बहुत धीमी गति से चल रहा मतदाता सूचियों के संशोधन का कार्य

मतदाता सूचियों के विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) का दूसरा चरण मुश्किलों का सामना कर रहा दिख रहा है। ऐसा विपक्षी पार्टियों की राज्य सरकारों के कारण नहीं हो रहा है, बल्कि कई ऐसे कारण दिखने लगे हैं, जो बिहार में नहीं दिखे थे। जैसे बिहार में कहीं से यह खबर नहीं आई कि अत्यधिक काम के दबाव में बूथ लेवल ऑफिसर (बीएलओ)ने खुदकुशी कर ली या नाम कटने के डर से किसी मतदाता ने आत्महत्या कर ली या कोई घर छोड़ कर गायब हो गया। लेकिन दूसरे चरण में जिन राज्यों में एसआईआर हो रहा है, वहां से ये सारी खबरें आ रही हैं। अभी तक अलग-अलग राज्यों में 28 बीएलओ की जान जा चुकी है। इसके अलावा 25 से ज्यादा लोगों की मौत नाम कटने के डर से हो जाने की खबर है। सबसे ज्यादा पांच-पांच बीएलओ की मौत गुजरात और मध्य प्रदेश में हुई है। पश्चिम बंगाल में चार बीएलओ की मौत हुई है जिनमें से दो ने खुदकुशी की है। वहां एक बीएलओ लापता है। काम के ज्यादा दबाव की वजह से ये मौतें हो रही हैं। इसके बावजूद मतगणना प्रपत्र जमा होने की रफ्तार उम्मीद से बहुत कम है। एसआईआर शुरू होने के 25 दिन बाद केरल मे सिर्फ  साढ़े 20 फीसदी मतगणना प्रपत्र ही अपलोड हो पाए हैं। उत्तर प्रदेश में सिर्फ 22 फीसदी, छत्तीसगढ़ में 34 और तमिलनाडु में 35 फीसदी प्रपत्र ही अपलोड हो पाए हैं। राजस्थान में लगभग 50 फीसदी प्रपत्र अपलोड हुए हैं। अगले पांच दिन में यह आंकड़ा सौ फीसदी तक कैसे पहुंचेगा?
बंगाल के राज्यपाल का विवाद सबसे अलग
जब से केंद्र भाजपा की सरकार बनी है तब से उसके द्वारा नियुक्त राज्यपालों का राज्य की विपक्षी पार्टियों वाली सरकारों से लगातार टकराव चलता रहता है। अलग-अलग राज्यों में कई तरह के विवाद हुए। आमतौर पर सारे विवाद संवैधानिक और प्रशासनिक मुद्दों को लेकर रहे। जैसे राज्यपाल ने विधेयक रोक दिए या कानून व्यवस्था का जायज़ा लेने पहुंच गए या सरकार के कामकाज में अनावश्यक दखल दिया। पश्चिम बंगाल के पिछले राज्यपाल जगदीप धनखड़ के साथ तो ममता बनर्जी की सरकार का टकराव अलग ही स्तर पर था। मगर धनखड़ की जगह राज्यपाल बन कर आए सी.वी. आनंदा बोस का राज्य सरकार के साथ विवाद सबसे अलग है। संवैधानिक मुद्दों की बजाय उनका विवाद निजी है। यह संभवत: पहली बार हुआ है, जब एक राज्यपाल ने सत्तारूढ़ दल के सांसद के खिलाफ मानहानि का मुकद्दमा दर्ज कराया है। राज्यपाल बोस ने तृणमूल कांग्रेस के सांसद कल्याण बनर्जी के खिलाफ मुकद्दमा किया है क्योंकि कल्याण बनर्जी ने आरोप लगाया था कि राजभवन में हथियार इकट्ठा किए जा रहे हैं। इसके बाद राज्यपाल ने पुलिस बुला कर राजभवन की तलाशी कराई और उसके बाद मुकद्दमा दर्ज कराया। राजभवन की तलाशी भी संभवत: पहली बार ही हुई। इससे पहले राज्यपाल सी.वी. आनंदा बोस पर राजभवन की महिला कर्मचारी ने यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया था और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी उस महिला कर्मचारी के समर्थन में उतर गई थीं। पुलिस को मुकद्दमा दर्ज करने का आदेश दिया गया था। अगले साल चुनाव तक यह विवाद और बढ़ता रहेगा।
धनखड़ के सूत्र वाक्यों का क्या मतलब?
