भारत को लेकर अधूरा और असंगत बोल रहे हैं ट्रम्प 

यह तो भविष्य बतायेगा कि अमरीका के मौजूदा राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प को इतिहास कैसे याद रखेगा? लेकिन वर्तमान में ऐसे लोगों की संख्या हज़ारों में नहीं, बल्कि लाखों में होगी, जो उन्हें एक सनकी, तुनकमिज़ाज और डिप्लोमेटिक प्रोटोकाल की परवाह न करने वाला वैश्विक राजनेता ही कहेंगे, क्योंकि ट्रम्प बर्ताव ही कुछ ऐसा कर रहे हैं। राष्ट्रपति बनने के बाद से अभी तक वह दुनिया के जितने भी राजनेताओं से मिले हैं, उनमें इज़रायल के प्रधानमंत्री नेतन्याहू ही अकेले ऐसे हैं, जिनकी उन्होंने अपनी बातों, बॉडी लैंग्वेज या किसी अन्य हरकत से तौहीन नहीं की, वर्ना सबके साथ उन्होंने सवालिया व्यवहार ही किया है? फ्रांस के राष्ट्रपति, ब्रिटेन के प्रधानमंत्री और जॉर्डन के राजा के साथ जहां वह झिड़काऊ शब्दों और उलाहनाभरी भंगिमाओं से मुखातिब हुए हैं, वहीं भारतीय प्रधानमंत्री के साथ भी उनका व्यवहार न तो उनके दावे के अनुसार गहरे दोस्त वाला रहा है और न ही दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के मुखिया के अनुरूप ही उनको तवज्जो दी गयी। भले व्यक्तिगत रूप से भारतीय प्रधानमंत्री पर ट्रम्प ने कोई शब्दबाण न छोड़े हों, लेकिन दूसरे राजनेताओं की तरह प्रधानमंत्री मोदी को व्हाइट हाउस के पोर्च में न रिसीव करना, मुलाकात के पहले ही भारत को टैरिफ किंग कहना और साझी प्रेस कांफ्रैंस के दौरान ‘रेसिप्रोकल’ शब्द का इस्तेमाल करके माहौल को असहज करना, उनके गुरूरी और कूटनीतिक अशिष्ट होने का ही परिचायक था।
लेकिन शायद यह सब अभी उन्हें कम लग रहा था, इसलिए गते 7 मार्च, 2025 को ट्रम्प ने अपने ओवल ऑफिस में पत्रकारों से बात करते हुए यह कह दिया कि हमने भारत की पोल खोल दी है। ट्रम्प के मुताबिक, ‘भारत हम पर बहुत ज्यादा टैरिफ लगाता है, आप भारत में कुछ भी नहीं बेच सकते। वैसे वे अब इस बात पर सहमत हो गये हैं कि वे अपने टैरिफ  में कटौती करना चाहते हैं, क्योंकि आखिरकार कोई उनकी किये की पोल खोल रहा है।’ ट्रम्प के ये शब्द बेहद छिछले और दो महान लोकतांत्रिक देशों के राजनेताओं द्वारा आपसी संबोधन के अनुकूल तो कतई नहीं है, लेकिन राष्ट्रपति ट्रम्प को किसी शिष्टता की परवाह नहीं है, न किसी से लेना देना। यहां तक कि वह बोलने के पहले किसी संदर्भ में कोई होमवर्क करने की भी ज़रूरत नहीं समझते। अमरीका जिस तरह यूक्रेन पर दबाव डालकर उसके कीमती खनिजों को हथियाने की कोशिश कर रहा है, कुछ वैसी ही भूमिका बिना कहे भारत के साथ व्यापार संबंधों में बनाना चाहता है। अमरीका चाहता है कि भारत अपनी सरकारी खरीद अमरीकी कंपनियों के लिए खोले, कृषि सब्सिडी कम करे और डेटा नियमों में पूरी तरह से छूट दे, जिसका फायदा अमरीकी उद्योगतंत्र उठा सके।
अमरीकी राष्ट्रपति जिस अंदाज़ में बार-बार भारत को टैरिफ किंग कह रहे हैं, उससे उनकी संवेदनहीनता की पराकाष्ठा का पता चलता है। वह एक बार भी यह जानने की कोशिश नहीं कर रहे कि अंतर्राष्ट्रीय व्यापार किन नियमों के आधार पर हो रहा है? क्या भारत नियमों के विरुद्ध कुछ कर रहा है? साल 1995 में भारत ने जब डब्ल्यूटीओ (विश्व व्यापार संगठन) समझौते को मंजूरी दी थी, उसमें साफ  शब्दों में विकासशील देशों को विकसित देशों के विरुद्ध ऊंचे टैरिफ की छूट दी गई थी। वास्तव में इसी आधार पर डब्ल्यूटीओ को वैश्विक मान्यता मिल सकी थी और तब विश्व व्यापार तथा भूमंडलीकरण से दोनों हाथ फायदा उलीच रहीं अमरीका जैसी वैश्विक ताकतों का एकमात्र मकसद पूरी दुनिया को या दुनिया के बड़े हिस्से को भूमंडलीकरण के दायरे में लाने का था। 
