‘आपात्काल से भी गम्भीर है देश की वर्तमान स्थिति’

‘वर्तमान दौर में लोकतंत्र एक ऐसा अमल बनकर रह गया है, जिसमें सिर्फ संख्या अर्थात् नम्बरों/सीटों का महत्व रह गया है, जबकि नेतृत्व की गुणवत्ता कहीं पीछे छूटती जा रही है। तकनीक के प्रसार के कारण सोशल मीडिया के बढ़ रहे प्रयोग ने हमें ‘रचनात्मक लोकतंत्र’ से वंचित करके ‘सोचे-समझे (डैलीब्रेटिव) लोकतंत्र’ की ओर मोड़ दिया है। जहां राय बनाने के लिए शब्द सीमाओं में बंधे कुछ संदेश ही काफी होते हैं।’ 
यह विचार डा. अश्विनी कुमार पूर्व कानून मंत्री ने अपनी नई पुस्तक ‘एहसास-ओ-इज़हार’ के बारे में चर्चा करते हुए रखे। डा. कुमार ने पुस्तक में दर्ज अलामा इकबाल के एक शेअर का हवाला देते 
हुए कहा-
जम्हूरियत एक तर्जे-हकूमत है कि जिसमें, 
बन्दों को गिना करते हैं, तोला नहीं करते।
वर्तमान हालात में जहां सत्ताधारी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार न सिर्फ लोकसभा में संख्या के आधार पर बहुमत में है, अपितु दो तिहाई राज्यों में भी उसकी सरकार है, के साथ इस इस शेअर को जोड़ने के साथ-साथ वर्तमान स्थिति के कुछ कारणों संबंधी चर्चा करते हुए डा. अश्विनी कुमार ने कहा कि लोग पहले समाचार-पत्र और सम्पादकीय पृष्ठ पढ़कर और उन पर चर्चा करके जनमत कायम करते थे परन्तु अब सोशल तथा इलैक्ट्रोनिक मीडिया के दौर में अखबार पर पहुंचने से पहले ही लोग अपनी राय बना चुके होते हैं। जब तक खबरों पर सोच-विचार या पड़ताल करके राय न बनाई जाए, लोकतंत्र के लिए खतरा बरकरार रहेगा। 
हालांकि तकनीक के प्रसार को उन्होंने लोगों के सशक्तिकरण का एक साधन और समय की ज़रूरत करार दिया परन्तु आवेग में आकर लिए फैसलों को लोकतंत्र के लिए चुनौती भी करार दिया। एक दार्शनिक के कहे शब्दों का सहारा लेते हुए कांग्रेसी नेता ने कहा कि हमेशा सचेत रहना ही आज़ादी की गारंटी है। राजनीति सहित अन्य मुद्दों पर ‘अजीत समाचार’ के साथ बातचीत करते हुए डा. अश्विनी कुमार ने आपात्काल के दौर पर भी चर्चा करने से गुरेज़ न करते हुए कहा कि कांग्रेस के इतिहास में आपात्काल का अध्याय एक दुखद अध्याय है। यह स्वीकार करने के साथ-साथ उन्होंने यह भी कहा कि जिसका हज़र्ाना भी कांग्रेस पार्टी को भुगतना पड़ा। डा. अश्विनी ने 31 वर्ष पुराने इस घाव को बार-बार कुरेदने की बजाय ‘आज’ को सम्भालने की ज़रूरत बताते हुए कहा कि आज देश में भय का वातावरण बना है और मानवाधिकारों को जो नुक्सान पहुंचाया जा रहा है, वह 1977 के आपात्काल से कहीं ज्यादा है। इस ‘अघोषित आपातकाल’ पर और बोलते हुए डा. कुमार ने कहा कि जब कोई स्वयं को लोकतांत्रिक कहने वाला नेता मानवाधिकारों पर बार करता है, तब बहुत खतरनाक हालात पैदा होते हैं। लोगों को प्रत्यक्ष तौर पर यह पता नहीं चलता कि भीतर से उनकी आज़ादी खाने, पहनने और यहां तक कि बात करने तक भी बार हो रहा है। पुन: 1977 के आपात्काल का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि उस समय भी ऐसा नहीं हुआ था कि देश की हर राजनीतिक पार्टी के नेताओं पर मुकद्दमे चल 