पूर्व उप राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ पद से इस्तीफा देने के चार महीने के बाद सार्वजनिक मंच से बोले हैं। उन्होंने भोपाल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारक मनमोहन वैद्य की किताब ‘हम और यह विश्व’ का विमोचन किया। लेकिन इस मौके पर उनका पूरा भाषण सूत्रों में रहा। वे सिर्फ सूत्र वाक्य बोल रहे थे। उनका भाषण आधे घंटे से ज्यादा का था और जब उनके सहयोगियों ने उनको फ्लाइट टाइमिंग की याद दिलाई तो उन्होंने कहा कि वह फ्लाइट की वजह से कर्त्तव्य से मुंह नहीं मोड़ सकते यानी वह भाषण देने को कर्त्तव्य मान रहे थे। यह कर्त्तव्य उन्होंने सूत्रों में निभाया। अब सवाल है कि उनके सूत्र वाक्यों को कैसे डिकोड किया जाएगा और कौन करेगा? क्या वह खुद किसी समय इन सूत्रों को डिकोड करेंगे? उन्होंने कहा कि आखिरकार चार महीने बाद बोलने का मौका मिला है लेकिन ‘गला अभी पूरी तरह खुला नहीं है।’ गला पूरी तरह से नहीं खुलने वाली बात बहुत खास है। उन्हें मौका क्यों नहीं मिल रहा था और गला पूरी तरह क्यों नहीं खुला, यह सवाल भी अहम है। इसी तरह उन्होंने कहा कि ‘देश ऐसे दौर में है, जहां धारणा और नैरेटिव सच तय करते हैं, भगवान करे कोई नैरेटिव में न फंसे।’ देश में क्या नैरेटिव बनाया जा रहा है और क्या सच है, यह बहुत अहम है। वह कब इस बारे में बताएंगे, इस पर सबकी नज़र रहेगी। मीडिया और विपक्ष को उनके अगले भाषण का इंतजार रहेगा, जिसमे वह कुछ सूत्रों को डिकोड कर सकते हैं।
कांग्रेस का एक और दलित अध्यक्ष
राहुल गांधी सचमुच कांग्रेस में ढांचागत बदलाव कर रहे हैं। उन्हें इस बात का एहसास हो गया है कि तात्कालिकता में एक-दो प्रतीकात्मक कदमों से बात नहीं बनेगी। इसलिए वह एक के बाद एक राज्य में दलित और पिछड़ा वर्ग के नेताओं को प्रदेश कांग्रेस की कमान सौंप रहे हैं। कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में मल्लिकार्जुन खड़गे की नियुक्ति के बाद राहुल ने कई राज्यों में दलित या पिछड़ा अध्यक्ष बनवाए हैं। ताज़ा मिसाल हिमाचल प्रदेश की है, जहां राहुल ने विनय कुमार को अध्यक्ष बनवाया है। वह हिमाचल विधानसभा के डिप्टी स्पीकर थे। उनको इस्तीफा दिला कर अध्यक्ष बनाया गया है। वह दलित समुदाय के हैं और पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह पत्नी प्रतिभा सिंह की जगह लेंगे। आमतौर पर हिमाचल प्रदेश में राजपूत या ब्राह्मण अध्यक्ष बनाने की परम्परा रही है। मुख्यमंत्री भी इन्हीं दोनों समुदायों से बनते हैं। इससे पहले राहुल ने बिहार में भी अगड़ी जाति के नेता अखिलेश प्रसाद सिंह को हटा कर दलित समाज के राजेश राम को अध्यक्ष बनाया। वह दो बार विधानसभा का चुनाव जीत चुके हैं लेकिन इस बार हार गए। इससे पहले राहुल ने झारखंड में अगड़ी जाति के राजेश ठाकुर को हटा कर पिछड़ी जाति के केशव महतो कमलेश को अध्यक्ष बनाया था। हरियाणा में दलित अध्यक्ष उदयभान को हटाया तो यादव समुदाय के राव नरेंद्र को अध्यक्ष बनाया। मध्य प्रदेश में पिछड़ा वर्ग के जीतू पटवारी अध्यक्ष हैं। दिल्ली में भी देवेंद्र यादव को अध्यक्ष बनाया गया है।
अखिलेश यादव की बड़ी ब्रांडिंग 
बिहार में महागठबंधन भले ही हार गया है और तेजस्वी यादव को लेकर कई सवाल उठ रहे हैं, लेकिन उससे अलग समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव की बड़ी और सकारात्मक ब्रांडिंग हो रही है। सोशल मीडिया में राजद का इकोसिस्टम भी अखिलेश की तारीफों के पुल बांध रहा है तो सपा के प्रवक्ता व नेता तो उनका प्रचार कर ही रहे हैं। कहा जा रहा है कि बिहार में उनकी पार्टी को महागठबंधन की ओर से एक भी सीट नहीं दी गई थी फिर भी अखिलेश ने दो दर्जन से ज्यादा रैलियां कीं। वह हेलीकॉप्टर लेकर बिहार के अलग-अलग हिस्सों में प्रचार करने पहुंचे थे। यह भी कहा जा रहा है कि उन्होंने महागठबंधन की एकजुटता बनाए रखने के लिए भी काम किया। विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ ब्लॉक को एकजुट रखने में भी उनकी भूमिका की तारीफ की जा रही है। हरियाणा की याद दिलाई जा रही है, जहां कांग्रेस ने समाजवादी पार्टी को एक भी सीट नहीं दी फिर भी उन्होंने आम आदमी पार्टी की तरह उम्मीदवार उतार कर कांग्रेस को कमज़ोर करने का काम नहीं किया। अब खबर है कि तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन भी अखिलेश के सम्पर्क में हैं। हालांकि आंध्र प्रदेश और तेलंगाना की तरह तमिलनाडु में यादव ज्यादा नही हैं, फिर भी स्टालिन चाहते हैं कि अखिलेश वहां सेकुलर प्रोग्रेसिव अलायंस के लिए प्रचार करे। वहां अगले साल अप्रैल में चुनाव हैं। ऐसा लग रहा है कि विपक्षी गठबंधन के अंदर एक नया नेता बनाने की कोशिश हो रही है।

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