दो सरकारी बैंकों के अचानक निजीकरण की चर्चा क्यों ?

साल 2017 में सार्वजनिक क्षेत्र के कुल 27 बैंक थे, आज इनकी संख्या घटकर कुल 12 रह गयी है। साथ ही पिछले कई सालों से नौकरशाही के गलियारे में यह धारणा आम है कि साल 2029 के चुनावों से काफी पहले इनकी संख्या घटकर कुल 4 रह जायेगी। लेकिन यह सब 2024 के चुनावों के बाद प्रस्तावित था, लेकिन पिछले एक पखवाड़े में तेज़ी से घटनाक्रम बदला है और अचानक सुनाई पड़ रहा है कि सरकारी बैंकों के निजीकरण के लिए रातोंरात एक नई लिस्ट तैयार हुई है। इस चर्चा के मुताबिक पिछले दिनों वित्त मंत्रालय, नीति आयोग और भारतीय रिजर्व बैंक के प्रतिनिधियों का एक पैनल बन चुका है, जिसने जल्द ही दो सरकारी बैंकों के निजीकरण की सिफारिश की है। ये दो बैंक हैं- सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया और इंडियन ओवरसीज बैंक।
गौरतलब है कि इन दो बैंकों के निजीकरण को लेकर चर्चा वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने साल 2021-22 के बजट में भी की थी। तब एक सामान्य बीमा कंपनी और एक कारपोरेट बैंक आईडीबीआई के भी निजीकरण का ऐलान हुआ था। लेकिन यह ऐलान पिछले दो सालों में अमलीजामा नहीं पहन सका था, इसलिए मान लिया गया था कि अब साल 2024 के आम चुनावों के पहले बैंकों के निजीकरण पर कोई चर्चा संभव नहीं है। लेकिन अचानक जिस तरह से आनन फानन में दो बैंकों के निजीकरण की बात नौकरशाही के गलियारे में तेज़ हुई है, आखिर उसका मतलब क्या है? केंद्र सरकार ने पहले प्रस्तावित निजीकरण प्रक्रिया के तहत छोटे सरकारी बैंकों को बड़े बैंकों में विलय करने की नीति अपनायी थी, इसलिए 1 अप्रैल 2020 तक जब 10 छोटे सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का इसी क्षेत्र की बड़े बैंकों में विलय कर दिया गया, तो कुल 12 सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक बचे। जोकि 2017 में 27 थे। अब जो सरकारी बैंक बचे हैं, वे इस प्रकार हैं- भारतीय स्टेट बैंक, पंजाब नेशनल बैंक, बैंक ऑफ बड़ौदा, केनरा बैंक, पंजाब एंड सिंध बैंक, इंडियन बैंक, यूनियन बैंक ऑफ इंडिया, बैंक ऑफ इंडिया, बैंक ऑफ महाराष्ट्र, सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया, यूको बैंक और इंडियन ओवरसीज बैंक।
इन 12 बैंकों में से सरकार ने दो बैंको यानी सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया तथा इंडियन ओवरसीज ऑफ बैंक का आनन फानन में निजीकरण करने की सोच रही है। आखिर यकायक इस निजीकरण की सुगबुगाहट का कारण क्या है? जबकि पिछले कई महीनों से यह लगभग मान लिया गया था कि बैंकों के निजीकरण की कोई भी योजना 2024 के पहले अस्तित्व में नहीं आयेगी, तो फिर अचानक इस सुगबुगाहट की वजह क्या है? कहीं ऐसा तो नहीं है कि मौजूदा केंद्र सरकार को यह लगने लगा हो कि वह साल 2024 से चुनाव के बाद सत्ता में नहीं आयेगी? इसलिए उसे शायद इन बैंकों के निजीकरण की प्रक्रिया से जो लाभ मिल सकता है, वह न मिले। इसीलिए वह आनन फानन में निजीकरण करने की सोच रही है? हालांकि यह आसान नहीं है, क्योंकि अगर नौकरशाही के गलियारों में और इस प्रस्तावित निजीकरण के बारे में सुनें तो वहां एक बात बहुत स्पष्ट तौर से कही जा रही है कि सरकार के पास इतने बड़े पैमाने पर सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के निजीकरण हेतु कोई कानूनी व्यवस्था नहीं है। जब तक बैंकों के निजीकरण को लेकर नया कानून अस्तित्व में नहीं आ जाता, तब तक यह संभव नहीं है।
