क्या शेख हसीना को वापस बांग्लादेश भेजेगा भारत ?
बांग्लादेश की पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना को उनकी अनुपस्थिति में बांग्लादेश के अंतर्राष्ट्रीय अपराध ट्रिब्यूनल ने 17 नवम्बर 2025 को मौत की सज़ा सुनायी। उन पर मुख्य आरोप था कि उन्होंने 2024 के छात्र आंदोलन को कुचलने के लिए घातक हिंसा का प्रयोग किया, जिसमें सैंकड़ों लोगों की जानें गईं। हसीना, जो इस समय भारत में शरण लिए हुए हैं, ने ट्रिब्यूनल को ‘कंगारू कोर्ट’ कहते हुए कहा है कि मुकद्मा शुरू होने से पहले ही यह फैसला तय हो गया था। उनके अनुसार, ट्रिब्यूनल को उनके राजनीतिक विरोधी नियंत्रित किये हुए हैं और अपनी प्रशासनिक नाकामियों से ध्यान भटकाने के लिए यह सब कुछ हो रहा है। दूसरी ओर बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के मुख्य सलाहकार मोहम्मद यूनुस ने इस फैसले का स्वागत करते हुए कहा कि कोई भी कानून से ऊपर नहीं है। उनकी सरकार ने नई दिल्ली से आग्रह किया है कि 78 वर्षीय हसीना को वापस ढाका भेजा जाये। भारत की प्रतिक्रिया इस संदर्भ में सावधानीपूर्वक रही है। नई दिल्ली ने एक वक्तव्य में कहा है कि उसने ट्रिब्यूनल के फैसले का संज्ञान लिया है और करीबी पड़ोसी होने के नाते वह बांग्लादेश के लोगों के हितों के प्रति समर्पित है, जिसमें उसकी शांति, लोकतंत्र व एकजुटता भी शामिल है। इस सिलसिले में भारत हमेशा सभी स्टेकहोल्डर्स से रचनात्मक संपर्क में रहेगा।
बहरहाल, लाख टके का सवाल यह है कि क्या भारत हसीना को वापस बांग्लादेश भेजेगा? प्रबल संभावना यही है कि हसीना को ढाका को नहीं सौंपा जायेगा। यह अनुमान अकारण नहीं। नई दिल्ली ने हसीना के प्रत्यर्पण की मांग प्राप्त होना तो स्वीकार किया है, लेकिन इस बारे में वह क्या करेगी, इसका कोई संकेत नहीं दिया है। पिछले साल दिसम्बर से उसकी स्थिति यही रही है, जब ढाका ने आधिकारिक तौर पर हसीना के प्रत्यर्पण की मांग की थी। अब जब हसीना को नाटकीय अंदाज़ में मौत की सज़ा सुना दी गई है, तो भी भारत की पोजीशन में कोई बदलाव नहीं आया है और जल्दबाज़ी में वह कोई निर्णय नहीं लेने जा रहा है क्योंकि हसीना के कारण उसके बांग्लादेश से रिश्ते हमेशा ही अच्छे रहे हैं। यहां यह बताना भी आवश्यक है कि नई दिल्ली की ढाका के साथ जो 2013 की प्रत्यर्पण संधि है, वह भी हसीना को किसी भी राजनीतिक साज़िश से सुरक्षाकवच प्रदान करती है। संधि का अनुच्छेद 9 कहता है कि अपराध अगर सियासी पहलू का है, तो प्रत्यर्पण से इंकार किया जा सकता है। हालांकि ढाका यह तर्क दे सकता है कि इस अनुच्छेद में हत्या को राजनीतिक अपराध में शामिल नहीं किया गया है, लेकिन अनुच्छेद 8 में यह कहा गया है कि अगर संबंधित व्यक्ति उस राज्य को, जिससे प्रत्यर्पण की मांग की गई है, यह समझाने में सफल हो जाता है कि उसके खिलाफ आरोप ‘न्याय हित’ में अच्छी भावना से नहीं थे, तो भी प्रत्यर्पण से इंकार किया जा सकता है।
संक्षेप में बात इतनी सी है कि हसीना का प्रत्यर्पण जटिल व लम्बी प्रक्रिया है और मृत्युदंड ने इसकी जटिलता में अतिरिक्त इज़ाफा किया है। भारत के लिए इसमें दोनों कानूनी व भू-राजनीतिक पहलू भी हैं। हसीना भारत की अच्छी दोस्त रही हैं, जिन्होंने न सिर्फ उसके आर्थिक व सुरक्षा हितों में सहयोग किया है बल्कि अतिवादी तत्वों को भी नियंत्रण में रखा था। ऐसी दोस्त को, ज़रूरत के समय अकेला छोड़ना भारत की अंतर्राष्ट्रीय साख के लिए अच्छा नहीं होगा। हसीना को बेसहारा करने का अर्थ होगा उनकी पार्टी आवामी लीग को निरुत्साह करना, जिस पर आगामी फरवरी के राष्ट्रीय चुनाव में हिस्सा लेने पर प्रतिबंध है और साथ ही बांग्लादेश में भारत-विरोधी अतिवादी तत्वों में ऊर्जा भरना। ध्यान रहे कि ़गैर-चुनी हुई अंतरिम सरकार ने भारत की चिंताओं को दूर करने और अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के लिए कुछ भी नहीं किया है। भारत के लिए यह भी चिंता का विषय है कि ढाका फिर से पाकिस्तान के साथ संबंध बेहतर करने के प्रयास में लगा हुआ है। कहने का अर्थ यह है कि बदले की भावना के चलते हसीना को कानूनी नाटक से सज़ा-ए-मौत दी गई है और ढाका अब नई दिल्ली के लिए मुख्य सुरक्षा चिंता है।
