आज प्रकाश दिवस पर विशेष : सिखी के प्रचार में गुरु हरिकृष्ण जी का योगदान

श्री गुरु हरिकृष्ण जी का जन्म श्री गुरु हरिराय साहिब और माता कृष्ण कौर के घर शीश महल कीरतपुर में हुआ। राम राय जी आपके बड़े भाई थे, जो बहुत ही चुस्त-चालाक स्वभाव के थे। गुरु-घर के कुछ मसंदों के साथ भी उनकी साठ-गांठ थी।  गुरु हरिराय साहिब जी का बड़ा साहिबज़ादा होने के कारण वह स्वयं को गुरु गद्दी के योग्य और विरासती अधिकार समझते थे। जब उस समय के बादशाह औरंगज़ेब ने गुरु हरिराय साहिब जी को दिल्ली बुलाया तो गुरु जी ने रामराय को बादशाह को मिलने के लिए भेजा। रामराय को सख्त निर्देश दिए गए कि गुरु घर के आशय के विरुद्ध कोई बात नहीं करनी और न माननी है, चाहे इसके बदले कितनी भी कीमत क्यों न चुकानी पड़े। राम राय जब बादशाह को मिले तो उसने बादशाह की खुशी हासिल करने के लिए बादशाह की बहुत खुशामद की। उन्होंने बहुत कुछ गुरु आशय के विरुद्ध भी बोला। यहां तक कि गुरु नानक साहिब की पावन वाणी की यह पंक्ति ‘मिट्टी मुसलमान दी पेड़ै पई कुमिआर’ बदल कर ‘मिट्टी बेईमान दी’ पढ़ा और कहा कि ऐसा लिखने वाले की गलती से हुआ है। असल शब्द मुसलमान नहीं, बेईमान है। यह गुरुवाणी का घोर अपमान था, जिसकी किसी सिख की तरफ से कोई उम्मीद भी नहीं की जा सकती थी। जब गुरु हरि राय साहिब को राम राय की इस गलती का पता चला तो उन्होंने आदेश दे दिया कि हमारे समक्ष नहीं आना। गुरु जी ने सिख संगतों को आदेश दिया कि राम राय से किसी तरह का कोई व्यवहार, मेल-मिलाप, बोलचाल न रखी जाए। सिख संगतों ने गुरु के आदेश को सहर्ष स्वीकार किया। गुरु हरिराय साहिब ने अपना अंतिम समय नज़दीक आने पर गुरु गद्दी की महान ज़िम्मेदारी अपने छोटे सुपुत्र (गुरु) हरिकृष्ण जी को सौंप दी। गुरु गद्दी की ज़िम्मेदारी सौंपने से पूर्व गुरु हरिराय जी ने (गुरु) हरिकृष्ण जी को हिदायत दी कि बादशाह औरंगज़ेब के सामने नहीं जाना। गुरु गद्दी पर विराजमान होते समय गुरु हरिकृष्ण जी की आयु केवल 5 वर्ष और कुछ महीने की थी। गुरु नानक ज्योति के उत्तराधिकारी बनने के लिए संसारिक आयु, रिश्ते और विरासत का कोई संबंध नहीं, गुरु-घर में योग्यता ही प्रधान है। गुरु हरिराय साहिब जी के अकाल चलाने के बाद गुरु हरिकृष्ण जी गुरु गद्दी पर विराजमान हुए। सिख संगतें गुरु जी दर्शन कर निहाल हुईं। गुरु जी, गुरु नानक ज्योति के आशय अनुसार नित्य संगतों को आध्यात्मिक उपदेश देते, शंका दूर करते और नाम-दान की बख्शीशें देते। गुरु जी ने प्रचार हेतु मसंदों की ड्यूटियां अलग-अलग क्षेत्रों में लगाईं। राम राय द्वारा गुरु हरिकृष्ण जी का विरोध करना स्वाभाविक था क्योंकि राम राय तो स्वयं को हर प्रकार से गुरु गद्दी के योग्य समझते थे। गुरु गद्दी की रस्मों के समय राम राय दिल्ली में थे। राम राय से कुछ मसंदों ने हाथ तो पहले ही मिलाया हुआ था