एक और सवालिया निशान बन कर जीने की मजबूरी
अपने देश की आबादी रिकार्ड तोड़ कर दुनिया के सबसे बड़े देश की आबादी हो गई है। एक सौ बयालीस करोड़ लोगों की यह आबादी किसी भी देश के लिए बहुत बड़ी शक्ति हो सकती थी। वह भी तब जब कि उसमें से आधी आबादी दुनिया की युवा शक्ति हो। काम करने के लिए छटपटाते हुए युवकों की आबादी। ये नौजवान किसी भी देश के लिए बहुत बड़ी ताकत हो सकते हैं, जबकि उसके पड़ोसी देशों की आबादी बूढ़े लोगों की आबादी हो। उन देशों में बूढ़े अधिक और जवान कम क्यों हो गये? क्योंकि अर्थ-शास्त्री प्रोफैसर मालथन्स के एक वचन का पालन करते हुए उन्होेंन नये बच्चे को जन्म देने के स्थान पर एक कार प्राप्त करने को अधिमान दिया। ‘हम एक हमारा एक’ का नारा लगाया। सो बन्धुओ, वहां कारें बढ़ गईं। प्रजनन दर कम हो गई। अर्थात बच्चों के स्थान पर बूढ़ों की खांसी की आवाज़ तीव्र हो गई, जिसे वे सब ‘हम एक हमारा एक’ की जगह कम से कम तीन बच्चे पैदा करने पर बोनस देने के ऐलान के साथ खत्म करने का प्रयास कर रहे हैं।
चलिये, वहां यह प्रयास तो किया जा रहा है, लेकिन अपने देश की दिक्कत यह है कि यहां कोई प्रयास ही नहीं किया जाता बल्कि यहां तो प्रयास करने की सार्थकता ही एक सवालिया निशान बन कर रह गई है। एशिया के लोगों की आदतों का एक सर्वेक्षण किया गया है, तो पाते हैं, यहां नारा तो ‘आराम हराम है’ का लगाया जाता है, परन्तु काम की जगह अनुकम्पा केन्द्रों के बाहर कतार लगाने को अधिमान दिया जाता है। दुनिया के हमारे सबसे बड़े लोकतंत्र में अक्सर चुनाव सम्पन्न होते रहते हैं। बड़े शांतिपूर्ण ढंग से होते हैं ये चुनाव लेकिन चुनाव लड़ने वाले राजनीतिक दलों के चुनावी एजेंडों की प्रतियोगिता मुफ्तखोरी की घोषणाओं से भरी रहती हैं। होना यह चाहिए था कि दुनिया में सबसे तेज़ आर्थिक विकास दर घोषित करने वाला यह देश निर्माण घोषणाओं के साथ अपने चुनावी एजेंडों को सामने लाता, लेकिन यहां तो ये एजेंडे मुफ्तखोरी की घोषणाओं से भरे रहते हैं। कोई आपको पिछड़ा होने पर बैंकों में पन्द्रह लाख लाने और कोई दस हज़ार रुपये तक देने की घोषणा करता है, और कई मुफ्त सेवाएं देने की प्रतियोगिता करता है। यहां वोटरों को यह बहुत पसन्द आता है, और चुनाव-दर-चुनाव सबसे बड़ा वायदा करने वाला ही कुर्सी पर बैठा नज़र आता है। एक मेहनती देश से यह देश एक नारेबाज़ देश बन गया है। यह देश सफलता के मिथ्या आंकड़ों पर पलता है, और मिथ्या भ्रमों का उत्सव मनाते हुए बहुत खुशी देता है। कदम-कदम पर ऐसी विसंगितयों पर सवाल उभरते रहते हैं, लेकिन यहां सवालों के जवाब देने या तलाश करने का चलन नहीं है, बल्कि इसके स्थान पर एक और नारा परोस दिया जाता है और फिर इसकी उस सफलता का उत्सव मनाते हुए हमें बहुत खुशी अनुभव होती है, कि जिसकी तासीर देश के चन्द ऊंचे प्रासादों तक आकर अटक गई है। फुटपाथों पर जीते या अपने रोटी-पानी का वसीला करते करोड़ों लोग इस विडम्बना पर एक सवाल बन सकते हैं, लेकिन वह एक ऊंचा जयघोष बन कर रह जाते हैं। वे कोई सवाल न उठायें, इसलिए नियमित रूप से उन्हें उत्सव परोस दिये जाते हैं। देश में कार्य संस्कृति नशे के अवैध अंधकूपों में कैद नज़र आती है, और एक कथित उदार संस्कृति का जन्म हो चुका है जो मुफ्तखोरी की हर नई घोषणा पर उत्सव के आह्लाद में घोषणा करने वाले महानुभावों के लिए वोटों की बारात सजा देती है, और उनकी कुर्सियां उनके लिए पीढ़ी-दर-पीढ़ी सुरक्षित कर देती है। ऐसा क्यों होता है? इस पर कोई सवाल नहीं उठते, जबकि यहां बढ़ती आबादी के हर आदामी को एक सवाल हो जाना चाहिए था। शायद सवाल उठते होंगे, लेकिन भ्रमित सफलता का उत्सव मनाने के शोर-शराबे में वे सब गायब होते नज़र आते हैं।
यहां क्रांति के साये में यथास्थितिवाद क्यों चलता है? क्यों कोई नहीं पूछता बल्कि इन सवालों पर शार्टकट की संस्कृति हावी होती नज़र आती है। लोग सवालिया निशान नहीं बने, बाज़ीगर हो गए हैं। वे बाज़ीगर जो हथेली पर सरसों जमाने का आश्चर्यजनक धंधा करते हैं। ‘आया राम गया राम’ के सीढ़ीवाद के साथ देखते ही देखते रंक से राजा बन जाते हैं, और करोड़ों लोगों को फटीचर हो जीने की आदत दे देते हैं। इस आदत को भाग्यवाद की इबारत पक्का करती है, और पूर्व जन्मों के पापों का फल भोगने का आध्यात्मिक संतोष उन्हें परोस दिया जाता है। परिवारवाद का नारा लगाने के बावजूद उनमें चुनाव-दर-चुनाव वही नेता उनके नाती-पौत्र ही शासन क्यों करते चले जाते हैं? इस पर भी सवाल नहीं उठते बल्कि उनके जयघोष के नारे उभरते हैं।
लोग मजबूर हैं एक सवालिया निशान बन कर जीने के लिए, लेकिन उनकी मजबूरी दिशाहीन हो उस माहौल की शोभायात्रा बन जाती है, जो फिर वही स्वर्ण सिद्धांत दुहराता है, कि ‘यह देश एक बहुत धनी देश है, जहां अधिकतर गरीब बसते हैं।’ ‘जहां जघन्य अपराधों के आरोपों से ज़मानत पर रिहा लोग उनका नेतृत्व करते हैं, और ऐसा क्रांति-नाद करते हैं, जो उनके प्रासाद को एक और मंज़िल भेंट कर देता है। इस तरक्की को समाजवाद का नाम क्यों दे दिया जाता है, सवाल पूछ सकते हो? लेकिन यहां देश को सवालिया निशान बनने की मजबूरी है, जवाब तलाश करने की नहीं।



