आज अतंर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस पर विशेष- अंग्रेज़ी वर्चस्व के चलते संकट में आईं मातृभाषाएं


यह एक दुखद समाचार है कि अंग्रेजी वर्चस्व के चलते भारत समेत दुनिया की अनेक मातृभाषाएं अस्तित्व के संकट से जूझ रही हैं। जबकि संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस की घोषणा का प्रमुख उद्देश्य था कि विश्व में लुप्त हो रहीं भाषाएं संरक्षित हों, विश्व में भाषाई एवं सांस्कृतिक विविधता और बहुभाषिता को बढ़ावा मिले। किंतु ऐसा होने के बजाय, दुनिया में 2500 भाषाएं इस बदहाल स्थिति में पहुंच गई हैं कि वे विलुप्ति के कगार पर हैं। दुनिया की 25 प्रतिशत ऐसी भाषाएं हैं, जिनके बोलने वाले एक हज़ार से भी कम लोग रह गए हैं। हालांकि अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस हमारे पड़ोसी बांग्लादेश के भाषाई आंदोलन से प्रभावित होकर शुरू हुआ था। बांग्लादेश में ‘भाषा आंदोलोन दिवस’ 1952 से मनाया जाता रहा है। यहां इस दिन राष्ट्रीय अवकाश भी होता है। 17 नवंबर 1999 को संयुक्त राष्ट्र संघ ने इस दिन को प्रति वर्ष 21 फ रवरी को मनाए जाने की स्वीकृति दी।      
मातृभाषाओं के परिप्रेक्ष्य में भारत की स्थिति बेहद चिंताजनक है। यहां की कुल 1365 मातृभाषाओं में से 196 भाषाएं विलुप्ति के कगार पर हैं। भारत के बाद अमरीका की स्थिति चिंताजनक है, जहां की 192 भाषाएं दम तोड़ रही हैं। दुनिया में कुल 6900 भाषाएं बोली जाती हैं। अंतराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के अवसर पर भाषाओं की विश्व इकाई द्वारा दी गई जानकारी में बताया है कि बेलगाम अंग्रेजी इसी तरह से पैर पसारती रही तो एक दशक के भीतर करीब ढाई हज़ार भाषाएं पूरी तरह समाप्त हो जाएंगी। भारत और अमरीका के बाद इंडोनेशिया की 147 भाषाओं को जानने वाले खत्म हो जाएंगे। दुनिया भर में 199 भाषाएं ऐसी हैं जिनके बोलने वालों की संख्या एक दर्जन लोगों से भी कम है। इनमें ‘कैरेम’ भी एक ऐसी भाषा है, जिसे यूक्रेन में मात्र छह लोग बोलते हैं। इसी तरह ओकलाहामा में ‘विचिता’ भी एक ऐसी भाषा है जिसे देश में मात्र दस लोग बोल पाते हैं। इंडोनेशिया की ‘लेंगिलू’ बोलने वाले केवल चार लोग बचे हैं। 178 भाषाएं ऐसी हैं, जिन्हें बोलने वाले लोगों की संख्या 150 से भी कम है।
कोई भी भाषा जब मातृभाषा नहीं रह जाती है तो उसके प्रयोग की अनिवार्यता और उससे मिलने वाले रोजगारमूलक कार्यों में कमी आने लगती है। जिस अत्याधुनिक पाश्चात्य सभ्यता पर गौरवान्वित होते हुए हम व्यावसायिक शिक्षा और प्रौद्योगिक विकास के बहाने अंग्रेजी का प्रभाव बढ़ाते जा रहे हैं, दरअसल यह छद्म भाषाई अहंकार है। क्षेत्रीय भाषाएं और बोलियां हमारी ऐतिहासिक सांस्कृतिक धरोहरें हैं। इन्हें मुख्यधारा में लाने के बहाने, इन्हें हम तिल-तिल मारने का काम कर रहे हैं। कोई भी भाषा कितने ही छोटे क्षेत्र में, भले कम से कम लोगों द्वारा बोली जाने के बावजूद उसमें पारंपरिक ज्ञान का असीम भंडार होता है। ऐसी भाषाओं का उपयोग जब मातृभाषा के रूप में नहीं रह जाता है, तो वे विलुप्त होने लगती हैं। सन् 2100 तक धरती पर बोली जाने वाली ऐसी पांच हज़ार से भी ज्यादा भाषाएं हैं जो विलुप्त हो सकती हैं।