क्षेत्रीय भाषाओं को प्राइमरी शिक्षा तक ही सीमित न रखा जाए
नया राष्ट्रीय पाठ्यक्रम फ्रेमवर्क (नैशनल करिकुलम फ्रेमवर्क या एनसीए़फ) आ गया है। यह चाहता है कि साक्षरता की पहली भाषा मातृभाषा या कोई जानी-पहचानी क्षेत्रीय या राज्यभाषा होनी चाहिए। इस सिफारिश के पीछे मान्यता यह है कि इससे भारतीयों का भाषाई, सांस्कृतिक और बौद्धिक विकास होगा। यह बात सुनने में बड़ी अच्छी लगती है लेकिन अगर आदर्श यही है तो फिर दिल्ली का सरदार पटेल विद्यालय पूरे देश के लिए एक सुंदर उदाहरण घोषित कर देना चाहिए। इस अत्यंत प्रतिष्ठित विद्यालय में शुरुआती कक्षाओं में हिंदी माध्यम से पढ़ाई होती है। अंग्रेज़ी पढ़ाई जाती है लेकिन एक विषय के रूप में। संभवत: दर्जा पांच के बाद शिक्षा का माध्यम हिंदी से बदल कर अंग्रेज़ी कर दिया जाता है। दिल्ली में रहने वाले रंग-रुतबे वाले अभिजनों में यह विद्यालय बहुत लोकप्रिय है। इससे उनके दोनों काम चल जाते हैं। पहला, उनका बच्चा हिंदी से कम से कम इतना परिचित हो जाता है कि रिक्शे वाले से, सब्ज़ी वाले से, अपने घर के नौकरों से और साधारण लोगों से हिंदी में बातचीत कर पाता है। और साथ में प्राथमिक शिक्षा के तुरंत बाद उसका प्रशिक्षण अंग्रेज़ी में होने लगता है जिससे वह अपनी ज़िंदगी में बड़ी से बड़ी जगहों और मुकामों पर पहुंचने की काबिलियत हासिल कर लेता है। इस लिहाज़ से देखें तो नया राष्ट्रीय पाठ्यक्रम फ्रेमवर्क यह सवाल छोड़ जाता है कि साक्षरता की पहली भाषा ही मातृ या क्षेत्रीय क्यों होनी चाहिए, अंतिम भाषा में मातृ या क्षेत्रीय क्यों नहीं होनी चाहिए?
वैश्विक हिंदी सम्मेलन ने घोषणापत्र जारी करके कुछ वर्ष पहले कहा था, ‘पूरे देश में शासकीय विद्यालयों सहित सभी विद्यालयों में प्राथमिक शिक्षा अनिवार्यत: भारतीय भाषाओं में दी जाए।’ ऊपर से देखने में दुरुस्त लगने वाली यह मांग पूरी तरह से अपर्याप्त थी। यह घोषणापत्र भी माध्यमिक और उच्च शिक्षा अंग्रेज़ी में देने के वर्तमान आग्रह से सहमत था? यह घोषणापत्र भी यह सवाल उठाने से परहेज़ करता था कि क्या देश में शिक्षा का समूचा माध्यम (प्राथमिक से उच्च शिक्षा तक) भारतीय भाषाओं में नहीं होना चाहिए? जिस तरह आज माध्यमिक और उच्च शिक्षा में हिंदी या भारतीय भाषाएं महज़ एक विषय रह जाती हैं, उस तरह क्या अंग्रेज़ी एक विषय मात्र नहीं रह जानी चाहिए?
जब तक अंग्रेज़ी उच्च शिक्षा की भाषा बनी रहेगी, तब तक हिंदी समेत कोई भी भारतीय भाषा ज्ञानोत्पादन और विमर्श की भाषा नहीं बन पाएगी। 19वीं शताब्दी के तीसरे दशक में अंग्रेज़ी ने संस्कृत, ़फारसी और अरबी को ज्ञानोत्पादन की भाषा की हैसियत से वंचित करके उस आसन पर अपना कब्ज़ा जमा लिया था। यह इतिहास आज भी हमारी सांस्कृतिक दासता को रेखांकित करता है। जब तक भारतीय भाषाओं को उच्च शिक्षा का माध्यम बना कर ज्ञानोत्पादन की भाषाओं को रूप में नीतिगत रूप से स्थापित नहीं किया जाएगा, तब तक विचारों की दुनिया में किसी स्वराज्य की कल्पना हमें नहीं करनी चाहिए।
भाजपा सरकार हिंदी के पक्ष में बहुत बड़ी-बड़ी बातें करती है, पर उसने हिंदी को ज्ञान की भाषा बनाने की दिशा में एक भी उल्लेखनीय संस्थागत प्रयास नहीं किया। यह सरकार चाहती तो बिना किसी अन्य भारतीय भाषा को आहत किये हिंदी भाषी क्षेत्र में ऐसी संस्थाएं खोल सकती थी, जो भारतीय विद्या को पश्चिमी सामाजिक सिद्धांत के वर्चस्व से मुक्त करने की दीर्घकालीन योजना चला पातीं। हिंदी के अलावा अन्य भारतीय भाषाओं के प्रति भाजपा का रवैया क्या रहा है इसका सबसे बड़ा सबूत गोवा के चुनाव में हुआ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में इस प्रश्न पर हुआ विभाजन है। कोंकणी का हितसाधन करने का दावा करके सत्ता में आई भाजपा सरकार अंग्रेज़ी का हितसाधन करने वाली साबित हुई। न दिल्ली ने हस्तक्षेप किया, न नागपुर ने।
