सोच बदलेगी तो समाज बदलेगा

भले ही आज हमारी सोच में काफी बदलाव आया है। शिक्षा के प्रसार ने विचारों को भी काफी हद तक प्रभावित किया है। फिर इस समाज में ऐसे लोगों की संख्या आज भी कम नहीं है, जो बेटी-बेटे में आज भी अंतर करते हैं। सदियों से बेटी के प्रति यह पक्षपात पूर्ण रवैया आज भी अपनी जड़ें जमाये हुए है। कन्या वध का यह अमानवीय सिलसिला पुराने समय से ही चला आ रहा है। कन्या को बोझ समझने वाले लोग अमानवता की सारी हदें पार कर जाते थे। गला दबा देना, ज़िंदा द़फन कर देना, नशे की अधिक मात्रा दे देना आदि अनेक दिल दहला देने वाले कृत्य किए जाते थे। कई प्रदेशों में तो ‘दूधखौली’ नामक एक कुप्रथा प्रचलन में थी, जिसके आधार पर नवजात मादा शिशु को खौलते दूध में डाल दिया जाता और इस घिनौने कृत्य को उसकी ‘मुक्ति’ का आवरण पहना दिया जाता था। समय बदलने के साथ कई समाज सुधारक सामने आये, जिन्होंने इस कुप्रथा का अंत करने के लिए कई महत्त्वपूर्ण कदम उठाये, लोगों में शिक्षा के माध्यम से जागृति लाने के प्रयास किए। यद्यपि पढ़ा-लिखा वर्ग उनके विचारों से खासा प्रभावित हुआ तथापि समाज के एक बड़े हिस्से पर इसका अधिक असर नज़र नहीं आया।  फिर आया तकनीकी क्रांति का युग। विज्ञान के वरदान को भी समाज की संकुचित सोच ने अभिशप्त कर डाला। भ्रूण परीक्षण के माध्यम से लोगों ने जीवनदायिनी मां की कोख को भी बच्ची की कब्रगाह बनाने से कदापि संकोच नहीं किया। देश भर में 0 से 6 वर्ष के आयु वर्ग ने लिंगानुपात जोकि 2001 की जनगणना में 927 था वह वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार 121 करोड़ की कुल जनसंख्या में मात्र 3.73 करोड़ महिला संख्या में सिमट कर रह गया। चिंताजनक गिरावट को देखते हुए सरकार को भ्रूण परीक्षण करना व करवाना अवैध घोषित करने हेतु कानून लागू करना पड़ा। 
22 जनवरी, 2015 को हरियाणा के पानीपत ज़िले से ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ का नारा बुलंद किया गया व कन्या भ्रूण हत्या को रोकने हेतु युद्ध स्तर पर प्रचार-प्रसार आरम्भ किया गया। बालिकाओं के संरक्षण व सशक्तिकरण हेतु आरम्भ किया गया यह अभियान, महिला व बाल विकास मंत्रालय, स्वास्थ्य मंत्रालय, परिवार कल्याण मंत्रालय की एक संयुक्त पहल है, जिसे निम्न लिंगानुपात वाले 100 ज़िलों में प्रारम्भ किया गया है। कन्या जन्म दर की वृद्धि हेतु केन्द्रीय व राज्य सरकारों द्वारा अभूतपूर्व प्रयास किए जा रहे हैं। मीडिया चाहे प्रिंट और अथवा इलैक्ट्रानिक, जन-जागरण का पूर्ण प्रयास करता स्वयं को वास्तव में लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ सिद्ध कर रहा है। रेडियो, टी.वी., अखबारों के माध्यम से सरकार द्वारा लड़कियों के लिए चलाई जाने वाली विभिन्न योजनाओं की जानकारी दी जाती रही है और दी जा रही है। ‘जननी सुरक्षा योजना’, ‘महिला आरोग्य समिति’, ‘सुकन्या समृद्धि खाता’ आदि प्रत्येक योजना का एक मात्र लक्ष्य कन्या जन्म दर को प्रोत्साहित एवं सशक्त करना है। पंजाब में गर्भवती महिलाओं को तिमाही में रजिस्टर किया जाता है ताकि भ्रूण हत्या मामलों पर कड़ी नज़र रखी जा सके। 
यदि सूक्ष्म अवलोकन करें तो कन्या आज हर क्षेत्र में अग्रणी सिद्ध हो रही है। राजनीति, खेल या मनोरंजन प्रत्येक क्षेत्र में प्रभावी भूमिका का निर्वाह कर रही है। पुरुष के कदम से कदम मिला कर चल रही बेटियों ने यह सिद्ध कर दिया है कि किसी भी मायने में वह बेटों से कम नहीं। यदि उचित पालन-पोषण हो, उच्च शिक्षा का प्रावधान हो, तो वह अपना आकाश स्वयं निर्मित करने की क्षमता रखती है। जहां सरकार कानून लागू करती है वहां इस बात पर भी पूरा-पूरा ध्यान दिया जाना चाहिए कि उसका कड़ाई से पालन हो। कानून का उल्लंघन करने वाले व्यक्ति व संस्था के प्रति कठोर दंड का प्रावधान अत्यावश्यक है, जिससे ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति की सम्भावनाएं भी समाप्त हो जाएं। साथ ही साथ समाज के प्रत्येक व्यक्ति को सदियों से चली आ रही इस कुप्रथा के उन्मूलन में प्रभावी योगदान देना चाहिए। बेटा हो अथवा बेटी  कुदरत द्वारा प्रदत्त इस अमूल्य उपहार को सम्मान भाव से, सहर्ष स्वीकार कर उनका उचित पालन-पोषण करना चाहिए। अमानवीय घटनाओं को अंजाम देने वाले नर पिशाचों को सतर्क व शीघ्र छानबीन से पकड़ कर दंडित किया जाना ज़रूरी है ताकि ऐसी कुत्सित सोच रखने वाले लोगों के लिए एक बड़ा सबब हो। बेटा-बेटी में कोई अंतर नहीं। अंतर है तो बस हमारी समझ का, हमारे दृष्टिकोण का। 

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