जातिगत जनगणना : सामाजिक न्याय की नई इबारत या नई चुनौतियां

भारत का लोकतंत्र सामाजिक विविधताओं की जटिल परतों से बुना गया है। जाति, जो एक समय में सामाजिक संगठन का साधन थी, अब आज़ादी के 75 वर्षों बाद भी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक संरचनाओं का अनिवार्य हिस्सा बनी हुई है। स्वतंत्रता संग्राम के आदर्शों में जातिविहीन, समतामूलक समाज की कल्पना की गई थी, परंतु जमीनी सच्चाई इससे अलग है। भारत के लोकतांत्रिक ढांचे में सामाजिक विविधता एक सच्चाई रही है जिसका सबसे प्राचीन और प्रभावशाली स्वरूप जाति व्यवस्था ही रही है। संविधान निर्माताओं ने आज़ाद भारत में एक ऐसे समाज का सपना देखा था जिसमें जन्म नहीं, बल्कि योग्यता व्यक्ति की पहचान बने, लेकिन वास्तविकता यह है कि जाति आज भी हमारे सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन के केंद्र में मौजूद है।
ऐसे में नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा आगामी राष्ट्रीय जनगणना में जातिगत आंकड़े संकलित करने का निर्णय एक ऐतिहासिक मोड़ है। यह फैसला न केवल सामाजिक संरचना को गहराई से प्रभावित करेगा बल्कि भारत की भविष्य की राजनीति, नीति निर्माण और सामाजिक संतुलन को भी नए ढंग से गढ़ेगा। भारत में आखिरी बार जातिगत आंकड़े 1931 की जनगणना में दर्ज किए गए थे। आज़ादी के बाद भारत ने जातिगत जनगणना से जान-बूझकर दूरी बनाई। उद्देश्य था एक ऐसी पीढ़ी तैयार करना जो जाति से ऊपर उठकर राष्ट्रीय एकता को प्राथमिकता दे।
आज़ादी के बाद संविधान निर्माताओं ने एक चेतन निर्णय लिया था कि जातिगत पहचान को सरकारी नीति का मुख्य आधार नहीं बनने दिया जाएगा, सिवाय अनुसूचित जातियों और जनजातियों के आरक्षण के संदर्भ में। 2011 में तत्कालीन यूपीए की सरकार ने श्सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना करवाई ज़रूर थी, परंतु उसमें जुटाए गए आंकड़े आज तक सार्वजनिक नहीं किए जा सके जो इस आंकड़े संकलन के राजनीतिक जोखिम और संवेदनशीलता का साफ  संकेत देता है।
यह जातिगत जनगणना कराने का निर्णय ऐसे समय में आया है जब सामाजिक न्याय और  प्रतिनिधित्व की मांग देश भर में तेज हो रही हैं। ओबीसी, महादलित, अति पिछड़ा जैसे वर्ग राजनीतिक विमर्श के केंद्र में आ चुके हैं। साथ ही विपक्षी दलों का लगातार दबाव और जनता के बीच प्रतिनिधित्व की बढ़ती मांग ने सरकार को इस ऐतिहासिक कदम के लिए प्रेरित किया है।
हालांकि आलोचक इसे आगामी चुनावों को ध्यान में रख कर उठाया गया राजनीतिक कदम भी बता रहे हैं, परन्तु इसमें कोई दो राय नहीं कि इस निर्णय से देश की नीतियों और सामाजिक समीकरणों पर दूरगामी प्रभाव पड़ेगा। 2025 की इस जनगणना में केंद्र ने जातिगत आंकड़े इकट्ठा करने का जो निर्णय लिया हैए वह कई दृष्टियों से अभी महत्वपूर्ण है—जैसे जाति आधारित भेदभाव और असमानता के वास्तविक परिदृश्य को उजागर करना, सरकारी योजनाओं और आरक्षण नीति को डेटा आधारित बनाना, विपक्षी दलों द्वारा लंबे समय से ओबीसीए ईबीसी और अन्य पिछड़े वर्गों की वास्तविक गणना की मांग, दलित, पिछड़े और अति-पिछड़े समूहों में अंदरूनी विविधता को पहचानने की आवश्यकता।
 जातिगत जनगणना के संभावित लाभ : जातिगत जनगणना से कई महत्वपूर्ण फायदे हो सकते हैं जैसे—विभिन्न सामाजिक समूहों का वास्तविक आबादी मालूम होने के बाद योजनाओं और संसाधनों का लक्ष्य निर्धारण आंकड़ों के आधार पर संभव होगा। वास्तविक सामाजिक-आर्थिक स्थिति के आधार पर आरक्षण को अधिक न्यायसंगत बनाया जा सकेगा। पिछड़े वर्गों के भीतर भी जो सबसे अधिक वंचित हैं, उसकी पहचान संभव हो सकेगी और उन्हें मुख्य धारा से जोड़ने का मार्ग प्रसस्त हो सकेगा। अलग-अलग क्षेत्रों और समुदायों की गरीबी स्वास्थ्य और शिक्षा की पर वास्तविक अध्ययन हो सकेगा और उसको ध्यान में रखते हुए जातिगत संरचना के आधार पर  विशेष क्षेत्रीय नीतियाँ बनाई जा सकेंगी। सामाजिक विविधता को सही मायने को समझा जा सकेगा और वास्तव में वंचित समूहों को उचित प्रतिनिधित्व सुनिश्चित कर लोकतन्त्र को और अधिक समवेशी बनाया जा सकेगा।
दूसरी ओर आंकड़ों के दुरुपयोग से जातीय टकराव और अविश्वास का माहौल बन सकता है। राजनीतिक दल आंकड़ों का उपयोग केवल अपनी चुनावी गणित साधने के लिए कर सकते हैं। लीक हुए संवेदनशील आंकड़े समाज में गंभीर उथल-पुथल पैदा कर सकते हैं। इस मामले में सरकार को स्पष्ट संदेश देना होगा कि उद्देश्य सामाजिक विभाजन नहीं, समावेशी विकास है। (अदिति)

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