वैश्विक हिंदी सम्मेलन ने अपने घोषणापत्र में एक और मांग की थी कि ‘संघ की राजभाषा को संघ की राष्ट्रभाषा बनाया जाए अर्थात अधिकृत राष्ट्रीय सम्पर्क भाषा तथा राज्यों की राजभाषाओं को राज्यों की राज्यभाषा अर्थात राज्यों की अधिकृत संपर्क-भाषा बनाया जाए।’ पहली नज़र में ही इस मांग का सूत्रीकरण न केवल समस्याग्रस्त था, बल्कि इसमें हमारे भाषाई यथार्थ की उपेक्षा निहित थी। यह मांग राष्ट्रभाषा की तर्ज पर राज्यभाषा नामक एक नयी श्रेणी को जन्म देते हुए उसे सम्पर्क-भाषा का पर्यायवाची बना देती है। ध्यान रखने की बात है कि जैसे ही कोई भाषा किसी राज्य या किसी प्रशासनिक केंद्र की अधिकृत भाषा बनाई जाती है, वैसे ही उसे सीखने-बोलने-लिखने के तर्क बेहद प्रबल हो जाते हैं। यह अलग बात है कि प्रशासन के भाषाई सुसंगतीकरण के लिहाज़ से किसी एक भाषा को मिली यह बढ़तरी दूसरी भाषाओं को किसी न किसी प्रकार हज़म करनी ही पड़ती है लेकिन राजभाषा की हैसियत को कानूनी रूप से बढ़ा कर राज्यभाषा कर देने की सूरत में एक राज्य की सीमा में मौजूद अन्य प्रतियोगी भाषाएं बरतने वालों का धीरज चुक जाने का अंदेशा है।
मसलन, क्या कन्नड़ को कर्नाटक की अधिकृत राज्यभाषा बनाया जा सकता है? अगर ऐसा कर दिया जाएगा तो इस प्रदेश में रहने वाले मराठीभाषियों और कोंकणीभाषियों के विरोध और आंदोलन से कौन निबटेगा? इसी तरह भारत के बड़े राज्यों की सीमाओं के भीतर तेजी से महत्वाकांक्षी हो रही कमतर समझी जाने वाली भाषाओं की दावेदारी इस तरह के ़कदमों से बगावती रूप धारण कर लेगी। उदाहरण के लिए बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में हिंदी के मुकाबले भोजपुरी भाषा की प्रबल दावेदारी से हम सभी वाकिफ हैं। मनोरंजन की दुनिया में भोजपुरी की समांतर संस्कृति पिछले दिनों काफी पनपी है। हमारे हिंदी प्रेम से प्रभावित हो कर यह मांग दबने वाली नहीं है। मेरा तो मानना है कि पूरे देश की बात तो छोड़ ही दीजिये, अगर हिंदी को उत्तर प्रदेश और बिहार की ही राज्यभाषा या अधिकारिक सम्पर्क भाषा घोषित कर दिया गया, तो भोजपुरी, अवधी, ब्रज और मैथिली की तरफ से एक ऐसी आवाज़ उठेगी कि आगे चल कर इन प्रदेशों की हिंदीभाषी प्रदेश कह पाना भी मुश्किल हो जाएगा।
अब आइए पूरे देश पर। क्या हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाया जा सकता है? इस प्रश्न का उत्तर देने से पहले इस सवाल का जवाब देना चाहिए कि क्या भारत की राष्ट्रभाषा नामक विशुद्ध रूप से युरोपीय श्रेणी की आवश्यकता है? संविधान ने किसी भी भाषा को भारत की राष्ट्रभाषा घोषित करने से इंकार करते हुए एक अनुसूची बनाई थी जिसमें शामिल सभी भाषाओं को वे लोग इस देश की राष्ट्रभाषाओं की तरह ग्रहण कर सकते हैं जिनका काम इस श्रेणी के बिना नहीं चल पा रहा है। बजाये इसके कि हम ऐसा कोई कदम उठाएं, हमें भारतीय भाषाओं के बीच अक्सर होने वाले संघर्ष को और तीखा करने वाली मांगों से बचते हुए अपना ध्यान दूसरे मोर्चे पर लगाना चाहिए। भारतीय भाषाओं के समर्थकों और अंग्रेज़ी के वर्चस्व के आलोचकों को समझना होगा कि वे कम से कम दो गलतियां न करें। पहली, वे स्थानीय भाषाओं को शिक्षा का माध्यम बनाने की अपनी मांग को केवल प्राथमिक स्तर तक सीमित न रखें। और दूसरी, वे किसी भी कीमत पर हिंदी को युरोप के तज़र् पर राष्ट्रभाषा के रूप में न देखें। वरना, वे कभी भी अंग्रेज़ी के वर्चस्व का म़ुकाबला नहीं कर पाएंगे।
लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।