रोज़गार वही, जो सरकार दिलाए 

रोज़गार की सटीक परिभाषा क्या है? इस पर गहन चिंतन किया जा सकता है, क्योंकि जिसे देखो वही अपने मतानुसार रोज़गार को परिभाषित करने में लगा है। दिहाड़ी के मजदूर को चार दिन लगातार मजदूरी मिल जाए तो वह अपने आप को सौभाग्यशाली मानने से परहेज नहीं करता। सड़क पर टिक्की समोसे और पाव भाजी की रेहड़ी लगाने वाला चटोरों की जीभ को अपने व्यंजनों से स्वाद से बार बार अपनी और आकर्षित करके अपने रोज़गार को बढ़ाने में जुटा रहता है। कुछ हैं जो अपने बहुमूल्य समय को ऐसे रोज़गार की तैयारी में गंवा देते हैं, जिसके मिलने की कोई गारंटी नहीं होती। फिर भी देश में बेरोज़गारी बहुत है। बरसों से कुछ लोगों का रोज़गार यही है, कि गरीबी और बेरोज़गारी का राग आलाप कर खुद मुनाफे का धंधा करते रहें। जनता संवेदनशील है, वह असली और घड़ियाली आंसुओं में भेद करने में धोखा खा ही जाती है। 
सच की पाठशाला में पढ़े लिखे लोग जानते हैं कि रोटी, कपड़ा और मकान जुटाने के लिए आय के नियमित साधनों का होना अनिवार्य होता है। रोज़गार की परिभाषा में कौन-कौन से रोज़गार निहित रहते हैं। यह बहस का विषय हो सकता है, किंतु सामान्य भाषा में रोज़गार वही जो पेट की भूख मिटाए, सर पर छत दिलवाए, पहनने के लिए वस्त्र उपलब्ध कराए। अकर्मण्य लोग चाहते हैं कि उन्हें हाथ पैर न हिलाने पड़ें और कोई दूसरा उनके मुंह में पकवानों के निवाले डालता रहे। वे चटखारे लेकर उदर पूर्ति करते रहें। सो वे रोज़गार को भी सरकार की जिम्मेदारी सिद्ध करते हैं। उनका मानना होता है कि स्वरोज़गार रोज़गार नहीं होता। रोज़गार वही होता है, जिसे सरकार उपलब्ध कराए। रोज़गार वही जिसमें सुविधाएं अपार हों दायित्व कम हों। काम कम करना पड़े आराम अधिक मिले। सप्ताह में पांच दिन कार्यदिवस हों दो दिन परिवार की सेवा हेतु आरक्षित हों। बकौल उनके स्वतंत्र दुकान, स्वतंत्र सेवा भला रोज़गार की श्रेणी में कैसे रखी जा सकती है। जहां आय का नियमित साधन न हो, आय अपनी मज़र्ी पर ही नहीं, दूसरों की कृपा पर भी आधारित हो, वहां रोज़गार को स्थाई रूप से परिभाषित नहीं किया जा सकता। दिहाड़ी के रोज़गार और स्थाई रोज़गार में अंतर तो होता ही है। रोज़गार की परिभाषा में वही रोज़गार गिने जाने चाहिएं, जो सर्व कालिक हों, अल्पकालिक नहीं। हर मौसम में जारी रहने वाले हों, खास मौसम तक सीमित न हों। रोज़ की कमाई का साधन हों, मेले ठेले या विशेष आयोजनों तक ही सीमित न रहने वाले हों। बेरोज़गारों का आंकड़ा बढ़ता ही इसी सोच के कारण है। यूं तो जब हाथ में महंगा मोबाइल, सड़कों पर स्टंट दिखाने के लिए महंगी बाइक, गले में सोने की चेन पहन कर अनेक युवा बेरोज़गार होने का दावा करते हैं, तब बेरोज़गारी की परिभाषा समझने में मशक्कत तो करनी ही पड़ेगी। वैसे सबकी अपनी अपनी समझ है। किसी को किसी बॉस की बात सुनना गवारा नहीं होता, वह अपने आप को बॉस बनाने की दिशा में जुट जाता है। आजकल वैसे भी स्टार्टअप का दौर है। जिन्हें स्वयं पर विश्वास होता है, वह अपने विश्वास पर खरा उतरने में कोई कसर बाकी नही छोड़ते। मल्टीनेशनल कंपनियों में सेवा के बदलने ऊंची कीमत वसूलने वाले दिग्गज अपनी आर्थिक स्थिति से भले ही संतुष्ट हों, मगर अपने मन से संतुष्ट नहीं होते। वह भी यही चाहते हैं, कि उनकी अपनी ही मल्टी नेशनल कम्पनी हो अन्यथा उनका अपना स्वतंत्र व्यवसाय हो, भले ही उसके लिए उन्हें कितना ही परिश्रम करना पड़े। जो भी नफा नुकसान होगा, वह अपना ही होगा। अपना विशिष्ट कौशल किसी और के मुनाफे का माध्यम क्यों बने, अपने मुनाफे का क्यों नहीं। सवाल उपयुक्त रोज़गार और समुचित कमाई के साथ-साथ संतुष्टि का जो ठहरा। संतुष्टि खरीदी नहीं जाती, महसूस की जाती है।

-मो. 9758341282

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