पर्यावरण को बचाने में महिलाओं का योगदान

वर्तमान दौर की सबसे बड़ी और भयावह समस्या है तापमान का निरंतर बढ़ना ग्लोबल वार्मिंग के चलते पृथ्वी का तापमान निरंतर बढ़ रहा है। पीने के लिए पानी लगातार कम हो रहा है। हरे-भरे जंगलों की जगह कंकरीट के शहर बसते जा रहे हैं, बचे हुए जंगल आग की भेंट चढ़ रहे हैं। लगातार गर्म होती धरा से प्राकृतिक संसाधन हम ही खत्म कर रहे हैं। पर्यावरण की अहमियत को जब तक जन मानस प्राथमिकता नहीं देगा तब तक विकास के नाम पर पर्यावरण के साथ खिलवाड़ होता रहेगा। आज जब पर्यावरण अपनी स्थिति पर आंसू बहा रहा है, इसे बचने के लिए सबको आगे आने की ज़रूरत है, विशेषकर महिलाओं को। पर्यावरण और महिलाओं का अटूट सम्बन्ध है। नारी को सृजन का महत्व और उसे पोषित करने का भी हुनर मिला हुआ है कुदरत से। प्रकृति और औरत दोनों ही सृजन करती हैं और दोनों ही अनगिनत कष्ट उठाकर भी अपने बच्चों का पालन करती हैं। धरती ने हमें कई बहुमूल्य प्राकृतिक संसाधन उपहार स्वरूप दिए हैं जैसे पानी, जंगल, हवा, पेड़, पौधे आदि। प्रकृति औसतन जितने संसाधन साल भर के लिए बनाती है उसका इस्तेमाल हम पहली छमाही में ही कर डालते हैं तो बाकी बचे हुए समय में हम इन संसाधनों का धड़ल्ले से बिना किसी परेशानी के दोहन करते हैं। इसी तरह अगर हम इनका दोहन करते रहे तो शीघ्र ही हमारी धरती हमें स्वछ हवा और पीने को पानी भी नहीं दे पायेंगी। हमारे देश में आज भी महिलाएं वृक्षों, नदियों एवं कुओं की पूजा-अर्चना करती हैं जो कि उनके प्रकृति प्रेम एवं प्रकृति के प्रति आस्था का परिचायक है। वृक्षों में विशेष रूप से आंवला, पीपल, वट, केला एवं तुलसी की पूजा की जाती है। गौरतलब है कि पीपल अत्यधिक मात्रा में ऑक्सीजन छोड़कर एवं उससे लगभग दुगुनी मात्रा में कार्बनडाईआक्साइड गैस को अवशोषित करके पर्यावरण शुद्धि में महत्ती भूमिका निभा रहा है। नारी शक्ति पर्यावरण का संरक्षण करके सम्पूर्ण विश्व को ‘ग्लोबल वार्मिंग’ के अभिशाप से मुक्ति दिला सकती है। ग्रामीण महिलाएं खेती का कार्य करते हुए प्रकृति एवं पर्यावरण से सीधे जुड़ी हुई है। इस संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि पर्यावरण प्रदूषण का सर्वाधिक दुष्प्रभाव गा्रमीण महिला वर्ग को ही झेलना पड़ता है क्योंकि इनकी निर्भरता प्रकृति पर सर्वाधिक है। अत: ग्रामीण महिलाओं को पर्यावरण के प्रति संवेदनशील बनाकर पर्यावरण का संरक्षण किया जाना संभव है। सर्वविदित है कि महिलाओं की भूमिका कृषि व पशुपालन व्यवसाय में महत्वपूर्ण है। लगभग 70 प्रतिशत पशुपालन संबंधित गतिविधियों का संचालन ग्रामीण महिलाओं के द्वारा ही किया जाता है। महिलाएं पशुओं के गोबर आदि का उपयोग ‘जैविक खाद’ के रूप में करके ‘जैविक खेती’ के मार्ग पर अग्रसर हो सकती हैं। जैविक खेती को बढ़ावा देने से रासायनिक उर्वरकों के उपयोग में कमी आएगी जिससे काफी हद तक भू-प्रदूषण की समस्या के समाधान में मदद मिलेगी। यही नहीं, आज विश्व में जैविक उत्पादों की मांग व कीमत में तीव्र गति से बढ़ोतरी हो रही है जिसके कारण महिलाओं की आर्थिक परिस्थिति मज़बूत होगी तथा पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव भी कम होंगे।

                —आरती लोहनी