार गाज़ा संघर्ष में उपजी मानवीय त्रासदी में करीब बीस लाख लोग विस्थापित हुए हैं। इज़रायली हमलों में अस्पताल-स्कूल भी निशाना बने, जिन्हें शरणार्थियों की सुरक्षित पनाहगाह माना जाता है। इज़रायल पर अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में युद्ध अपराध तक के आरोप लगाए गए। बहरहाल, जब लंबे समय के बाद शांति की स्थितियां बन रही हैं तो विश्व समुदाय, शक्तिशाली राष्ट्रों व संयुक्त राष्ट्र का दायित्व बनता है कि समझौते की शर्तों को साफ नीयत एवं नीति से क्रियान्वित किया जाये ताकि मध्यपूर्व में स्थायी शांति एवं अमन-शांति की राह मज़बूत हो सके। इस संघर्ष की शुरुआत भले हमास ने की हो, लेकिन इसकी सबसे बड़ी कीमत उन लोगों ने चुकाई, जो इसके लिये ज़िम्मेदार नहीं थे।
युद्ध के आघात से तात्पर्य युद्ध के दौरान होने वाली दर्दनाक घटनाओं के परिणामस्वरूप व्यक्तियों द्वारा अनुभव किए जाने वाले मनोवैज्ञानिक संकट और शारीरिक-भावनात्मक पीड़ा से है, जैसे कि हिंसा का शिकार होना, दूसरों को नुकसान पहुंचाना, या संघर्ष के कारण प्रियजनों को खोना। युद्ध सामाजिक विश्वास को तोड़ता है, सामाजिक सामंजस्य को कम करता है और सामाजिक एवं राष्ट्रीय पूंजी को नुकसान पहुंचाता है। सशस्त्र संघर्ष के बाद, समाज उप-समूहों में गहराई से विभाजित हो जाता है जो युद्ध विराम के समझौते के बावजूद बाद के दौर में एक-दूसरे से डरते हैं और नफरत करते हैं और लड़ाई जारी रखने के लिए तैयार रहते हैं। युद्ध से पीड़ित लोगों में अक्सर दूसरे पक्ष के साथ मेल-मिलाप करने और शांतिपूर्ण समाधान खोजने की इच्छा कम हो जाती है। कमज़ोर नागरिक समाज और कम सरकारी क्षमताएं लोगों को बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने में असमर्थ बना सकती हैं और राज्य के बिगाड़ने वालों या राजनीतिक विरोधियों द्वारा आसानी से हेरफेर किया जा सकता है। यह स्थिति अक्सर हिंसा के निरन्तर चक्रों के लिए मंच तैयार करती है।
हालांकि, अक्तूबर, 2023 में हमास के हमले से आहत इज़रायल कई मोर्चों पर लगातार युद्ध से थक चुका है, लेकिन अभी भी अरब जगत उसकी विश्वसनीयता पर सवाल उठा रहा है। ऐसी आशंका इसीलिए भी है कि कई बार बातचीत अंतिम दौर पर पहुंचते-पहुंचते पटरी से उतरती गई है। बात और घात लगातार चलते रहे हैं। अब भविष्य में देखना होगा कि दोनों पक्ष समझौते के अमल के प्रति कितनी ईमानदारी से प्रतिबद्ध नज़र आते हैं।
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