क्या अर्थशास्त्र के किसी नियम से तकनीक की कीमत तय हुई है? अमरीका ने अपने ताकतवर होने के कारण ही तो इसकी मनमानी कीमत वसूली है। लंबे समय से अमरीका ने अपने तकनीकी नवाचार और उच्च प्रौद्योगिकी में अग्रणी होने के कारण वैश्विक व्यापार का एकतरफा लाभ उठाया है। सेमिकंडक्टर, सॉफ्टवेयर और इंटरनेट प्रौद्योगिकियों में अमरीकी कंपनियों ने पूरी दुनिया से मनमाना राजस्व वसूला है, क्योंकि उनकी तकनीकी श्रेष्ठता की कीमत तय करने का आधार किसी और के पास नहीं था। अब जबकि चीन उन्हें तकनीकी के क्षेत्र में कड़ी टक्कर दे रहा है और भारत तकनीकी ‘मैन पावर’ का हब बनकर उभरा है, तो अमरीका को मिर्ची लग गई और ट्रम्प अमरीकियों के सामने बेहद सरलीकृत माहौल बनाकर इसे राष्ट्रवाद के मुद्दे की तरह उछाल रहे हैं। कई सालों पहले तकनीकी के मनमानीवाद को लेकर विश्व व्यापार में कुछ सवाल उठाये गए थे कि अंतत: तकनीकी महज बौद्धिक संपदा ही तो है, जिसका शुरुआत के कुछ सालों में फायदा उठाना तो उस संपदा को खोजने वाले का हक बनता है।
अगर किसी मुद्रा की मज़बूती का आधार उस देश में, उस मुद्रा के एवज में मौजूद सोने का भंडार या दूसरी कीमती धातुएं हैं तो अमरीका तो पिछली सदी के 70 के दशक में ही इस आधार को खो बैठा था। साथ ही आज की तारीख में अमरीका दुनिया का सबसे बड़ा कज़र्दार देश है। 100 बिलियन डॉलर से ज्यादा तो उसका व्यापार घाटा अकेले चीन के साथ ही है, बावजूद इसके ट्रम्प ब्रिक्स देशों को धमकी दे रहे हैं कि अगर उन्होंने आपसी व्यापार के लिए डॉलर की बजाय कोई ब्रिक्स मुद्रा बनायी तो खैर नहीं। यह तो सीधे-सीधे धमकी है। दुनिया के दो देश अगर आपसी कारोबार अपनी मुद्राओं में करना चाहते हैं, तो उनके लिए डॉलर क्यों ज़रूरी हो? क्या सिर्फ  इसलिए कि अमरीका नहीं? जिस तरह ट्रम्प बार-बार भारत को टैरिफ किंग कह रहे हैं, जिस तरह दुनिया के सामने वह हमारी ‘पोल खोल देने’ जैसी बातों से तौहीन कर रहे हैं, उससे साफ  पता चलता है कि उन्हें न तो हमारे साथ किसी तरह का लगाव है, न ही वह दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का सम्मान करना चाहते हैं।  एक तरह से ट्रम्प बार-बार हम पर शाब्दिक हमला करके हमें मनोवैज्ञानिक रूप से झुकाने की कोशिश कर रहे हैं। 
यहां तक कि ट्रम्प से पहले बाइडन ने भी भारत पर बहुत दबाव डाला था कि हम रूस से तेल न खरीदें, लेकिन भारत ने अपने स्टैंड से पीछे हटे बिना साफ शब्दों कहा कि वह कोई भी संबंध किसी को खुश करने या नाराज़ करने के लिए नहीं बनाता, बल्कि अपनी हितों को ध्यान में रखकर बनाता है। इसलिए ट्रम्प भारत को झुकाने की कोशिश छोड़ दें। भारत कभी भी अमरीकी कंपनियों के लिए कम से कम कृषि क्षेत्र में तो पलक पांवड़े नहीं बिछायेगा और हां, अमरीका को भारत जैसे बड़े बाज़ार की दरकार जितनी है, भारत को अमरीका की उतनी नहीं है, क्योंकि आज अमरीका के पास जो तकनीकी कुशलता है, वैसी कुशलता दुनिया के और भी देशों के पास थोड़ी बहुत उच्च स्तर में मौजूद है। इसलिए भारत के विरुद्ध ट्रम्प जो बोल रहे हैं, वह न सिर्फ  अशिष्टता से भरा है, बल्कि असंगत भी है। ट्रम्प को इस पर सोचना होगा।  
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर 

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