और गहरा हुआ संकट
विगत दिवस हुई शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी की अंतरिम कमेटी ने अपनी एक बैठक में बड़ा फैसला लेते हुए श्री अकाल तख़्त साहिब के जत्थेदार ज्ञानी रघबीर सिंह और श्री केसगढ़ साहिब के एक जत्थेदार ज्ञानी सुल्तान सिंह को पद से ़फारिग कर दिया। इस घोषणा से पंथक संकट और भी गहरा हो गया है। इस समय चाहे पंजाब की राजनीति में अकाली दल (ब) ही नहीं विचरण कर रहा, अपितु और भी अलग दर्जन भर अकाली दल अपने-अपने स्तर पर सक्रिय हैं, परन्तु पिछले कई दशकों से चाहे अकाली दल (ब) के सिख पंथ में अधिक प्रभावी रहने के कारण इसका नाम पहले स्थान पर आता है। समय-समय स्व. जत्थेदार गुरचरन सिंह टोहरा और कई अन्य नेताओं ने अपनी-अपनी पार्टियां बना कर विचरण करने का यत्न किया था, परन्तु अंतत: इस मुख्य बड़े दल में ही ज्यादातर का विलय होता रहा परन्तु इसके बावजूद इसमें लगातार विरोध के स्वर भी उभरते रहे।
यह पार्टी सौ साल से भी अधिक पुरानी है, 1920 में गुरुद्वारा सुधार लहर के बाद ऐतिहासिक गुरुद्वारों के प्रबन्ध हेतु शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी की स्थापना हुई थी। बाद में बना अकाली दल इसका हरावल दस्ता था, जो समय के व्यतीत होने से परिपक्व होता गया। अकाली दल ने खड़क सिंह, मास्टर तारा सिंह, जत्थेदार उधम सिंह नागोके, संत ़फतेह सिंह, संत हरचरन सिंह लौंगोवाल के बाद जत्थेदार गुरचरन सिंह टोहरा, जत्थेदार जगदेव सिंह तलवंडी और स. प्रकाश सिंह बादल जैसे वरिष्ठ नेताओं का उभार भी देखा। विशेष रूप से पंजाब की राजनीति में अकाली दल का बड़ा प्रभाव रहा, जो वर्ष 1966 में पंजाब के पुनर्गठन के बाद और भी बढ़ गया। लगभग सात बार इसकी सरकारें बनीं। स. प्रकाश सिंह बादल पांच बार प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। समय के व्यतीत होने से अकाली दल की विचारधारा में भी बदलाव होता गया। इसे एक भाईचारक पार्टी के आगे पंजाबियत को समर्पित लोगों की पार्टी में बदल दिया गया। इससे हमेशा यही उम्मीद की जाती रही कि यह पंथ तथा पंजाब के अधिकारों व हितों की डट कर पहरेदारी करेगा और केन्द्र सरकारों के समक्ष पंजाब का पक्ष परिपक्वता और निडरता से रखता रहेगा।
लम्बी अवधि तक प्रशासनिक बागडोर सम्भालते हुए तत्कालीन सरकारों और इन्हें चलाने वाले राजनीतिक दलों के कामकाज में अनेक त्रुटियां भी आ जाती हैं। ऐसा करते हुए वे कई बार अपनी पहरेदारी से भी चूक जाती हैं। अकाली-भाजपा सरकारों के समय भी कई बार ऐसा कुछ घटित हुआ। विशेष रूप से श्री गुरु ग्रंथ साहिब की बेअदबी के मामलों को प्राथमिकता के आधार पर निपटाने की जो उम्मीद सरकार से रखी जाती थी, वह पूरी न हो सकी। एक डेरे के प्रमुख को सिंह साहिबान द्वारा माफी दिलाने के कारण भी मामला उलझा। इसने विशेष रूप से सिखों के मन में बड़ी निराशा पैदा की। पंजाब के समक्ष अनेकानेक ऐसे मामले उठते रहे, जिनके हल होने की उम्मीद पार्टी से की जाती थी, जो पूरी न हो सकी। प्रदेश की राजनीति में आए बड़े बदलावों के कारण और अनेक आंतरिक कारणों के दृष्टिगत पार्टी अवसान की ओर जाती रही, जिसकी कार्यशैली में प्रत्येक पक्ष से बड़े बदलाव लाने की ज़रूरत महसूस होने लगी। जितना इन बदलावों की लगातार मांग उठती रही उतना ही अकाली दल का संकट और गहरा होता गया। ब़ागी हुए नेताओं ने श्री अकाल तख़्त साहिब पर पहुंच की। जिससे मामला सुलझने की बजाए और उलझ गया। आज जहां बात आ खड़ी हुई है, उसने वर्षों से स्थापित पंथ की धार्मिक संस्थाओं को भी अपनी चपेट में ले लिया है, जिस कारण राजनीतिक क्षेत्र के बाद धार्मिक क्षेत्र में भी संकट और अधिक गहरा हो गया है। मौजूदा स्थिति यह मांग करती है कि अलग-अलग गुटों में विचरण कर रहे अकाली नेता संकीर्ण राजनीति से ऊपर उठ कर कुर्बानी और त्याग का प्रमाण दें। पंथ और पंजाब की भलाई के लिए अपनी कतारों में एकजुटता करें। अकाली दल, शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी और पंथ की अन्य सिरमौर संस्थाओं का पहले वाला रूतबा पुन: बहाल करने के लिए वह प्रतिबद्धता से आगे आएं, नहीं तो इतिहास उन्हें माफ नहीं करेगा। ऐसे समर्पण से ही पुन: अकाली दल का उभार सम्भव हो सकता है। निजी हितों से ऊपर उठ कर सर्व-कल्याण की चिन्ता ही इस मामले को सुलझाने में सामर्थ्य होगी। ऐसी ही उम्मीद आज भी अकाली नेताओं से की जा रही है।
—बरजिन्दर सिंह हमदर्द