अरे दीवानो, हमें पहचानो.... सलीम-जावेद

जब तक ये दोनों इकट्ठे रहे सफलता इनके पैरों को चूमती रही थी। लगभग 24 फिल्में उन्होंने मिलकर लिखीं। इनमें से ‘अधिकार’ (1971), ‘मजबूर’ (1974), ‘यादों की बारात’ (1973), ‘त्रिशूल’ (1978), ‘दोस्ताना’ (1980), ‘क्रांति’ (1980), ‘ज़ख्म’ (1985), ‘मिस्टर इंडिया’ (1987) और ‘दीवार’ आदि के नाम प्रमुख तौर पर लिए जा सकते हैं। इनमें से बहुत सारी फिल्म शोले, यादों की बारात, दीवार, मिस्टर इंडिया) ने तो बॉक्स आफिस पर धूम ही मचा दी थी। लेकिन कई फिल्में तो साधारण कामयाबी ही हासिल कर सकी थीं । ‘आखिरी दाव’ (1975), ‘इन्सान धर्म’ (1977), ‘काला पत्थर’ (1979) और ‘शान’ औसत दर्जे की फिल्में ऐलान की गई थीं। लेकिन इनका सबसे बड़ा योगदान यह है कि इन्होंने पटकथा लेखक के दर्जे को सम्मान योग्य बनाया। इनसे पहले लेखक को बतौर एक मुनीम ही समझा जाता था। इनके लेखकों के प्रति इस योगदान को एक छोटी-सी घटना से आसानी से ही समझा जा सकता है। निर्माता-निर्देशक प्रकाश मेहरा ने ‘जंज़ीर’ के लिए जो पोस्टर बनवाए थे, उनमें इनका नाम शामिल नहीं था। जब यह पोस्टर बंबई की सड़कों पर लगे तो इनको बहुत गुस्सा आया, तो उन्होंने खुद ब्रुश पकड़ा और जहां भी सम्भव हो सका, अपने ही हाथों से अपना ही नाम बतौर लेखक शामिल किया। अहंकार के टकराव के कारण यह रचनात्मक स्तर के दिमाग अलग हो गए थे। अलग होकर जावेद ने प्रमुख तौर पर बतौर गीतकार ही अपना नाम चमकाया है। ‘सिलसिला’, ‘बेताब’, ‘तेज़ाब’, ‘वीर-ज़ारा’ और ‘जोधा-अकबर’ आदि के लिए उन्होंने सृजनात्मक योगदान भी दिया था। अपनी बेटी जोया अख्तर और बेटे फरहान अख्तर की फिल्में ‘दिल चाहता है’, ‘तलाश’, ‘रॉकआन’, ‘ज़िंदगी न मिलेगी दोबारा’ के लिए भी उन्होंने अपनी सेवाएं बाखूबी दी थीं। समय-समय पर जावेद ने उर्दू शायरी के क्षेत्र में भी अपना नाम काफी चमकाया है। कुछ ही समय पहले उनका उर्दू काव्य-संग्रह (तर्कश) बाज़ार में आया था। लेकिन फिर भी जो जादू इस ‘जादू’ (जावेद के बचपन का नाम) ने सलीम के साथ मिलकर जगाया था, वह टूट चुका है। हां, उन्होंने बतौर राज्यसभा के सदस्य बनकर कुछ नेताओं के भाषण/तकरीरें ज़रूर पृष्ठभूमि में रहकर लिखी थीं। दूसरी ओर सलीम खान ने भी कहने को तो कलम का सफर जारी रखा है, लेकिन ऐसा लगता है कि उनकी रचनाओं में असली आत्मा ही गायब हो गई लगती है। उन्होंने ‘नाम’, ‘कब्ज़ा’, ‘तूफान’, ‘पत्थर के फूल’ और ‘आ गले लग जा’ जैसी फिल्में लिखी हैं। अपने बेटों (सोहेल और अरबाज़) की फिल्मों की कई पटकथाएं (दबंग) उन्होंने बनाने में सहायता भी की है। लेकिन उनका जलवा भी समाप्त हुआ लगता है। जब यह जोड़ी एक साथ थी तो इनको 13 फिल्म फेयर अवाडज़र् मिले थे। नासिर हुसैन जैसे पुराने लेखक अपनी फिल्मों (यादों की बारात) की पटकथाएं लिखने के लिए अपने घर रोज़ बुलाते थे। किसी भी चर्चित फिल्मी सितारे के बराबर इनका रुतबा और मुआवज़ा भी हुआ करता था। इस जोड़ी के पास इतना ज्यादा काम होता था कि जुहू जैसे महंगे और पॉश इलाके में इन्होंने एक फ्लैट किराए पर लिया हुआ था। यहां ही बैठ कर वह प्रतिदिन नए दृश्य और संवाद सृजन करते होते थे। अब यह फ्लैट एक मॉल शाप में तबदील हो गया है। यहां अन्य चीज़ें तो मिल सकती हैं, लेकिन सलीम-जावेद के पात्र नहीं। जब यह जोड़ी यहां से गुजरती होगी तो सोचती तो होगी कि आदमी जो करता है, आदमी जो देता है ज़िंदगी भर वो सदाएं पीछा करती हैं। प्यास कभी मिटती नहीं, एक बूंद भी मिलती नहीं, और कभी रिमझिम घटाएं पीछा करती हैं.... (मजबूर)