भारत-नेपाल संबंध संतुलित दृष्टिकोण की ज़रूरत

भारत और नेपाल के संबंध सदियों पुराने हैं। दोनों देशों में हमेशा सामाजिक तथा सांस्कृतिक संबंध बने रहे हैं। आज भी दोनों देशों की सीमाएं खुली हैं, परन्तु गत कुछ समय से नेपाल कई कारणों से हिमालय से पार चीन के साथ अपने संबंध बढ़ाने के प्रयास में रहा है। भारत ने चीन की बड़ी योजना ‘वन बैल्ट वन रोड’ का विरोध किया था, परन्तु नेपाल ने चीन के निमंत्रण पर इस संबंधी बुलाई बैठक में हिस्सा लिया था। समय बदल गया है, नेपाल में सदियों पुरानी राजाशाही का अंत हो गया है। यहां माओवादियों ने बहुत सारा खून बहाकर कई दशकों तक संघर्ष किया था और वहां कई अन्य राजनीतिक पार्टियां भी सक्रिय रही थीं। राजाशाही के समय भी उन्होंने देश में अपनी पैठ ही नहीं बनाये रखी अपितु प्रशासन भी चलाया था परन्तु इसके बावजूद अधिकतर शक्तियां राजाओं के पास ही रही थीं। इस लम्बे दौर के अंत के बाद अस्थायी दौर आया, जिसमें कई सरकारें बनीं, जिनमे कम्युनिस्ट सरकारें भी शामिल थीं, परन्तु इसके साथ-साथ लम्बे-समय तक नेपाल का नया संविधान बनाने का कार्य भी चलता रहा। नेपाल एक छोटा और अभावग्रस्त देश रहा है, इसलिए भारत ने हमेशा उसकी सहायता की है। उसको आर्थिक सहायता देने के साथ-साथ भारत उसके बहुत सारे प्रोजैक्टों में भी मददगार रहा है, परन्तु कम्युनिस्ट पार्टियों के दबदबे के कारण जहां भारत के साथ इसकी दूरियां बढ़ने लगीं, वहीं चीन ने आगे बढ़कर नेपाल को अपने आंचल में लेने का प्रयास किया। किसी सीमा तक वह इसमें सफल भी रहा। ऐसी ही नीति उसने भारत के पड़ोसी श्रीलंका तथा पाकिस्तान के प्रति भी अपनाए रखी है। गत वर्ष जब शेर बहादुर देऊबा नेपाल के प्रधानमंत्री थे तो उन्होंने भारत के साथ प्राथमिक तौर पर निकटता बढ़ाने का प्रयास किया था। उनकी भारत यात्रा के समय जहां भारत ने नेपाल को हर तरह की सहायता करने का आश्वासन दिलाया था वहीं शेर बहादुर देऊबा ने  स्पष्ट शब्दों में यह भी कहा था कि नेपाल किसी भी स्थिति में अपनी धरती पर भारत के विरुद्ध गतिविधियों की इजाज़त नहीं देगा। गत वर्ष जून में अपना पद संभालने के बाद देऊबा ने सबसे पहले भारत का दौरा ही किया था परन्तु अब नया संविधान बनाये जाने के बाद पड़े वोटों में मार्क्सवादी लैनिनवादी पार्टी की सरकार बनी है, जिसके अध्यक्ष खड़ग प्रसाद शर्मा ओली बने हैं, जिनके भारत के साथ संबंध कभी भी ज्यादा सुखद नहीं रहे। 2016 में भी ओली प्रधानमंत्री बने थे। उन्होंने उस समय भारत से पहले चीन की यात्रा करने को प्राथमिकता दी थी। भारतीय राज्य बिहार के साथ लगते नेपाल के सीमांत क्षेत्र में बड़ी संख्या में मधेशी लोग बसे हुए हैं। उन्होंने कुछ समय पहले नए संविधान की कई शर्तों पर कड़ी नाराज़गी प्रकट की थी। ओली को उस समय इस्तीफा देना पड़ा था और उस समय उन्होंने दोष लगाया था कि ऐसा भारत की साज़िश के कारण हुआ है, परन्तु इस बार प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने पहले भारत की यात्रा की है, जिसमें उन्होंने भारत के साथ चिर-कालीन अपनी एकता बरकरार रखने की भावना प्रकट की है। इस यात्रा के दौरान न सिर्फ दिल्ली और काठमांडू के बीच रेलगाड़ी चलाने का प्रण ही किया गया है, अपितु दोनों देशों के बीच रक्षा-व्यापार तथा अन्य आर्थिक मुद्दों पर सहयोग बढ़ाने की बात की गई है। नि:संदेह जहां नेपाल को हमेशा की तरह भारत के बड़े सहयोग की ज़रूरत है, वहीं भारत को भी बदले नये हालात को देखते हुए नेपाल के प्रति अपने रवैये को अधिक उदार तथा लचीला बनाने की आवश्यकता होगी। ऐसी नीति समय की भी ज़रूरत है और इसके साथ ही दोनों देशों के आपसी संबंधों में बेहतरी लाई जा सकती है।

—बरजिन्दर सिंह हमदर्द