मानवीय सरोकारों में पंजाबी साहित्य की उत्तमता
2025 के मार्च माह का आरम्भ बड़ा शगुन वाला था। इसकी शुरुआत पंजाब कला भवन चंडीगढ़ के आंगन में अंग्रेज़ी भाषा में प्रकाशित उस पुस्तक के लोकार्पण से हुई जिसमें शुरू से आज तक के मानवीय सरोकारों का प्रतिनिधित्व शामिल है। पुस्तक का नाम ‘ह्यूमैनिस्टिक कन्सर्नस इन पंजाबी लिटरेचर’ है जिसका सम्पादन आत्मजीत तथा हरभजन सिंह भाटिया ने किया है। पंजाबी साहित्य एवं संस्कृति में सम्पादकों के योगदान को इस कालम के पाठक भूले हुए नहीं। मैं पुस्तक में पिरोई गई साहित्यिक विधाओं की बात करूंगा।
आमतौर पर पंजाबी साहित्य की बात बाबा फरीद के श्लोकों तथा शाह हुसैन, सुल्तान बाहु के बुल्ले शाह के सूफी सरोकारों व भक्त नामदेव जी, भक्त धन्ना जी तथा भक्त पीपा जी की भक्ति भावनाओं की बात करके आगे चलाई जाती है। ताज़ा पुस्तक के सम्पादकों ने उनके योगदान को सम्मान देते हुए मानवीय सरोकारों को समर्पित लोकगीतों को प्राथमिकता देकर बाज़ी मारी है। यहां बाबुल की नवविवाहिता बेटी ससुराल जाने से आनाकानी करती हुई मायके के दरवाज़े को तंग कहती है तो उसका बाबुल अपनी बेटी को रोकने वाली ईंटों को उखाड़ने का वचन देकर उसे ससुराल जाने के लिए प्रेरित करता है। इन गीतों में चिड़ियों का चम्भा भी है, गली-गली चक्कर लगाता वणजारा भी, संदल के पेड़ के पीछे खड़ी युवती की मिन्नत तथा सावन के मौसम की मांग भी। भाव यह कि मानवीय सरोकारों की नीवों को याद करने वाले ये गीत ही लिखित साहित्य को आगे ले जाते हैं। शहीद भगत सिंह की घोड़ी सहित। गुरु नानक देव जी, गुरु अर्जन देव जी तथा गुरु गोबिन्द सिंह जी की बाणी या भाई गुरदास की वारों एवं वारिस शाह जैसों के किस्सा काव्य की नीव में भी लोक साहित्य समाया हुआ है। वैसे सम्पादकों ने हाशम शाह तथा शाह मुहम्मद को भी कम सम्मान नहीं दिया।
यहां वर्तमान कविता में भाई वीर सिंह, हीरा सिंह दर्द, बाबू रजब अली, फिरोज़ दीन शरफ, मोहन सिंह, दामन, अमृता प्रीतम, हरिभजन सिंह तथा तारा सिंह कामल (मोमबत्तियां) ही नहीं, मीशा, जगतार, हुंदल, उदासी, पातर, नूर, फखर जमां, देव, झज्ज, अमितोज, नीरू असीम, सवी, ज़फर तथा साबिर अली साबिर भी शामिल हैं।
इसी प्रकार गल्प का भाग नानक सिंह, सेखों, कंवल, दुग्गल, विरक, अजीत कौर, टिवाणा, कज़ाक, बलदेव सिंह, खालिद हुसैन तथा मित्र सेन मीत को प्रतिनिधित्व देता है।
लोकप्रिय विधा नाटक में ईश्वर चन्द्र नंदा, हरचरण सिंह, गार्गी, आत्मजीत, स्वराजबीर तथा केवल धालीवाल तथा उपयोगकर्ता लेखकों में तेजा सिंह, गुरबख्श सिंह, रूप साहनी, गुरदित्त सिंह, गुरबचन तथा बलबीर माधोपुरी के चुनिंदा नमूने अंग्रेज़ी भाषा में अनुवाद किए गए हैं। यह अनुवाद उपरोक्त लेखकों की रचनाओं के बिना और भी अनेक महारथियों के नमूने पेश करता है। ऐसे बड़े कार्य में सुरिन्दर गिल (कवि) तथा गुरदेव सिंह रुपाणा जैसे कहानीकारों का रह जाना कोई त्रुटि नहीं।
यह बात याद रखने वाली है कि किसी भी भाषा का अंग्रेज़ी अनुवाद प्राप्त होना रचनाकार की भावना का सारे संसार के हिस्से आना है। यह एकमात्र भाषा है जो विश्व के कोने-कोने तक फैल चुकी है। एक समय था जब अंग्रेज़ों ने अपने पांव कई सागरों से पार फैला रखे थे। वे जहां भी गए, उन्होंने स्थानीय निवासियों को अपने अधीन करने के लिए उन्हें अपनी भाषा से अवगत करवाया। अखंड हिन्दुस्तान पर अंग्रेज़ों ने ही शासन नहीं किया, उनसे पहले दो सौ वर्ष मुगल भी काबिज़ रहे। परिणामस्वरूप यहां के समूचे निवासी अपनी मातृ भाषा के अतिरिक्त उर्दू व अंग्रेज़ी भी सीख गए। उर्दू विनम्रता प्रदान करने वाली भाषा थी और अंग्रेज़ी दृष्टि का विस्तार करने वाली। आत्मजीत तथा हरभजन सिंह भाटिया ने अंग्रेज़ी का महत्व पहचाना और अपनी मातृ भाषा में दर्शायी गई भावना एवं धारणा को समूचे संसार में पहुंचाने का प्रयास किया है।
अनुवाद का कार्य इतना आसान नहीं था। रचनाओं के चयन जितना ही कठिन था। यह श्रेय भी सम्पादकों को जाता है कि उन्होंने विवेक सचदेवा, पुष्पिंदर सियाल, स्वराज राज तथा माधवी कटारिया को ढूंढ कर यह कार्य भी बाखूबी निभाया है। सिर्फ अनुवाद ही नहीं, इसमें नव-सृजित कलाकारी का उजाला भी है।
याद रहे कि इस अमूल्य कार्य की नींव रखने वाले इस शृंखला के सम्पादक गणेश अन्न देवी हैं। वह पंजाबी से पहले ऐसा कार्य मराठी, कन्नड़, कोंकनी तथा तेलुगू भाषा में करके उपलब्धि हासिल कर चुके हैं। परमात्मा उसे लम्बी आयु बख्शे ताकि वह यह कार्य अन्य भारतीय भाषाओं में भी पूर्ण कर सकें। मेरी मातृ भाषा के पाठक भाग्यशाली हैं जिनकी भाषा की उत्तम रचनाएं पहली पांच भाषाओं में शामिल हो गई हैं। इसलिए इस पोथी के सम्पादक ही नहीं, अनुवादक भी प्रशंसा के हकदार हैं।
जहां तक छोटी-मोटी लापरवाहियों का प्रश्न है, वे ध्यान देने योग्य हैं। मज़बूत नींव रखी गई है और नए निर्माण होते रहेंगे। चांद पर जाने वाले भी तभी सफल हुए हैं यदि पंडित नेहरू की सरकार ने इंटरनैशनल स्पेस रिसर्च इंस्टीच्यूट की स्थापना की थी। वर्तमान सरकार के शासक जिनता चाहे सीना फैला कर बात करें, नींव रखने वाले पंडित नेहरू थे। हमारे सम्पादकों ने उनके जैसे कार्य करके उपलब्धि हासिल की है।