बांग्लादेश में कभी भी हो सकता है तख्ता-पलट 

बांग्लादेश की स्थिति नाज़ुक बनी हुई है। हालात बदलाव की ओर इशारे कर रहा है। बांग्लादेश की सेना ने वहां के कार्यवाहक प्रधानमंत्री मोहम्मद युनूस के खिलाफ  मोर्चा खोल दिया है जिसकी वजह से मोहम्मद युनूस अपने पद से इस्तीफा देने का विचार कर रहे हैं। उनका कहना है कि बांग्लादेश के मौजूदा हालातों में उनका काम कर पाना मुश्किल हो रहा है। बांग्लादेश में भी पाकिस्तान की तरह ही सरकार पर सेना का प्रभुत्व रहता आया है। आखिरकार बांग्लादेश पाकिस्तान का ही हिस्सा रहा है, जिसे भारत ने 1971 में पाकिस्तान से काटकर अलग देश बनवा दिया था किन्तु बांग्लादेश भी पाकिस्तान की राह पर ही चलने लगा है। इसमें हैरत वाली कोई बात नहीं है। पाकिस्तान की तरह ही बांग्लादेश में जब सेना के नेतृत्व में लोकतांत्रिक सरकार बनी और उसने बेहतर काम करके दिखाया था। अमरीका के अथित इशारे पर बांग्लादेश की सेना ने शेख हसीना का तख्ता-पलट दिया और अमरीका ने अपने पिट्ठू मोहम्म्द युनूस को बांग्लादेश की बागडोर सौंप दी जिनके नेतृत्व में बांग्लादेश में हिंसा का तांडव हुआ। अब बांग्लादेश की सेना मोहम्मद युनूस की कार्यप्रणाली से बुरी तरह खफा हो गई है और उन्हें पद से हटाकर अब बांग्लादेश की सेना के आर्मी चीफ  खुद सत्ता की बागडोर संभालने के इच्छुक बन गये हैं। बांग्लादेश की सेना वहां जल्द चुनाव कराने की मांग करती आ रही है लेकिन मोहम्मद युनूस अपनी कुर्सी पर काबिज़ रहने के लिए चुनाव से कतराते रहे हैं।
इसी मुद्दे को लेकर मोहम्मद युनूस और सेना के बीच मतभेद इस कदर गहरा गये हैं कि अब बांग्लादेश की सेना मोहम्मद युनूस की छुट्टी करने पर उतारू हो गई है। ऐसे में बांग्लादेश में कभी भी तख्ता-पलट हो सकता है और मोहम्मद युनूस बांग्लादेश छोड़कर वापिस अमरीका लौट सकते हैं। जनकारी के अनुसार भारत सरकार ने उत्तर-पूर्वी राज्यों (असम, मेघालय, त्रिपुरा, मिज़ोरम) के ज़मीनी मार्गों के रास्ते बांग्लादेश से भेजी जाने वाली कई वस्तुओं पर पाबंदी लगा दी है। ये मार्ग बांग्लादेश के लिए अहम व्यापारिक गलियारे थे। भारत ने बांग्लादेश के उस सामान पर भी प्रतिबंध लगाया है जो उत्तर-पूर्वी राज्यों के जरिए तीसरे देशों को निर्यात किए जाते थे। एक अनुमान के मुताबिक भारत के इस फैसले से बांग्लादेश को सालाना 5800 करोड़ रुपए के कारोबार से हाथ धोना पड़ सकता है। 
पछले साल शेख हसीना के सत्ता से बेदखल होने के बाद बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के भारत विरोधी रुख को देखते हुए यह कड़ा फैसला ज़रूरी था। हालांकि सरकार का कहना है कि यह कदम बांग्लादेश के व्यापार को सीमित करने और भारत के कपड़ा, प्रोसेस्ड खाद्य जैसे स्थानीय उद्योगों को बढ़ावा देने के मकसद से उठाया गया है। यह कदम आत्मनिर्भर भारत नीति के अनुरूप है। नीति का लक्ष्य आयात पर निर्भरता कम कर स्वदेशी उत्पादन को बढ़ावा देना है।
बांग्लादेश भूल रहा है कि उसकी आज़ादी की लड़ाई में अहम भूमिका निभाने के साथ भारत का उसके लोकतांत्रिक और आर्थिक विकास में भी बड़ा योगदान रहा है। वहां की अंतरिम सरकार के मुखिया मोहम्मद यूनुस ने एक तरफ कट्टरपंथियों को खुली छूट दे रखी है तो दूसरी तरफ  चीन और पाकिस्तान के साथ मिलकर नए भू-राजनीतिक समीकरणों को हवा दे रहे हैं। बांग्लादेश में चीन निवेश भी बढ़ा रहा है और उसे सैन्य मदद भी दे रहा है। हाल ही चीनी अफसरों की एक टीम बांग्लादेश में लालमोनिरहाट में बन रहे एयरबेस का निरीक्षण करने पहुंची। यह बेस भारत की ‘चिकन नेक’ सिलीगुडी कॉरिडोर के करीब है। पूर्वोत्तर भारत को दिल्ली से जोड़ने वाले इस कॉरिडोर पर यूनुस सरकार के बयान चिंता बढ़ाने वाले हैं। अगर बांग्लादेश के इस एयरबेस तक पाकिस्तान या चीन की वायुसेना की पहुंच होती है तो भारत के लिए यह भी चिंता की बात होगी। पाकिस्तान पहले भी बांग्लादेश के जरिए पूर्वोत्तर में अशांति की साज़िश रच चुका है। भारत को पूर्वोत्तर की सीमा के पार चल रही बांग्लादेश की गतिविधियों पर कड़ी निगरानी रखनी होगी। अपने सुरक्षा हित सुनिश्चित करने के लिए बांग्लादेश पर कूटनीतिक और रणनीतिक दबाब भी बढ़ाया जाना चाहिए।
मुख्य सलाहकार मोहम्मद यूनुस के अधीन काम कर रही इस सरकार से अपेक्षा थी कि वह साफ. सुथरे और निष्पक्ष चुनाव कराने का माहौल तैयार करेगी, परन्तु उसने इस दिशा में सीमित प्रयास किए और कई अवसरों पर तो उसने विरोध प्रदर्शन के दौरान और उसके बाद समाज में उभरे विभाजन को ही बढ़ावा दिया है। 
कुछ सप्ताह पहले अंतरिम सरकार के प्रभावी सदस्यों ने अलग होकर एक नई राजनीतिक पार्टी बनाने का निर्णय लिया और गत सप्ताह सरकार ने हसीना की अवामी लीग को चुनाव लड़ने से रोकने का निर्णय लिया। कोई भी निष्पक्ष पर्यवेक्षक इसे इस रूप में देखेगा कि नया प्रतिष्ठान चुनाव को प्रभावित करने की कोशिश कर रहा है। चूंकि हसीना की प्रमुख आलोचना यही है कि उन्होंने सत्ता में बने रहने के लिए लोकतांत्रिक संस्थानों को प्रभावित किया। इसलिए यह समझना मुश्किल है कि नया प्रतिष्ठान वही काम करने के बाद नैतिक रूप से ऊंचे स्तर पर रहने का दावा कैसे कर सकता है? वे खुद ही चुने हुए नहीं हैं। (युवराज)

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