हसीना को यह विरोधाभास शायद पसंद न आये कि 2010 में उन्होंने जिस ट्रिब्यूनल को स्थापित किया था पाकिस्तानी युद्ध अपराधियों व उनके बंगाली साथियों के ट्रायल के लिए (जिन पर बांग्लादेश के 1971 के स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान नरसंहार का आरोप था) उसने ही अंतरिम सरकार के दबाव में उनके खिलाफ मौत की सज़ा सुनायी है। 1971 के दौरान 3 मिलियन लोगों की हत्या हुई थी व लगभग 2,50,000 महिलाओं के साथ दुष्कर्म हुआ था। इनके दोषियों को सज़ा दिलाने की बांग्लादेश की सिविल सोसाइटी लम्बे समय से मांग कर रही थी, जिसे स्वीकार करते हुए हसीना ने इस ट्रिब्यूनल की स्थापना की थी, जिसने जमात-ए-इस्लामी के अनेक युद्ध अपराधियों को मृत्युदंड दिया था। इसलिए इस ट्रिब्यूनल द्वारा हसीना को पिछले साल के छात्र आंदोलन में हुई मौतों के लिए मृत्युदंड देना कानूनन उचित प्रतीत नहीं होता है। उनका ट्रायल बदले की भावना अधिक लग रहा है। जिन लोगों ने हसीना पर मुकदमा चलाया उन्हें, ज़ाहिर है, कुछ हिसाब तो चुकता करना था। यह लोग धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों जैसे शहरयार कबीर के पीछे भी पड़े हुए हैं, जो हिरासत में हैं और उनसे संपर्क वर्जित है। साथ ही हसीना और उनके तत्कालीन गृहमंत्री असदुज्ज़मान खान पर सुपीरियर कमांड ज़िम्मेदारी और 12 छात्र प्रदर्शनकारियों की मौत के भी आरोप थे।
लेकिन इस केस में मुख्य गवाह बांग्लादेश के पूर्व इंस्पेक्टर जनरल ऑ़फ पुलिस हैं, जो हिरासत में हैं और सरकारी गवाह बन गये हैं। अत: हसीना विरोधी बलों की निगरानी में की गई पूरी कानूनी प्रक्रिया संदिग्ध है, जिस पर भरोसा नहीं किया जा सकता। शेख मुजीबुर्रहमान का धर्मनिरपेक्ष बांग्लादेश मुस्लिम कट्टरपंथ के गड्ढे में गिरता हुआ नज़र आ रहा है और हसीना उसके स्पष्ट निशाने पर हैं। गंभीर खतरा इस आशंका को लेकर भी है कि आईएसआई के समर्थन से भारत-विरोधी तत्व बांग्लादेश में एकजुट हो रहे हैं- जिसे हसीना ने रोके हुए था। इसलिए यह आश्चर्य नहीं है कि ढाका का वर्तमान शासन भारत की सुरक्षा चिंताओं को लेकर उदासीन है। वह नई दिल्ली का विरोध करने के लिए अपना आर्थिक नुकसान करने के लिए भी तैयार है। इस सबके कारण बांग्लादेश भारत के लिए पूरब में खतरनाक पट्टी हो जाता है।
पाकिस्तान पहले से ही निरंतर सुरक्षा खतरा है और इसमें बांग्लादेश का जुड़ जाना हमारी सुरक्षा एजेंसीज के काम को अतिरिक्त कठिन बना देता है लेकिन समस्या स्वयं बांग्लादेश के लिए भी है। जिस तरह से बांग्लादेश के छात्र, धर्मनिरपेक्ष वर्ग व सिविल सोसाइटी धार्मिक कट्टरपंथियों, जिन्हें अंतरिम सरकार का समर्थन प्राप्त है, का ज़बरदस्त विरोध कर रहे हैं उससे बांग्लादेश में गृह युद्ध की आशंका बढ़ती जा रही है। आवामी लीग का दमन भी आग में घी का काम कर रहा है। इस आशंका को दूर करने के लिए यूनुस की प्राथमिकता बांग्लादेश में निष्पक्ष चुनाव कराने की होनी चाहिए ताकि ढाका में लोकप्रिय सरकार का गठन हो सके, न कि पाकिस्तान के कट्टरपंथी जनरल आसिम मुनीर से दोस्ती करने की।
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