केवल भरोसा दिलाने से नहीं उठेगा अर्थ-व्यवस्था का ग्ऱाफ

स्विट्ज़रलैंड के बैंक यूबीएस ने कहा है कि भारत में इंफ्रास्ट्रक्चर यानी बुनियादी सुविधाओं का ढांचा बुरी हालत में है और कभी भी वह ध्वस्त हो सकता है। उधर विश्व बैंक ने कहा है कि भारत अगले दो साल में दुनिया की सबसे ज्यादा तेज़ी से विकसित होने वाली अर्थव्यवस्था बन सकता है। क्या इन दोनों बातों में प्रकट विरोधाभास नहीं है? अगर बुनियाद ढांचा दरक रहा है तो भारत कैसे विकसित हो सकता है? शायद यूबीएस को भारत की सड़कों पर होने वाली दुर्घटनाओं (जिनकी संख्या दुनिया में सबसे ज्यादा है) और ट्रेनों की लगातार होने वाली दुर्घटनाओं दिखाई पड़ रही हैं। शायद यूबीएस को यह भी दिखाई पड़ रहा है कि बिजली बनाने के मामले में भारत गतिरोध में फंस गया है। सौर और पवन बिजली के क्षेत्र में हम अभी तक ठीक से पैर नहीं जमा पाए हैं, और ताप व पन बिजली बनाने की सुविधाएं आवश्यकतानुसार पर्याप्त नहीं हैं। चूंकि हमारा विकास का मॉडल कॉरपोरेट-केंद्रित है, इसलिए हमें ढेर सारी बिजली चाहिए। चिकनी, चौड़ी और गांव-गांव तक पहुंचने वाली सड़कें चाहिए। अगर ऐसा नहीं होगा तो कॉरपोरेट ताकतें राष्ट्रीय बाज़ार को हस्तगत कैसे करेंगी? अगर हमारा विकास का मॉडल विकेंद्रीकृत होता तो हम स्थानीय स्तर के उत्पादन और वितरण पर टिके रह सकते थे। लेकिन, असंगठित क्षेत्र की दुर्गति बताती है कि वह मॉडल हमारे नीतिनिर्माताओं को पसंद नहीं है। 
प्रत्येक सरकार भरोसा दिलाने में माहिर होती है। अर्थव्यवस्था में जैसे ही गिरावट के आंकड़े सामने आते हैं, वह फौरन कहती है कि अगले कुछ दिनों में होने वाली वृद्धि इस कमी की भरपायी कर देगी। नवम्बर में खत्म हुई तिमाही के आंकड़े चिंता पैदा करने वाले हैं क्योंकि एक साल पहले इसी तिमाही में वृद्धि दर 8 प्रतिशत निकली थी, लेकिन इस बार घट कर 5.4 प्रतिशत दिखाई दे रही है। यह आंकड़ा कोविड के बाद सबसे कम है। लेकिन, हमारी सरकार य़कीन दिला रही है कि अगली दो तिमाहियों में वृद्धि दर बढ़ जाएगी। कैसे? बताया गया है कि खेती के क्षेत्र में अर्थव्यवस्था अच्छा कर रही है जिससे ग्रामीण मांग बढ़ जाएगी, उपभोग बढ़ेगा और वृद्धि दर में इजाफा हो जाएगा। सरकार की बातों पर भरोसा करना बुरी बात नहीं है। लेकिन, मान लेने से पहले कुछ यह जांच-पड़ताल कर लेनी चाहिए कि यह 5.4 प्रतिशत की वृद्धि दर हमसे क्या कहती है। 
अर्थव्यवस्था को क्रमश: खेती, उद्योग और सेवा क्षेत्र के तीन सैक्टरों में बांट कर समझा जाता है। पहला सवाल तो हमें यह पूछना चाहिए कि सरकार को खेती में जो प्रगति की संभावना दिखाई दी है, वह उद्योग और सेवा में क्यों नहीं दिखाई पड़ रही है। आखिरकार कुल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में खेती की हिस्सेदारी सिर्फ 15 प्रतिशत ही तो होती है। जीडीपी में उद्योगों का योगदान 25 व सेवा क्षेत्र का 55 प्रतिशत माना जाता है। यानी, अगर कृषि में बेहतरी होगी तो वृद्धि दर पर ज्यादा से ज्यादा डेढ़ प्रतिशत का असर होगा। इसलिए, अगर वृद्धि दर को बढ़ाना है तो खेती के साथ-साथ उद्योग और सेवा में बेहतरी लाना ज़रूरी है। सरकार के पास इन दोनों क्षेत्रों में बढ़ोतरी की क्या योजना है? 
