पंजाब यूनिवर्सिटी संबंधी फैसले पर पुनर्विचार करे केन्द्र सरकार
केन्द्र में श्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार भी केन्द्र की तत्कालीन कांग्रेस सरकारों के मार्ग पर चल पड़ी है। केन्द्र में रही कांग्रेस सरकार ने पंजाब के पुनर्गठन के समय 1966 में पंजाबी भाषी क्षेत्र नये पंजाब प्रदेश में शामिल नहीं किए थे। चंडीगढ़ जो पंजाब की राजधानी के रूप में पंजाबी भाषी गांव उजाड़ कर बसाया गया था, उसे पंजाब और हरियाणा दोनों की संयुक्त राजधानी बना कर अस्थायी रूप से केन्द्र-शासित क्षेत्र बना दिया गया, परन्तु बाद में पंजाबियों द्वारा कई बार आन्दोलन करने और दर्शन सिंह फेरूमान के आमरण अनशन के दौरान शहीद होने के बावजूद अधूरे पंजाबी सूबा को पूर्ण नहीं किया गया। नदियों के पानी के विभाजन संबंधी पंजाब पर जबरन फैसले थोपे गए।
अब इसी मार्ग पर चलते हुए भाजपा के नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार एक-एक करके पंजाब के अधिकारों का हनन करते जा रही है। इसने पहले चंडीगढ़ में हरियाणा को नई विधानसभा बनाने के लिए स्थान देने की घोषणा की। फिर भाखड़ा-ब्यास प्रबन्धक बोर्ड से पंजाब का प्रतिनिधित्व कम करके, फिर बांध सुरक्षा कानून पारित करके भाखड़ा और नंगल हैडवर्क्स का नियन्त्रण अपने हाथ में ले लिया। इससे भी शायद केन्द्र सरकार की तसल्ली नहीं हुई थी। इस संबंध में और आगे बढ़ते हुए केन्द्र सरकार ने पंजाब यूनिवर्सिटी चंडीगढ़ का प्रशासन चलाने वाली लोकतांत्रिक संस्थाओं सीनेट एवं सिंडीकेट को भंग करके इन संस्थाओं का नए सिरे से पुनर्गठन कर दिया है। 91 सदस्य सीनेट अब 31 सदस्यीय कर दिया गया है। इसके 24 सदस्य चुने जाएंगे, जिनमें से 4 यूनिवर्सिटी के प्रोफैसरों में से, 4 चंडीगढ़ और पंजाब के यूनिवर्सिटी से संबंधित कालेजों के प्रिंसीपलों से और 6 पंजाब और चंडीगढ़ यूनिवर्सिटी के अध्यापकों में से चुनाव द्वारा चुने जाएंगे। 2 पंजाब के विधायक सदस्य होंगे परन्तु उनकी योग्यता ग्रेजुएट स्तर की होगी। इनका चयन पंजाब के स्पीकर करेंगे। 8 सदस्य वाइस चांसलर नियुक्त करेंगे। 7 सदस्य अपने पदों के कारण सीनेट के सदस्य होंगे, जिनमें पंजाब के मुख्यमंत्री, पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश, शिक्षा मंत्री पंजाब, चंडीगढ़ के प्रशासक के सलाहकार, सचिव उच्च शिक्षा पंजाब, सचिव उच्च शिक्षा चंडीगढ़ और चंडीगढ़ के सांसद शामिल होंगे। सीनेट के जो पहले 15 सदस्य यूनिवर्सिटी के ग्रेजुएटों में से चुने जाते थे, वह व्यवस्था खत्म कर दी गई है। यूनिवर्सिटी की सीनेट के बाद दूसरी संस्था जिसे कार्यकारिणी कह सकते हैं, उसके सभी सदस्य पहले जो सीनेट में से चुने जाते थे, वे सभी अब वाइस चांसलर द्वारा नियुक्त किए जाएंगे, चाहे वे सीनेट के सदस्य भी न हों।
केन्द्र सरकार ने सीनेट और सिंडीकेट का यह पुनर्गठन यूनिवर्सिटी के प्रशासन में सुधार और पारदर्शिता लाने के नाम के तहत किया है। इसका वास्तविक उद्देश्य यूनिवर्सिटी में पंजाब का प्रतिनिधित्व कम करके यूनिवर्सिटी का नियंत्रण अपने हाथ में लेना है ताकि प्रत्येक अकादमिक और प्रशासनिक पक्ष से केन्द्र अपना एजेंडा लागू कर सके और चंडीगढ़ से पंजाब को स्थायी रूप से बेदखल करने के क्रियान्वयन को इस ढंग से और आगे बढ़ाया जा सके। यह नि:संदेह पंजाब के साथ बहुत बड़ा धक्का है।
परन्तु इसके लिए पंजाब की सरकारें भी ज़िम्मेदार हैं। उन्होंने विगत लम्बी अवधि में यूनिवर्सिटी को अपने हिस्से के फंड समय पर उपलब्ध करने और इसके कामकाज को सुचारू बनाए रखने के लिए कोई ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाई थी। एक समय मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने तो इसे केन्द्रीय यूनिवर्सिटी बनाने के लिए केन्द्र को पत्र भी लिख दिया था परन्तु बाद में विरोध होने के कारण वह पत्र वापस लेना पड़ा था। पंजाब की प्रदेश सरकारों ने प्रदेश में मुफ्तखोरी आधारित योजनाएं लागू करके लोगों की वोटें तो ले लीं परन्तु अपने शैक्षणिक संस्थानों से आंखें फेर करके उन्हें भगवान के सहारे छोड़ दिया। इन नीतियों के कारण भी यह यूनिवर्सिटी केन्द्र को अपने हाथ में लेने का बहाना मिला है, परन्तु केन्द्र सरकार के इस कदम का पंजाब में तीव्र विरोध हुआ है। भाजपा को छोड़ कर सभी राजनीतिक पार्टियों ने इसकी निंदा करते हुए यूनिवर्सिटी से संबंधित नई अधिसूचना वापस लेने की मांग की है। यूनिवर्सिटी के विद्यार्थी भी आन्दोलन पर उतर आए हैं।
भाजपा की केन्द्र सरकार की पंजाब के प्रति भेदभाव वाली कुछ पिछली नीतियों के कारण प्रदेश के लोगों में पहले ही रोष पाया जा रहा है। यूनिवर्सिटी संबंधी सरकार के नए फैसले से इस पक्ष से रोष और बढ़ेगा। हमारी केन्द्र सरकार को अपील है कि वह अपना यह एकतरफा फैसला वापस ले और यूनिवर्सिटी का पहले वाला प्रशासनिक ढांचा ही पुन: बहाल करे। यूनिवर्सिटी के कामकाज में सुधार लाने के लिए पंजाब का प्रतिनिधित्व कम करने के स्थान पर इसे विश्वास में लेने के लिए पहले करे।

