लोकप्रियता के साथ फार्मूला के भी मास्टर हैं नितीश कुमार

चुनावी पंडितों की तमाम नकारात्मक भविष्यवाणियों के बावजूद आखिरकार नितीश कुमार बिहार के10वीं बार मुख्यमंत्री बन गये। इसी के साथ ही उन्होंने संख्या के हिसाब से देश में किसी भी प्रांत के सबसे ज्यादा बार मुख्यमंत्री बनने का रिकॉर्ड  भी  बना दिया, लेकिन ज्यादा समय तक, दिनों के हिसाब से मुख्यमंत्री रहने का रिकॉर्ड सिक्किम के मुख्यमंत्री रहे पवन कुमार चामलिंग का है । वह 24 साल 165 दिनों तक सिक्किम के मुख्यमंत्री रहे हैं। लेकिन नितीश के सब्से ज्यादा बार मुख्यमंत्री रहने का कारण सिर्फ  उनकी लोकप्रियता भर नहीं है, इसमें उनके फार्मूला मास्टर होने का भी योगदान है।
हम फार्मूला फिल्मों का नाम सुनते हैं, जिनमें मारधा?ए संगीत-रोमांस, डायलॉग-लोकेशन,  गाने-नृत्य दर्शकों के लिए परोसा जाता है। ठीक ऐसे ही भारत के लोकतंत्र में भी फार्मूला राजनीति की जाती है यानी धन की सत्ता,  बाहुबलियों का बोलबाला, पहचान के अनेकानेक कारक (जाति, धर्म, क्षेत्र,भाषा का भावनात्मक इस्तेमाल),  रेवड़ी (कज़र्माफी, अनाज, बिजली, पानी, बस यात्रा मुफ्त प्रदान करना), लोकलुभावन वादे और देशभक्ति के नज़ारे तथा भड़काऊ, उकसाऊ, चटकाऊ भाषण इन सभी को अपने अपने तरीके से पेश कर पार्टी और चुनावी उम्मीदवार मतदाताओं को लुभाते हैं। कहा जाता है की ‘एवरीथिंग इज़ फेयर इन लव एंड वार’ तो अब इस उक्ति में इलेक्टोरल पॉलिटिक्स यानी चुनावी राजनीति को भी जोड़ लिया जाना चाहिए।
लगता है वर्तमान में भारत की चुनावी राजनीति का फार्मूला अब  एक नए काल से गुज़र रहा है। भारतीय लोकतंत्र की  चुनावी यात्रा के अब तक के सफर में अब पुराने प्रचलनों के बदले अब नए प्रचलन स्थापित हो रहे हैं। पहले  पिछड़ी, दलित, अगड़ी और अल्पसंख्यक मुस्लिम के आधार पर पार्टियां  मतदाताओं का जो वृहद् और जाति विशेष के आधार पर सूक्ष्म समीकरण तैयार करती थीं, अब वह वर्गीकरण दरकना शुरू हो चुका है। अब मुख्य रूप से तीन राजनीतिक वर्ग  रेखांकित हो रहे हैं, ये हैं किसान, युवा और महिला। इसमें सबसे प्रमुख राजनीतिक वर्ग महिला का बना है, क्योंकि संख्या के हिसाब से यह आधी आबादी है। इसी आधी आबादी के आर्थिक भावनात्मक हितों की दुहाई अब भारतीय लोकतांत्रिक चुनाव का सबसे बड़ा हॉट केक बना है। यह समूह अपने  परिवार के मत से अब विलग होकर स्वतंत्र मत रख रहा है। ये बात अभी अभी संपन्न हुए बिहार विधानसभा चुनाव में ही नहीं बल्कि विगत में हुए हरियाणा, महाराष्ट्र, झारखण्ड, दिल्ली के विधानसभा चुनाव में खुलकर ज़ाहिर हुई है। इस नए जेंडर पहचान की राजनीती पर मुलम्मा चढ़ा है खज़ाने का। यानी मुफ्त की रेवड़ी का प्रचलन पहले तो किसानो की कज़र् माफी, बिजली माफी के रूप में दिखता था। 
गौरतलब है की महिलाओं के लिए धन स्थानान्तरण के इस राजनीतिक आईडिया को कई जगह योजना का रूप दिया  गया जैसे मध्य प्रदेश में  ‘लाडली बहिना योजना’, कहीं ‘धनलक्ष्मी योजना’ तो कहीं ‘महिला आजीविका योजना’ के रूप में ये दृष्टिगोचर हुआ। इस क्रम में हरियाणा की सैनी सरकार, महाराष्ट्र की शिंदे सरकार और झारखण्ड की हेमंत सोरेन सरकार ने पिछले विधानसभा चुनाव के बिल्कुल पहले महिलाओं के आर्थिक हितों को समुन्नत करने की इन घोषणाओं को योजनाओं में अंजाम दिया। इसका परिणाम यह हुआ की इन तीनो प्रदेशों में सत्तारूढ़ सरकारें पुन: विजयी हो गयीं। यही  प्रयोग बिहार की सत्तारूढ़ सरकार ने भी प्रदेश की 75 लाख महिलाओं को दस हज़ार की एकमुश्त आजीवका कमाई की राशि के रूप में स्थानांतरित कर किया है । 
