क्या बैंकों से टूट रहा है लोगों का भरोसा ?

अभी ज्यादा वक्त नहीं गुजरा जब देश में आम लोग सरकारी बैंकों में जमा निवेश को सुरक्षा की करीब-करीब गारंटी समझते थे। लोग शेयर बाज़ार, कमोडिटी और म्युचुअल फंड में निवेश करने की बजाय बैंकों में फि क्स डिपोजिट करने को ज्यादा तरजीह देते थे। लेकिन लगता है हाल के बैंकों के घोटालों ने आम आदमी के इस विश्वास को हिलाकर रख दिया है। इस बात का आधार कोई अनुमान नहीं बल्कि खुद रिज़र्व बैंकों ऑफ  इंडिया की, बैंकों में जमा राशि के संबंध में वार्षिक रिपोर्ट है। मार्च 2018 को खत्म हुए वित्त वर्ष में बैंकों में लोगों ने महज 6.7 फीसदी की दर से पैसे जमा किये। यह पिछले 55 सालों में बैंकों में जमा की सबसे कम दर थी। 1963 के बाद आज तक कभी इतने निम्न स्तर पर बैंकों में जमा का रिकॉर्ड नहीं रहा। आरबीआई के मुताबिक हालांकि नोटबंदी के तुरंत बाद बैंकों में लोगों ने बड़े पैमाने पर एफ डी खाता खुलवाये थे। लेकिन पिछले वित्त वर्ष में जिस तरह से एक के बाद एक बैंकों के घोटाले उधड़कर सामने आये, उससे आम लोगों का विश्वास ढह गया है। जहां नोटबंदी के बाद बड़े पैमाने पर लोग बैंकों में एफ डी बनवा रहे थे, वहीं पिछले वित्त वर्ष में बड़े पैमाने पर लोगों ने एफ डी तुड़वाकर म्युचुअल फं ड या शेयर बाज़ार में निवेश किया।  हालांकि बैंक अभी खुलकर अपनी चिंता नहीं जता रहे लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि पिछले 10-11 महीनों में बैंकों पर से लोगों का जिस कदर विश्वास कम हुआ है और जिसके कारण बड़े पैमाने पर लोगों ने बैंकों से अपनी फि क्स जमा पूंजी को निकलवाकर दूसरी जगह निवेश किया है, उससे आने वाले दिनों में बैंकों की ब्याज दरों में बढ़ोतरी हो सकती है। अगर ऐसा हुआ तो यह न सिर्फ  आम लोगों के लिए समस्या बनेगी बल्कि रोजगार पैदा करने की दर में भी कमी आएगी। क्योंकि अगर 0.5 फीसदी बैंक की ब्याज दरें बढ़ती हैं तो 0.25 फीसदी तक बेरोजगारी बढ़ती है। बैंकों से लोगों के मोह भंग का एक नया खुलासा भी हाल में ही सामने आया है।अब आम लोगों की एसआईपी यानी म्युचुअल फं ड में सिस्टेमेटिक इंवेस्टमेंट प्लान में भी अच्छी खासी रुचि पैदा हो गई है। क्योंकि इसमें जितना चाहें, उतना सुरक्षित निवेश कर सकते हैं। यही वजह है कि नोटबंदी के बाद एसआईपी माध्यम से निवेश में काफी तेजी आई है। हाल के आंकड़ों को देखें तो अप्रैल 2018 में निवेशकों ने 1.4 लाख करोड़ रुपये का निवेश किया। जबकि मार्च में इससे आधे से भी कम यानी 50,752 करोड़ रुपये था। अप्रैल में सबसे ज्यादा निवेश लिक्विड और मनी मार्केट कैटेगिरी में हुआ है, यह भी लोगों की बदली हुई प्राथमिकता को जताता है। सवाल है अगर आम लोगों का बैंकों पर से भरोसा उठ गया, क्या तब भी हमारी अर्थव्यवस्था मजबूत बनी रहेगी? आज भले लगे कि अब