नौकरी रहित आर्थिक विकास में भारत की युवा पीढ़ी

आंकड़ों का अंक गणित देखें तो इस समय भारत दुनिया की महाशक्तियों में से एक है। विश्व बैंक की एक ताज़ा रिपोर्ट में भारत दुनिया में सबसे अधिक तेज़ गति से आर्थिक विकास करने वाले देशों में से एक है। विश्व बैंक के आंकड़े बताते हैं कि इस आर्थिक वर्ष में भारत की विकास दर सात प्रतिशत से ऊपर चली गई है। यह विकास दर महामन्दी से मारे दुनिया के अमरीका जैसे सम्पन्न देशों से दुगनी है। इससे पहले भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा प्रस्तुत भारतीय आर्थिक सर्वेक्षण और विकास आकलन में भारत की आर्थिक विकास दर को 6:7 प्रतिशत के आसपास आंका गया था, इसका कारण नोटबन्दी से पैदा आर्थिक अस्त-व्यस्तता और जी.एस.टी. की जटिल प्रक्रिया को बताया गया था। अपने को यथार्थवादी समझने वाले निराशावादी अर्थ-शास्त्रियों का तो यह मत था कि आर्थिक विकास की मद्धम गति अभी देर तक चलेगी। इस भंवर से निकलने की गुंजायश अभी जल्दी नज़र नहीं आती।अब चाहे आशावादी आंकड़े अथवा भारत में व्यापार और निवेश करने की सुविधा का वैश्विक सूचकांक में दर्जा ऊपर हो जाना को ले लो, भारत का एक आस बंधाने वाला चित्र विश्व दर्पण में प्रस्तुत करने लगा है। लेकिन आर्थिक विकास की यह कहानी आधी-अधूरी बात कहती है। कारण यह कि देशी और विदेशी निवेशकों द्वारा अथवा व्यावसायिक घरानों द्वारा बड़ी-बड़ी स्व-चालित मशीनों के पूंजी निर्माण ने बहु-राष्ट्रीय कम्पनियों की सहायता से इस आर्थिक विकास दर को प्रोत्साहित किया है। इससे विसंगति यह पैदा हुई कि आर्थिक विकास दर तो बढ़ती नज़र आई, लेकिन रोज़गार दर नहीं। नतीज़ा यह निकला कि मोदी के शासनकाल के लगभग चार वर्षों में देश में अरबपतियों की संख्या तो सबसे अधिक हो गई, लेकिन इसके साथ गरीबों और बेकारों की संख्या भी बढ़ती चली गई। देश में अमीर और गरीब के बीच की खाई बढ़ती गई और प्रजातान्त्रिक समाजवाद का लक्ष्य हासिल करने का जनाजा निकल गया। अमीर तो और अधिक अमीर हुए ही लेकिन इसके साथ ही  गरीबी रेखा से नीचे जीने वालों की संख्या में भी कोई कमी नहीं आई। एक अनुमान के अनुसार इस समय देश में 19 करोड़ लोग हर रात भूखे सोते हैं। देश की एक तिहाई जनता गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन के लिए मजबूर है। इसकी वजह धन और सम्पदा का असमान बंटवारा है। अर्थात् देश की दस प्रतिशत जनता तो देश की नब्बे प्रतिशत धन-सम्पदा पर काबिज़ है, और  नब्बे प्रतिशत जनता देश के दस प्रतिशत आर्थिक संसाधनों से अपना गुजर-बसर करती है। किसी भी वर्ष में देश के ग्यारह करोड़ नौजवान बिना काम नौकरी की तलाश में भटकते दिखाई दे जाते हैं। हम गर्वित होते हैं कि देश की आधी आबादी कार्यशील आयु अर्थात् पैंतीस वर्ष से नीचे है। इससे मोदी निवेश की तलाश में की गई अपनी दर्जनों विदेश यात्राओं में निवेशकों को यही प्रलोभन देते रहे कि देश में श्रम शक्ति की बहुतायत उनकी श्रम उत्पादन दर को बढ़ा देगी। क्योंकि श्रम सस्ता होगा और मेहनती भी।दुरुस्त है कि भारत में श्रम की लागत कम है, और यह श्रम गहन उत्पादन में निवेशकों के लिए अधिक लाभ शेष छोड़ सकती है। लेकिन विडम्बना यह कि इधर जो भी निवेश भारत में आया, वह पूंजी गहन उद्योगों का आया। इसमें प्रशिक्षित, आधुनिक तकनीक में माहिर श्रमिकों और प्रशिक्षित कर्मचारियों की बहुत आवश्यकता थी, लेकिन जो श्रमिक आपूर्ति भारत इन निवेशकों को दे सकता था, वह इनके किसी काम की नहीं थी। भारतीय श्रमिक या कामगार ऐसे गतिशील कामों के लिए न प्रशिक्षित थे और न ही पारंगत। दूसरी ओर भारी तादाद में जो युवक काम की तलाश में वर्षों से देश में भटक रहे थे, वे तो केवल सफेद कालर वाले बाबू बनने के योग्य थे। लार्ड मैकाले की दकियानूसी शिक्षा पद्धति ने उन्हें आधुनिक निवेशकों के किसी काम का नहीं छोड़ा। देश विकसित हो रहा था, लेकिन पूंजी गहन उद्योगों के बल पर! श्रम गहन लघु और कुटीर उद्योगों का पतन हो गया।देश की शिक्षा नीति का नवीनीकरण अथवा उसे रोज़गारोन्मुख भी मोदी शासन के इन चार वर्षों में नहीं बनाया जा सका। नतीज़ा देश की दिग्भ्रमित युवा पीढ़ी, जो अपने भविष्य को अन्धा होता देख नशे के अन्धकूप अथवा आतंकवाद के अंधेरों में डूब रही है। इनकी मुक्ति के लिए आवश्यक है कि देश की शिक्षा दकियानूसी जकड़बन्दी से बाहर आये, और युवकों को उचित शिक्षा दे देश के उपयोगी नागरिक बनाये।