सर्दी में ठिठुरते हुए सपने

यह सवाल काबिलेगौर है कि ठण्ड कहां अधिक लगती है? क्या जेल की कोठरी में या निघाट नंगी सड़क के फुटपाथ पर गूदड़ से लिपटे आदमी को खुले आसमान के नीचे?
जेल की कोठरी में पड़ा वह आदमी भी तो अपनी अदम्य लालसाओं के गूदड़ में लिपटा रातों-रात धन के आसमान को अपने कन्धों पर उठाने चला था। जनता रूपी खुदा ने उसे अपना नेता बना राजदण्ड पकड़ाया था कि वह दीन-विहीन की रक्षा करेगा, पशुओं को नर प्राणियों सी सुरक्षा देगा, न कि नर जनसमुदाय को अपनी आकांक्षाओं की बलि चढ़ा कर उसे सत्तर बरस की इस आज़ादी के बावजूद पशुनत जीने का अभिशाप भेंट कर देगा।
हम केवल एक चारा सम्राट की बात नहीं कर रहे, कि जिन पर आरोप है कि उन्होंने पशुओं के चारे को भी नहीं बख्शा, और इससे अपनी सात पुश्तों के लिए मलाईदार रोटियों का इंतज़ाम कर लिया। लेकिन ऐसे चारा सम्राट केवल एक नहीं। कहीं वह किसान की यूरिया खाद भकोस हरित क्रांति को नावदान में डाल रहे हैं। कहीं वह स्कूलों में बंटने वाले मध्य दिवस भोजन योजना पर इस कद्र हावी हो गये कि आज वह योजना उनके ‘जेब भरो’ अंदाज़ से आतंकित होकर जीने की पनाह मांग रही है।
हम गांव में रहते बेकार गरीब गुरबा के लिए रोज़गार तो क्या वर्ष में सौ दिन के आंशिक रोज़गार की गारंटी भी न बन सके और हमने एक सौ तीस करोड़ की आबादी वाले इस देश में मनरेगा की कल्पना को एक ऐतिहासिक उपलब्धि करार दे दिया। लेकिन यह उपलब्धि तो एक ऐसा पंख कटा परिन्दा साबित हुई, जो अपने जाली रोज़गार कार्डों की कृपा से कृषि की विकास दर के लिए एक ऐसी रसीद टिकट बन गया कि जिसके ऊपर रकम की पावती की जगह एक बड़ा शून्य लिखा था।
इस देश को नारों की राजनीति में से अपने लिए परिणाम के शून्य प्राप्त करने की आदत हो गई है। यह आदत क्रांति के एहसास की लहरों के साथ गरीबी के फुटपाथ तक आती है, और फिर वहीं सिर पटक-पटक पर दम तोड़ देती है।
इस सड़क के साथ-साथ नव-धनाढ्यों के प्रासाद बने हैं, जिनके कंगूरे हर चुनाव परिणाम के बाद और भी ऊंचे होते जाते हैं। इन कंगूरों पर करोड़ों लोगों की उम्मीदों का परिन्दा सर पटक-पटक कर आहत हो जाता है, क्योंकि उसने नेताओं के जुमलों से प्रोत्साहित होकर एक उड़ान भरी थी। जुमले भी इसी शून्य के संगी-साथी होते हैं। बीच रास्ते धोखा दे जाते हैं। देखो, नादान परिन्दों ने मूलुण्डित होते हुए कोई और उड़ान भरने से तौबा कर ली।
उड़ान भरने का काम तो व्यावसायिक घरानों का है, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का है, कार्पोरेट जगत का है, बहु-राष्ट्रीय कम्पनियों की बहुमंज़िल इमारतों का है। वित्त मंत्रियों की बजट घोषणाएं उनके लिए राहत भरे मित्र वचन है, और अध-बीच सड़क पर छूट गई करोड़ों वंचित लोगों की भीड़ इसमें नव-जीवन की उष्मा तलाशती है।
लेकिन वहां उष्मा कहां? वहां तो भयावह सर्दी पड़ रही है। आदमी अपनी गरीबी की गूदड़ में लिपटा हुआ इस सर्दी में ठिठुर रहा है। वह गरीब कल्याण योजनाओं या बजट प्रावधानों में से अपने लिए राहत की तलाश करता है, कि जैसे भूसे के ढेर में से सूई की तलाश करता हो। लेकिन जिन्होंने कल उसका सस्ता आटा दाल खा लिया था, आज वे उसके दुबले पशुओं का चारा ही हड़प कर गये, आने वाले कल के लिए उन्होंने नौजवानों के जीने के लिए कोई सपना नहीं छोड़ा। सपना विहीन होकर जीना कितना कठिन होता है? इसीलिए तो वे सपनों के खण्डित होने से दृष्टिविहीन हो गयी आंखों के साथ नशों के अंधेरे में किसी रौशनी की तलाश करते हैं।
लेकिन रौशनी तो उन राजपुरुषों की बांदी है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी सत्ता की कुर्सी पर अपना हक जमा कर बैठ गये। करोड़ों लोगों को रोटी रोज़गार मिले या न मिले, उन्हें तो अपने इत्र फुलेल से मतलब है। वे इत्र फुलेल का व्यापार करने निकले तो आपने उन्हें घपलेबाज़ कहकर कानून की गिरफ्त में ले लिया? इस गिरफ्तारी के रास्ते में उन्होंने दरियाओं के कितने सैलाब खड़े किये। सबसे पहले तो जांच आयोग के नाम पर ठण्डे बस्ते की चोर गली थी। इससे न बच पाये तो अदालतों में तारीख पर तारीख का स्थगन प्रयास था।
लेकिन बिल्ली की मां कब तक खैर मनाये? नौ सौ चूहे खा कर कैसे हज पर जाये? एक न एक दिन तो कानून का फन्दा कसता है। फिर जेल की कोठरी है, और उसमें कैद होकर भी उससे बच निकलने के मन्सूबे हैं।
न्यायापालिका के प्रांगण में याचक का स्वर गूंजा। ‘माई बाप इस जेल कोठरी में बड़ी ठण्ड पड़ती है। बूढ़ा शरीर है। रोगों से जर्जरित। सहा नहीं जाता। क्या करूं।’
जवाब मिला—‘तबला बजाइए। तबले पर जब आपके सधे हुए हाथों की थाप पड़ेगी, तो उससे आपके लिए भी क्रांति संदेश का कोई जुमला निकलेगा। देखिये ठण्ड भागेगी। सत्ता के सपनों की गर्मी आपको लगती ठण्ड का काल बनेगी।’ लेकिन बीच मैदान में पौन सदी से ठिठके हुए उन नर-कंकालों का क्या होगा, जो न जाने कब से भूख से आक्रान्त हो अपने पेट का तबला बजा रहे हैं? इनके तबले की आवाज़ कोई नहीं सुनता। इसकी लय ताल किसी नये उभरे नेता जी के जय नाद में डूब जाती है। वह जय नाद जो अपने और अपने परिवार के लिए झोंपड़ी  माल प्लाज़ा हो जाने का एक नया सपना लेकर उभरा है।