भारत सरकार ने उन भाषाओं के आंकड़ों का संग्रह किया है, जिन्हें 10 हजार से अधिक संख्या में लोग बोलते हैं। 2001 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार ऐसी 122 भाषाएं और 234 मातृभाषाएं हैं। भाषा-गणना की ऐसी बाध्यकारी शर्त के चलते जिन भाषा व बोलियों को बोलने वाले लोगों की संख्या 10 हज़ार से कम है उन्हें गिनती में शामिल ही नहीं किया गया। यहां चिंता का विषय यह भी है कि ऐसे क्या कारण और परिस्थितियां रहीं की ‘बो’ और ’खोरा’ भाषाओं की जानकार दो महिलाएं ही बची रह पाईं। ये अपनी पीढ़ियों को उत्तराधिकार में अपनी मातृभाषाएं क्यों नहीं दे पाईं। दरअसल इन प्रजातियों की यही दो महिलाएं अंतिम वारिस थीं।
अंग्रेजों ने जब भारत में फि रंगी हुकूमत कायम की तो उसका विस्तार अंडमान-निकोबार द्वीप समूहों तक भी किया। अंग्रेजों की दखल और आधुनिक विकास की अवधारणा के चलते इन प्रजातियों को भी जबरन मुख्यधारा में लाए जाने के प्रयास का सिलसिला शुरू किया गया। इस समय तक इन समुद्री द्वीपों में करीब 10 जनजातियों के पांच हज़ार से भी ज्यादा लोग प्रकृति की गोद में नैसर्गिक जीवन व्यतीत कर रहे थे। बाहरी लोगों का जब क्षेत्र में आने का सिलसिला निरंतर रहा तो ये आदिवासी विभिन्न जानलेवा बीमारियों की गिरफ्त में आने लगे। नतीजतन गिनती के केवल 52 लोग जीवित बच पाए। ये लोग ‘जेरू’ तथा अन्य भाषाएं बोलते थे। बोआ ऐसी स्त्री थी जो अपनी मातृभाषा ‘बो’ के साथ मामूली अंडमानी हिन्दी भी बोल लेती थीं। लेकिन अपनी भाषा बोल लेने वाला कोई संगी-साथी न होने के कारण तजिंदगी उसने ‘गूंगी’ बने रहने का अभिशाप झेला। भाषा व मानव विज्ञानी ऐसा मानते हैं कि ये लोग 65 हज़ार साल पहले सुदूर अफ्रीका से चलकर अंडमान में बसे थे। ईसाई मिशनरियों द्वारा इन्हें जबरन ईसाई बनाए जाने की कोशिशों और अंग्रेजी सीख लेने के दबाव भी इनकी घटती आबादी के कारण बने।
दुनिया की युवा पीढ़ी विश्व समाज से जुड़ने के लिए अंग्रेजी की ओर आकर्षित है। लेकिन यदि अंग्रेजी इसी तरह पैर पसारती रही तो दुनिया में भाषाई एकरूपता छा जाएगी, जिसकी वटवृक्षी छाया में अनेक भाषाएं मर जाएंगी। भारत की तमाम स्थानीय भाषाएं व बोलियां अंग्रेजी के बढ़ते प्रभाव के कारण संकटग्रस्त हैं। व्यावसायिक, प्रशासनिक, चिकित्सा, अभियांत्रिकी व प्रौद्योगिकी की आधिकारिक भाषा बन जाने के कारण अंग्रेजी रोजगार मूलक शिक्षा का प्रमुख आधार बना दी गई है। इन कारणों से उत्तरोतर नई पीढ़ी मातृभाषा के मोह से मुक्त होकर अंग्रेजी अपनाने को विवश है। प्रतिस्पर्धा के दौर में मातृभाषा को लेकर युवाओं में हीन भावना भी पनप रही है। इसलिए जब तक भाषा संबंधी नीतियों में आमूल-चूल परिवर्तन नहीं होता तब तक भाषाओं की विलुप्ति पर अंकुश लगाना मुश्किल है। भाषाओं को बचाने के लिए समय की मांग है कि क्षेत्र विशेषों में स्थानीय भाषा के जानकारों को ही निगमों, निकायों, पंचायतों, बैंकों और अन्य सरकारी दफ्तरों में रोजगार दिए जाएं।