धर्म-निरपेक्ष राजनीति में क्या है मुसलमानों का योगदान ?

आजकल अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में जिन्ना की तस्वीर को लेकर हंगामा मचा हुआ है। इस राजनीतिक संघर्ष ने उस प्रश्न को कुछ देर के लिए धुंधला कर दिया है जो दरअसल मुसलमान राजनीति के केंद्र में रह कर मेरे जैसे लोगों को हमेशा परेशान करता रहता है। यह है सेकुलरवाद और मुसलमानों से उसके ताल्लुकातों का प्रश्न। विश्वविद्यालय में छात्रों और अध्यापकों के सामने भाषण देने के लिए जाने वाले बुद्धिजीवियों और नेताओं को अक्सर इस समस्या का सामना करना पड़ता है। वक्ता जिस समय भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की आलोचना करके तालियां बटोर रहे होते हैं, तभी श्रोताओं में से कोई एक उठ कर शांत व दृढ़ आवाज़ में पूछता है कि ज़रा ये तो बताइये कि सेकुलरवाद के मामले में कांग्रेस का रिकॉर्ड क्या है? यह सवाल तरह-तरह से पूछा जाता है। कभी तो पूछने वाला इस हद तक चला जाता है कि वह आज़ादी के बाद से ही भारतीय राज्य और कांग्रेस के सेकुलर रवैये को ़खारिज करता हुआ नज़र आता है, तो कभी वह कांग्रेस के शासनकाल में हुई मुसलमान विरोधी हिंसा पर अपने सवाल को केंद्रित करके जवाब-तलबी करता हुआ नज़र आता है। 
इस तरह का वाकया मेरे साथ भी घट चुका है। लेकिन मैं तो किसी राजनीतिक दल का पैरोकार नहीं हूं, इसलिए मैं समाज-वैज्ञानिक अनुसंधानों का हवाला देकर इस तरह के सवाल का यह जवाब दे पाया कि अस्सी के दशक से पहले की कांग्रेस सेकुलर एजेंडे पर चलती थी, पर उसके बाद उसका रुख उत्तोरतर हिंदू समर्थन जीतने वाली राजनीति करने की तऱफ झुकता चला गया। लेकिन, सलमान ़खुर्शीद जैसे लोगों को एक समाज-वैज्ञानिक होने की सुविधा प्राप्त नहीं है। वे कांग्रेस के नेता हैं और उत्तर प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष भी रह चुके हैं। इसलिए जब उनसे यह सवाल पूछा गया कि क्या मुसलमानों के खून के धब्बे कांग्रेस के दामन पर नहीं हैं, तो वे चकरा गए।  वहां उन्हें यह बात स्वीकार करनी पड़ी, पर बाद में अपनी पार्टी-निष्ठा के चलते उन्होंने अपने वक्तव्य पर लीपापोती की। इसमें कोई शक नहीं कि पूछे गये इस तरह के सवाल एक बड़ी हद तक जायज़ होते हैं। मुसलमान समुदाय को सही लगता है कि उसके साथ हो रही ना-इन्साफियां केवल भाजपा के शासन की देन ही नहीं हैं, बल्कि कांग्रेस के ज़माने से ही जारी हैं। बात यहां केवल कांग्रेस की ही नहीं है, बल्कि मुसलमानों की तऱफदार होने का दावा करने वाली सभी पार्टियां इस श्रेणी में आ सकती हैं। मसलन, पूछने वाला यह जवाबतलब भी कर सकता है कि भागलपुर के दंगे के आरोपियों को लालू यादव के कार्यकाल में सज़ा क्यों नहीं मिली और उन्हें ़खुद को सेकुलर मानने वाले निज़ाम ने बचाने की कोशिश क्यों की? यह प्रश्न भी उठाया जा सकता है कि 2014 में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हुई साम्प्रदायिक हिंसा में समाजवादी पार्टी की भूमिका को साम्प्रदायिक की श्रेणी में नहीं डाला जा सकता? जहां तक कांग्रेस का सवाल है, हाल ही में उर्दू के विख्यात साहित्यकार और आलोचक शख्सुर्रहमान ़फाऱूकी (जो अन्यथा पूरी तरह से ़गैर-राजनीतिक हैं) ने अपने एक लेख में कांग्रेस की मुसलमान विरोधी राजनीति को सिलसिलेवार बेऩकाब किया है। लेकिन साथ में उन्होंने अपनी दुविधा भी व्यक्त की है, ऐसी दुविधा जो किसी को भी मर्माहत कर सकती है। उन्होंने कहा कि कांग्रेस के इन साम्प्रदायिक अपराधों के बावजूद वे वोट उसी को देते हैं, क्योंकि कम से कम यह पार्टी हिंदू बहुसंख्यकवाद की प्रमुख प्रतिनिधि भाजपा के ़िखल़ाफ ज़ुबानी जम़ाखर्च तो करती है। यानी ़फाऱूकी साहब यह मान चुके हैं कि मुसलमानों को उनकी सही और ईमानदाराना राजनीतिक नुमाइंदगी नहीं मिल रही है। इसी जगह यह सवाल पूछा जाना लाज़िमी है कि भारत का मुसलमान समाज इस हालत में पहुंचा कैसे कि वास्तव में इस समय लोकतांत्रिक राजनीति में उसका कोई धनी-धोरी नहीं रह गया है। अगर हम थोड़ा अतीत में जाकर देखें तो शायद इस सवाल के जवाब का कुछ सुराग मिल सकता है। 