कुल मिलाकर ‘मुफ्त की रेवड़ी’ भारतीय लोकतंत्र की चुनावी राजनीती का अभी सबसे बड़ा फार्मूला बनकर उभरा है। बताया जाता है की बिहार सरकार को महिला आजीविका के एवज में कुल 40000 करोड़ की राशि स्थानांतरित करनी पड़ी है। बताते चलें  देश के कुछ ही राज्य ऐसे हैं  जिनके घरेलू राजस्व कमाई की हिस्सेदारी उनके कुल बजट में दो तिहाई से ज्यादा है जिसमे तमिलनाडु, गुजरात, महाराष्ट्र, ओडिशा और छत्तीसगढ़ जैसे राज्य शामिल हैं, परन्तु बिहार जैसे राज्य में जो शराबंदी की वजह से पहले से ही करीब 5 से 10 हज़ार करोड़ सालाना राजस्व का नुकसान उठा रहा है  और उसकी अभी अपनी राजस्व आमदनी उसके कुल बजट का सिर्फ 40 फीसदी है, जाहिर है उसे मुफ्तखोरी की मार  ज्यादा झेलनी पड़ेगी। 
सैद्धांतिक रूप से जिस तरह से भारत में अलग अलग चुनावों के लिए प्रचार खर्च की सीमा इसलिए तय की गयी जिससे की चुनाव में धनसत्ता का असर नियंत्रित हो, चार्जशीटेड और चार्ज फ्रेम्ड चुनावी उम्मीदवारों की उम्मीदवारी प्रतिबंधित की गई जिससे चुनाव में बाहुबल सत्ता का असर खत्म हो। इसी तरह जातीय रैली, सांप्रदायिक रैली और अन्य पहचान कारकों को प्रतिबंधित करने हेतु देश के न्यायालयों के भी कई बार फैसले आये। इसी तरह  भड़काऊ और सामुदायिक अपील वाले भाषणों की रोकथाम के लिए जन प्रतिनिधित्व कानून 1952 अमल में है। इसी तरह चुनाव में जन-लुभावनवाद और रेवड़ी संस्कृति पर भी दो वर्ष पूर्व सुप्रीम कोर्ट, चुनाव आयोग और स्वयं प्रधानमंत्री की तरफ से राजनीतिक दलों के घोषणा पत्रों की एक लक्ष्मण रेखा तय किये जाने की पुरज़ोर वकालत की गई थी, परन्तु प्रतियोगी चुनावी व्यवस्था में कोई भी दल इस पर अभी तक उसी तरह से क्रियान्वयन नहीं कर पाए जैसे ‘एक राष्ट्र-एक चुनाव’ पर वे नहीं कर पाए। यदि बिहार की बात करें तो सत्तारूढ़ दल ने अपनी घोषणा पर 40 हज़ार करोड़ रुपये खर्च किए तो दूसरी तरफ महागठबंधन ने तो प्रदेश में हर घर में एक सरकारी नौकरी देने की असंभव सरीखी घोषणा कर दी थी। 
 ठीक है कि एक जन-कल्याणकारी शासन का सिद्धांत यह कहता है की ज्यादा आय और संपत्ति वालों  से टैक्स के रूप में राशि वसूलकर वंचित समूह को स्थानांतरित की जाये,  परन्तु इस महान सिद्धांत पर  एक सुव्यस्थित और सुविचारित रास्ता तो संविधान, विधान, सरकार और सिस्टम की तरफ से ज़रूर निर्धारित किया जाना चाहिए जिससे कोई राजनीतिक अराजकता की स्थिति नहीं पनपे। हालांकि बिहार का चुनावी परिणाम केवल रेवड़ी का खेल था, ऐसा नहीं कहा जा सकता बल्कि नितीश के नेतृत्व वाले राजग का भरोसा भी लोगों पर सिर चढ़ कर बोल रहा था जिस तथ्य को सभी राजनीतिक पंडितों को स्वीकार करना पड़ा।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर   

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