रहे थे। 
डा. कुमार ने पुस्तक का ही एक और शेअर बोलते हुए कहा कि— तुमसे पहले जो एक शख्स 
यहां तख्त नशीं था,
उसको भी अपने खुदा 
होने पे,
इतना ही यकीं था।
लम्बा समय पहले लिखा यह शेअर आज भी उतना ही मुफीद और उपयुक्त है, क्योंकि हम इतिहास से कभी शिक्षा नहीं लेते। उल्लेखनीय है कि डा. अश्विनी कुमार हाल ही में रिलीज़ हुई अपनी नई पुस्तक ‘एहसास-ओ-इज़हार’ को कई मायनों में अपनी आत्मकथा भी कहते हैं। 287 पृष्ठों की इस पुस्तक में 60 शायरों के शेअर, ़गज़लें और नज़में हैं, जिनको वह अपनी भावनात्मक, राजनीतिक और सामाजिक ज़िंदगी से जुड़ा हुआ पाते हैं। उनका मानना है कि कई बातें जो वह शायद अपनी कलम से नहीं कह सके, वह इन शायरों की जुबानी कह सकते हैं। पुस्तक के हर पृष्ठ पर दर्ज हर शेअर को वह अपनी ज़िंदगी के साथ बंधा पाते हैं। वैसे तो इस पुस्तक में पांच अध्याय-ज़िंदगी-प्यार-फिलॉस्फी, राजनीति और जुदाई के हैं, परन्तु राजनीतिज्ञ होने के कारण उनके साथ सवालों-जवाबों का मुख्य केन्द्र चौथा अध्याय राजनीति ही रहा। 
फैज़-अहमद-फैज़ की लोकप्रिय ़गज़ल ‘बोल की लब आज़ाद है’ जिस मिसरे की पिछले कुछ समय से काफी प्रयोग हो रहा है, पर टिप्पणी करते हुए डा. अश्विनी कुमार ने कहा कि आज लोगों को बोलने की ज़रूरत महसूस हो रही है, क्योंकि अन्याय पर चुप रहने वाला स्वयं भी दोषी होता है। 
मज़ाज़ लखनवी की लिखी और डा. बरजिन्दर सिंह हमदर्द की गायी ़गज़ल 
‘ऐ ़गमे-दिल क्या करूं’,
वहशते दिल क्या करूं।
डा. अश्विनी कुमार के दिल के काफी करीब है, जहां शायर मजबूरी की बेड़ियों को जानता तो है, परन्तु स्वीकार नहीं करता, अपितु एक रास्ता भी दिखाता है। उनके अनुसार आज के दौर में ऐसी प्रेरणा देने वाली शायरी की ज़रूरत है। ज़िंदगी के फलसफे को वह मुख्य तौर पर ़गालिब के एक शेअर से ही जोड़ कर देखते हैं, जिसमें कहा गया है :
‘डुबोया मुझको मेरे होने ने
न होता मैं तो क्या होता।’
अश्विनी कुमार के अनुसार ज़िंदगी के हर फलसफे की आत्मा ढूंढें तो वह इन्सान की खुदी ही है। जैसे डेकार्ट फिलॉस्फर ने भी कहा है कि मैं अपनी खुदी से ही पहचाना जाता हूं। डा. अश्विनी कुमार जो पूर्व प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह के काफी निकट हैं और डा. सिंह द्वारा ज़िंदगी में कोई पूर्ण-विराम न होने के फलसफे में विश्वास भी रखते हैं, ने कहा है कि वह आने वाले समय में भी मानवाधिकारों, सामाजिक समानता और मेहनती लोगों के मामलों के बारे में अपनी आवाज़ उठाते रहेंगे।