6 दिसम्बर, 1992 को बाबरी मस्जिद के ध्वंस के तुरंत बाद (शायद ह़फ्ते भर बाद ही) देश के सबसे बड़े राजनीति शास्त्री रजनी कोठारी ने ‘इकॉनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली’ में लिखते हुए उस राष्ट्रीय स्तर की साम्प्रदायिक दुर्घटना के कई कारणों में से एक यह भी गिनाया था :  ‘मेरी आखिरी बात मुसलमानों को सम्बोधित है जो स्पष्ट रूप से भारतीय राज्य और समाज के होने वाले ध्रुवीकरण, हिंदुत्व के बढ़ते हुए जन-समर्थन और ‘सेकुलर’ राज्य-व्यवस्था में अपने अलगाव और बहिर्वेशन के अंदेशे को झेलने के लिए अभिशप्त हैं। अब समय आ गया है कि उन्हें भी मौजूदा और आने वाली परिस्थितियों में टिके रहने के लिए धार्मिक रवैया छोड़ देना चाहिए। एक हद तक मुसलमान आज जिस दशा में खुद को पा रहे हैं, उसकी ज़िम्मेदारी मुसलमानों के नेतृत्व की भी है। आज वे ़खुद को असुरक्षित और डरा हुआ पाते हैं। शांतिपूर्वक जीने के लिए वे कोई भी कीमत चुकाने के लिए तैयार हैं। 
उनके आत्म-विश्वास और गरिमा के ह्रास, उनकी अवमानना और गिरावट के हालात तब तक बदले नहीं जा सकते जब तक वे अपनी धार्मिक मुक्ति राज्य के समर्थन और सुरक्षा में देखना बंद नहीं कर देते। अपनी ़खुदी में और उस देश में जिसका उन्होंने अपने जीवन और ़खुशहाली के लिए चयन किया उनका य़कीन फिर से तभी कायम हो सकता है जब वे लोकतांत्रिक प्रक्रिया में पूरी तरह से भागीदारी करेंगे और अपनी ज़रूरतों को सामाजिक-आर्थिक, शैक्षिक और रोज़ी-रोटी के दूसरे संदर्भों (जैसे रोज़गार और अन्य अवसर) में परिभाषित करना शुरू करेंगे। अल्पसंख्यकों पर अल्पसंख्यक साम्प्रदायिकता का आरोप अडवानी ने सही ही लगाया है। यह अल्पसंख्यकों का ज़िम्मा है कि वे अडवानी और उनकी पार्टी को इस आधार पर बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता भड़काने का म़ौका न दें। ... जितनी जल्दी मुसलमान अल्पसंख्यक राजनीति को पालना-पोसना और उसे राज्य का संरक्षण प्राप्त करने का ज़रिया बनाना बंद कर देंगे, उतनी ही जल्दी वे ‘हिंदुत्व’ की राजनीति का पर्दा़फाश करके इस मुख्य रूप से ‘हिंदू’ समाज में टिकने में समर्थ होंगे।’ कोठारी ने अल्पसंख्यक राजनीति की यह आलोचना बाद में की थी, पहले उन्होंने बहुसंख्यक राजनीति को आड़े हाथों लिया था। ज़ाहिर है कि हम उनके वक्तव्य को दो हिस्सों में बांट कर नहीं देख सकते। बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक राजनीति एक-दूसरे को पानी देती हैं, और इस तरह साम्प्रदायिकताओं की प्रतियोगिता का एक कुटिल चक्र शुरू हो जाता है। ज़ाहिर है कि ऐसी प्रतियोगिता में तो बहुसंख्यक राजनीति ही जीतेगी। अल्पसंख्यक राजनीति प्रभावहीन होती चली जाएगी। चूंकि अल्पसंख्यक राजनीति अपने चरित्र में सेकुलर नहीं है, इसलिए उसके प्रभावहीन होने या निधन पर हमें चिंतित नहीं होना चाहिए। यह राजनीति जितनी जल्दी मरेगी, उतनी ही जल्दी बहुसंख्यक राजनीति को इसके कारण मिलने वाला उछाल भी साथ में निष्प्रभावी हो जाएगा। 
कोठारी का यह वक्तव्य हमसे एक बात कहता है कि लोकतांत्रिक राजनीति में मुसलमानों की मौजूदा उपेक्षा के कारण केवल उनके बाहर ही मौजूद नहीं हैं। बाहर तो समस्या है ही, समस्या उनके भीतर भी है। लेकिन उनके नेताओं और बुद्धिजीवियों का मुख्य ़फोकस समस्या के बाह्य रूपों की तऱफ ज़्यादा होता है। इस तरह मुस्लिम प्रश्न पूरी तरह से बाह्यीकरण का शिकार हो सेकुलर राजनीति को और कमज़ोर कर देता है। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय ही नहीं, किसी और भी मंच पर अगर मुसलमान प्रवक्ता तथाकथित सेकुलर पार्टियों से कठिन सवाल पूछना चाहें तो उनका स्वागत है, पर यह उन्हें अपने आप से भी कुछ सवाल पूछने चाहिए। उन्हें अपने गिरेबान में मुंह डाल कर पता लगाना चाहिए कि भारत में सेकुलर राजनीति को मज़बूत करने में उनका अपना क्या योगदान है। और अगर परिस्थितियों के कारण वे अभी तक समुचित योगदान नहीं कर पाये हैं, तो क्या भविष्य में उन्हें इसकी भरपाई नहीं करनी चाहिए?