निवेशक या आम आदमी काफी कुछ जानता है और वह किसी भावनात्मक असुरक्षा के चलते निर्णय नहीं लेता, लेकिन हकीकत यही है कि आज भी ज्यादातर लोग एक दूसरे के देखा-देखी ही निवेश का माध्यम चुनते हैं। आज भी दुनियाभर के शेयर बाज़ार ही नहीं, बल्कि सारी फ्यूचर ट्रेडिंग भावनाओं के आधार पर ही होती है। इसलिए यह नहीं माना जा सकता कि अगर बैंकों पर से लोगों का भावनात्मक विश्वास मज़बूत नहीं होता, तो भी अर्थव्यवस्था पर कोई खास फ र्क नहीं पड़ेगा। भारत में 95 फीसदी आम लोग अभी भी निवेश के बारे में बारीकी से कुछ नहीं जानते और बैंकों में पैसा जमा करने का उनका सबसे बड़ा मकसद पैसे का सुरक्षित रहना और सुरक्षित रहते हुए बढ़ना होता है। लेकिन जिस तरह से पिछले वित्त वर्ष में एक-एक करके एक दर्जन से ज्यादा बैंक घोटालों का खुलासा हुआ है, जिसमें कुछ घोटाले हज़ारों करोड़ रुपये के हैं, उससे आम आदमी हिल गया है। हैरानी की बात यह है कि इन घोटालों को लेकर जिस केंद्रीय बैंक आरबीआई को सबसे ज्यादा चिंतित होना चाहिए, वही सबसे कम चिंतित नजर आ रही है। इसलिए भी आम लोगों में बैंकों के प्रति विश्वास घट रहा है। बैंकों से आम लोगों के बढ़ते डर की एक वजह एफ आरडीआई बिल (वित्तीय संकल्प और जमा बीमा)की प्रस्तावित आशंका भी है। हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और वित्त मंत्री अरूण जेटली ने हाल के दिनों में कई बार इस बात को साफ  किया है कि लोगों को घबराने की ज़रूरत नहीं है, बैंकों में उनका पैसा पूरी तरह से सुरक्षित है। लेकिन आम लोगों के बीच यह जानने की जिज्ञासा अभी भी कम नहीं हुई कि अगर ये बिल अभी भी प्रस्तावित है तो वो क्यों इससे चिंतित न हों? यानी लोग इस बिल से डरे हुए हैं और उनके डर को बैंकर्स ने भी बढ़ाया ही है, घटाया नहीं। क्योंकि उन्होंने साफ  तौर पर कहा है कि अगर इस प्रस्तावित बिल को अमल में लाया गया तो वे सब हड़ताल पर चले जायेंगे। इन सब बातों के चलते लोगों का बैंकों पर से विश्वास घटे न तो क्यों न घटे? शायद बैंकों के प्रति आम लोगों के घटते विश्वास के कारण ही एक संसदीय समिति ने 17 मई 2018 को आरबीआई के गवर्नर उर्जित पटेल को अपने सामने उपस्थित होने के लिए कहा था। संसदीय समिति उनसे बैंक घोटालों और बैंकिंग नियमनों के बारे में सवाल जवाब करना चाहती थी। इस समिति में पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह भी शामिल हैं। माना जा रहा है कि समिति जानना चाहती थी कि रिज़र्व बैंक को और किस तरह के अधिकार चाहिए जिससे कि भविष्य में इस तरह के घोटाले संभव न हो सकें। लेकिन सवाल है क्या आर्थिक विद्वानों के आपसी सवाल जवाब से आम लोगों का बैंकों पर विश्वास फि र से लौट आयेगा? यह संभव नहीं है।  इसलिए सरकार को लोगों की बैंकों पर विश्वास बहाली के लिए कुछ और ठोस कदम उठाने चाहिए।