हालांकि सरकार ने बैंकिंग कानून (संशोधन) बिल 2021 को संसद में पारित कराने के लिए लिस्ट दो बार कर चुकी है, लेकिन अभी तक इसे संसद के पटल पर सरकार की ओर से पेश नहीं किया गया, जिसके पीछे कारण यही माना जा रहा था कि सार्वजनिक क्षेत्रों के बैंकों के निजीकरण के लिए अब सरकार 2024 के बाद योजना बना रही है। इसीलिए फिलहाल इस बिल को भी ठंडे बस्ते में ही डालकर रखा गया है। लेकिन लगता है कि सरकार को चुनावों तक अपनी बेहतर आर्थिक स्थिति बनाये रखने के लिए वित्त की भारी कमी महसूस हो रही है, इस वजह से साल 2023-24 के बजट के पहले ही वह धन की व्यवस्था के लिए आनन फानन में दो बैंकों के निजीकरण को अमलीजामा पहनने की कोशिश में है। इसी वजह से नीति आयोग और रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया आपस में बैठकर तेज़ी से इसकी रूपरेखा बना रहे हैं। लेकिन अगर सरकारी कामकाज के तौर तरीकों को देखें तो लगता नहीं है कि अब इसके लिए समय बचा है। इसकी दो वजहें हैं, एक तरफ जहां यह आशंका है कि शायद अगली बार चुनकर मोदी सरकार न आ सके या इतनी ताकतवर न रह सके, जिसके कारण प्रस्तावित बैंकों के निजीकरण की योजना संकट में पड़ जाए। इसलिए सरकार अगली सरकार बनाने पर भरोसा करने के पहले ही इस निजीकरण को अंजाम देना चाहती है।
लेकिन यह आसान नहीं होगा। क्योंकि एक तरफ जहां साफ दिखने वाली आर्थिक परेशानियां हो सकती हैं, वहीं उससे भी ज्यादा स्पष्ट तौर पर यह देखना मुश्किल नहीं है कि बड़े पैमाने पर बड़े सरकारी बैंकों के निजीकरण से आम लोग भड़क सकते हैं, क्योंकि सरकार की बहुत कोशिशों के बाद भी अभी तक देश में निजीकरण को या विनिवेशीकरण को सकारात्मक अर्थनीतियों का हिस्सा नहीं बनाया जा सका। भावनात्मक रूप से लोगों को सरकारी संपत्तियों के बिकने या उसमें निजीकरण का दखल पड़ने से ठेस पहुंचती है; क्योंकि आमजन जोकि आम मतदाता भी हैं, उनकी भावनाएं आहत होती हैं। जब वो सुनते हैं कि सरकारी क्षेत्रों का निजीकरण हो रहा है। दरअसल हमारे देश में निजीकरण को अच्छी बात नहीं माना जाता, इसे एक तरह से आर्थिक नीतियों के असफल होने और आर्थिक रूप से देश के कमजोर होने की निशानी समझा जाता है। इसलिए चुनावों के पहले इस भावनात्मक मुद्दे को सरकार नहीं छेड़ सकती। लेकिन दूसरी तरफ जो दिख रही परेशानी है, वह यह है कि वित्तीय वर्ष 2023 के लिए सरकार ने 65 हजार करोड़ रुपये के विनिवेश का लक्ष्य रखा था। लेकिन पिछले महीने तक खींचतान करके 32 हजार करोड़ रुपये का ही विनिवेश हो सका है और सबसे बड़ी बात यह है कि कई सार्वजनिक कंपनियों का विनिवेशीकरण संकट से घिर गया है।
विनिवेश के विरोध में बड़े-बड़े आंदोलन भी उभर आये हैं। ऐसे में यह विनिवेश संभव होता नहीं दिख रहा। नतीजतन अपनी योजना से कम विनिवेश पाने के कारण शायद सरकार आनन फानन में दो बैंकों के निजीकरण की योजना बना रही है। लेकिन यह योजना अगर तेज़ी से संभव हो सकी तब तो अमल में आ सकती है। लेकिन अगर जरा भी इसमें राजनीतिक पेंच फंस गया तो सरकार को लेने के देने पड़ सकते हैं। ऐसे में तमाम सुगबुगाहट के बावजूद अभी यह पूरी तरह से संभव लगता नहीं है कि सरकार इस दुधारी तलवार को ठीक चुनावों के पहले भांजने की कोशिश करेगी।

-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर