तरक्की के नये मुकाम

हमें पता ही नहीं चला और देश इतनी तरक्की कर गया। आजकल मंचों से भाषण दागने वाले एक-दूसरे से अधिक फेंकूराम हो गए हैं। जनसेवा का अर्थ भाषण सेवा हो गया है। हर भाषणबाज़ नेता एक-दूसरे के नहले पर दहला मारता है, और फिर घोषणा करता है उसके अथक प्रयत्नों से समाज परिवर्तित हो गया। ज्यों-ज्यों उनके भाषणों की धार तीखी होती है, उन्हें लगता है देश बाहुबलि हो गया। 
कितनी तरक्की कर ली इतने दिनों में हमने! करोड़पति अरबपति हो गये, दुनिया में सबसे तेज़ गति के साथ। उनकी बहुमंज़िली इमारतों में एक मंज़िल और उठ गई। लोगों को पीने के लिए पानी नहीं मिलता। उन्होंने छत पर तरणताल ही बना लिए। शायद उन तरणतालों की बढ़ती गिनती बताती है कि आम लोगों के टैंकरों में पानी क्यों कम रह जाता है। इन सर्दियों में बारिश रूठ गई। पहाड़ सब सूखे पड़े हैं। जल स्तर नाराज़ होकर धरती के और भी निचले स्तर पर चला गया। सड़कों पर पशु और आदमी प्यास से हांफ रहे हैं। अभी कौन हांफा? आदमी या जानवर? कुछ पता नहीं चलता। सड़क छाप प्राणी सब एक से लगते हैं। एक भूतपूर्व मंत्री जी ने भी फरमाया था कि इनके साथ हवाई जहाज में उड़ने की नौबत आ जाये तो लगता है जैसे मवेशियों के माड़े में बैठ-उड़ रहे हैं। इससे बेहतर उनका नाजुक पामेरियन है। गोद में उसे लेकर उतरो तो सारा बदन उसके परफ्यूम से गहगहा उठता है। जिस गाड़ी से वह कुत्ता और महिला उतरे वह गाड़ी धन्य हो गई। 
देश में अमीरों का आंकड़ा बढ़ने के कारण ऐसी बहुत ही बड़ी और आयातित गाड़ियां सड़कों पर दौड़ने लगी हैं। इसके मुकाबले फटीचर साइकलों की बढ़ती संख्या भी दूसरे राज्यों से उखड़ कर आये प्रवासी मज़दूरों और काम पर निकली बाइकों के कर-कमलों की शोभा बनने लगी। शोभा इसलिए कहा क्योंकि इन पर किसी न किसी सत्तारूढ़ नेता जी की तस्वीर की कृपा बनी रहती है। परन्तु बाई को यह साइकिल केवल कृपा रूप में ही नहीं मिली। कोई न कोई सत्ता का दलाल उन्हें अपनी जेब गर्म करने के बाद ही भेंट करता है। साथ ही ले जाता है युग परिवर्तन के लिए उनकी बोट और पीढ़ी दर पीढ़ी इसे लेने का वायदा। अब काम वाली बाई बड़ी श्रद्धा के साथ इन कन्डम साइकिलों में पंचर लगवाती हैं। फिर कतार बांध कर कृपालु नेता जी को वोट डालने जाती है, और फिर बड़े धीरज के साथ अपने लिए अच्छे दिन आने का इंतज़ार करती हैं। उनका वायदा बड़ी दरियादिली के साथ मिला। आने वाले पांच बरस गुजर जाने के बाद अच्छे दिन मिलने का वायदा। लेकिन जैसे अभी तक उनके शून्य जन-धन खाते में काले धन के मसीहाओं की बेनकाब हुई राशि के पन्द्रह लाख नहीं आये, वैसे ही किसी कभी न आने वाले कल की तरह पांच बरस बाद भी आने वाले अच्छे दिन नहीं आयेंगे।
कल कभी आता नहीं, जो आता है वह आज ही होता है। फुटपाथ की फटीचर ज़िंदगी-सा आज, जहां सरकारी खातों में भुखमरी से मरने वाले लोग अपच का शिकार बता कर निपटा दिये जाते हैं। लेकिन फिर भी भुखमरी के विश्व सूचकांक में हमारा देश कुछ पायदान और नीचे सरक गया है। हम ऐसे सूचकांक बनाने वाले देशों को पूंजीपति देशों का पिट्ठू कहते हैं और अपने जैसे पिछड़े देशों का साझा मंच बनाने की घोषणा करते हैं। तभी व्यापार करने की सुविधा के सूचकांक में हमारा दर्जा ऊपर हो जाने की सूचना मिलती है। जब स्थापना का घी सीधी उंगली से ही निकल रहा तो भला उंगली टेढ़ी करने की क्या ज़रूरत? हम विकास का घी निकालने में असफल हो गयी टेढ़ी उंगलियों को छिपा कर हालत बेहतर हो जाने की घोषणा करते हैं। भाषणबाज़ों के जुमले हवा में लहराते हैं और मुस्करा कर नेता जी हमें समझाते हैं कि लो इस बार तो हमने तुम्हें किसान केन्द्रित और निर्धन पक्षधर बजट दे ही दिया।लेकिन हमने सड़कों पर किसानों के झुण्ड धरना-प्रदर्शन करते देखे। हमें लगा शायद यह किसान केन्द्रित बजट का यशोगान करने का कोई नया तरीका है। लेकिन भारी कज़र् की गठरी पीठ पर लादे उतरे हुए चेहरे वाले किसानों ने हमें बताया कि उनका धंधा लाभप्रद बनाने की बात केवल शब्दों की बाजीगरी थी। ज्यों-ज्यों वक्त बीत रहा है चन्द अमीर तो और भी अमीर हो गये। लेकिन गरीबों की तादाद भी बढ़ी और उनका बेकारी और फाकाहाली का दंश भी।
कहां है बेरोज़गारी? समय के मसीहाओं ने हमारे साथ आंख-मिचौली खेलते हुए पूछा। हमने तो सभी बेकारों को स्वरोज़गार का रास्ता दिखा दिया। मुद्रा योजना में हर बेकार को तिरतालीस हज़ार का कज़र्ा मिलता है। वे और कुछ नहीं तो इससे पकौड़े बेचने  का धंधा शुरू कर सकते हैं।हम इस समस्या के यूं सुलझ जाने से आनन्दित हो गये। प्रसन्नता के अतिरेक में हमने कल्पना की कि इस देश में अब कोई बेकार नहीं रहा। सब पकौड़े तल कर उनकी बिक्री से अपना पेट पाल रहे हैं। हम घूमते हुए आगे निकले। एक मैदान में डिग्रीधारी पढ़े-लिखे लोगों की भीड़ लगी थी। हमने उनके पास जाकर पूछा, आज पकौड़े बेचने नहीं गये? आजकल पूरा देश इसी काम में लगा है। ‘नहीं’ वह अपनी डिग्रियां लहराते हुए बोले, ‘हम सफेद कालर नौकरी करेंगे। चपरासी भर्ती हो रही है, हम सब पढ़े-लिखे डिग्रीधारी उसे पाने का सपना लेकर यहां आये हैं। ’ आपको क्या खबर आदमी पकौड़े बेचने की जगह चपरासी बन कर कितना संतुष्ट हो जाता है? कम से कम उसे कोई ढंग की नौकरी तो मिली। वह सोचता है।