दूसरा सवाल हमें यह पूछना चाहिए कि क्या इस 5.4 प्रतिशत में हमारे असंगठित क्षेत्र का प्रदर्शन भी शामिल है, या यह आंकड़ा केवल संगठित क्षेत्र के प्रदर्शन पर ही आधारित है? ध्यान रहे कि संगठित क्षेत्र हमारे देश के सौ रोज़गारशुदा लोगों में से केवल छह को ही रोज़गार दे पाता है। बाकी 94 लोगों की गुज़रबसर असंगठित क्षेत्र के दम पर होती है। क्या सरकार असंगठित क्षेत्र के आंकड़े जमा करती है? नहीं। उसने अर्थव्यवस्था के इस विशाल क्षेत्र को आंकड़ों की दृष्टि से अदृश्य कर दिया है। यानी, यह 5.4 प्रतिशत की वृद्धि दर असल में केवल संगठित क्षेत्र (मुख्यत: कॉरपोरेट और पब्लिक सेक्टर की कम्पनियां) के प्रदर्शन पर आधारित है। सरकार असंगठित क्षेत्र पर कब ध्यान देना शुरू करेगी, और अभी तक उस पर ध्यान न देने वाली नीति उसने क्यों अपना रखी है? असंगठित क्षेत्र नोटबंदी, जीएसटी और कोविड का मारा हुआ है। वह लगातार गिरावट पर है। अगर उसकी गिरावट को नाप लिया जाए और फिर जीडीपी के आंकड़े निकाले जाएं तो यह 5.4 प्रतिशत का यह आंकड़ा कम से कम दो प्रतिशत कम दिखने लगेगा। 
तीसरा सवाल हमें यह पूछना चाहिए कि उपभोग के बढ़ने से मांग में बढ़ोतरी ज़रूर होती है, लेकिन सरकार को निवेश को बढ़ाने के बारे में क्या सोच रही है? हम जानते हैं कि उपभोग का बढ़ना अच्छी बात है, पर निवेश का बढ़ना और भी अच्छी बात है। इस बार के आर्थिक सर्वेक्षण में चिंता व्यक्त की गई थी कि निजी क्षेत्र कई तरह के प्रोत्साहन देने के बावजूद निवेश नहीं कर रहा है। उसकी तिजोरियां लाखों करोड़ रुपयों की नकदी से भरी पड़ी हैं। उल्लेखनीय है कि स्वयं सरकारी क्षेत्र की कम्पनियों के पास भी लाखों करोड़ की नकदी है। पर वे भी नया निवेश नहीं कर रही हैं। जब तक अर्थव्यवस्था में नया निवेश निजी क्षेत्र की तरफ से नहीं होगा, तब तक उद्योग और सेवा क्षेत्र में कोई उछाल नहीं आ सकता। 
चौथा सवाल हमें यह पूछना चाहिए कि डोनाल्ड ट्रम्प के राष्ट्रपति बनने से पैदा हुई राजनीतिक-आर्थिक अनिश्चितताओं और सम्भावित संकटों से निबटने के लिए सरकार के पास क्या ब्लू प्रिंट है? ट्रम्प-जनित समस्याओं का सीधा और तुरंत असर भारत के आर्थिक विकास पर पड़ेगा। पिछली बार भी ट्रम्प ने भारत तो अमरीका के जनरल प्रेफरेंस की सूची से हटा दिया था। भारत के कई निर्यातों पर उन्होंने टैरिफ जड़ दिये थे। इस बार तो उन्होंने चुनाव जीतने से पहले ही कहना शुरू कर दिया था कि भारत टैरिफ किंग है। यानी, वे शपथ लेते ही भारत के माल पर बड़ा टैक्स लगा सकते हैं। क्या भारत पलट वार करते हुए अमरीकी माल पर टैरिफ लगाएगा? अगर ऐसा हुआ तो टैरिफ युद्ध शुरू हो जाएगा। पिछली बार भारत ने किसी तरह पलट वार करने परहेज़ किया था। इस बार शायद वह अपने उद्योगों की रक्षा करने के लिए इस प्रकार का संयम नहीं बरत पाएगा। यानी, इस सबके परिणामस्वरूप भारत को मुद्रास्फीति और बेरोज़गारी के नये और ऊंचे स्तर के लिए स्वयं को तैयार करना होगा। 5वां सवाल हमें यह पूछना चाहिए कि आम लोगों की नियमित आमदनी बढ़ाने के लिए सरकार क्या करने वाली है? केंद्र सरकार के ई-श्रम पोर्टल पर तीस करोड़ लोगों ने अपना रजिस्ट्रेशन करवा रखा है। इस बड़ी संख्या के 94 प्रतिशत का कहना है कि वे दस हज़ार रुपए मासिक या उससे कम ही कमा पाते हैं। 2022-23 के एनएएसएसओ के आंकड़े भी आ गये हैं। घरेलू उपभोग के इन आंकड़ों से भी ज़ाहिर है कि भरपूर ़खुशहाली केवल ऊपर के 5 प्रतिशत लोगों को ही नसीब है। देश की जनता का भविष्य मुफ्त अनाज और छोटी मोटी राहतों का हमेशा मोहताज नहीं रह सकता। 

लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।

#केवल भरोसा दिलाने से नहीं उठेगा अर्थ-व्यवस्था का ग्ऱाफ