और लालच देकर अपने साथ और मसंदों को भी जोड़ लिया। मसंदों को राम राय ने कहा कि वे दूर-नज़दीक रहकर यह प्रचार करें कि सिखों के आठवें गुरु राम राय हैं। मसंदों ने ऐसा प्रचार करना शुरू कर दिया और दसवंध इकट्ठा करके कुछ स्वयं खाते और कुछ राम राय को भेज देते। इसी तरह कुछ समय तो ऐसे ही चलता रहा, लेकिन झूठ की दुकान कितनी देर तक चल सकती थी। सिख संगतों को जब राम राय की इन बातों का पता चला तो उन्होंने राम राय को गुरु मानने से इन्कार कर दिया। राम राय अपनी पेश न चलते देख, बादशाह के दरबार में फरियाद लेकर गए और कहा, मैं गुरु हरिराय साहिब जी का बड़ा सुपुत्र हूं। इस कारण गुरु गद्दी पर मेरा अधिकार है। मेरा अधिकार मार कर (गुरु) हरिकृष्ण को गुरु गद्दी सौंप दी गई है। मुझे मेरा अधिकार मिलना चाहिए जिस पर मेरा विरासती अधिकार है। मेरा कसूर सिर्फ इतना है कि मैं आपका व़फादार हूं। मेरे पिता जी शुरू से ही आपके विरुद्ध थे और उन्होंने मेरे छोटे भाई हरिकृष्ण को गुरु गद्दी देते समय यह आदेश दिया था कि वह आपके सामने न आये। औरंगज़ेब जो बहुत ही चालबाज़ था ने सोचा कि अगर गुरुगद्दी मेरे व़फादार राम राय को मिल जाए तो मैं धर्म परिवर्तन शांतिपूर्वक ढंग से करवा सकूंगा और अगर कोई समझौता न हुआ तो इन दोनों भाइयों में झगड़ा होता रहेगा, जिसका मुझे ही लाभ है। यह सोच कर औरंगज़ेब ने गुरु हरिकृष्ण जी को दिल्ली आने के लिए निमंत्रण भेजा। इधर राम राय ने सोचा, ‘अगर गुरु हरिकृष्ण दिल्ली आकर बादशाह को मिलते हैं तो मैं सिख संगतों में प्रचार करूंगा कि गुरु हरिकृष्ण जी ने गुरु पिता के अंतिम आदेश का उल्लंघन किया और अगर गुरु जी नहीं आते तो यह बादशाह के आदेश का उल्लंघन होगा। मेरे लिए दोनों तरफ से रास्ते साफ हो जाएंगे।’ श्री गुरु हरिकृष्ण जी ने गुरु पिता के अंतिम आदेश अनुसार बादशाह औरंगज़ेब को मिलने से साफ इन्कार कर दिया। गुरु घर के श्रद्धालु-सेवक मिज़र्ा राज जय सिंह ने गुरु जी को निमंत्रण भेजा कि गुरु जी दिल्ली आएं और सिख संगतों को दर्शन देकर निहाल करें। वह बादशाह को चाहे न मिलें। सिख संगतों की ओर से निवेदन पत्र मिलने पर गुरु जी ने दिल्ली जाने का फैसला कर लिया। बहुत सारी स्थानीय संगतें और माता जी के साथ गुरु जी दिल्ली की ओर रवाना हो गए। गुरु संगतों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती देख कर गुरु जी ने उपस्थित संगत के अलावा शेष संगतों को वापिस जाने के लिए कहा। पंजोखरा साहिब के स्थान पर गुरु जी ने पड़ाव किया और घमंडी पंडित लाल चंद की शंका को दूर करने के लिए छज्जू नामक साधारण व्यक्ति की ओर से गीता के अर्थ करवाए। इसी तरह गुरु जी सिख संगतों को दर्शन देते हुए दिल्ली पहुंचे। दिल्ली में गुरु जी मिज़र्ा राजा जय सिंह के बंगले में ठहरे (जहां आजकल गुरुद्वारा बंगला साहिब स्थापित है)। नित्य संगतें गुरु दर्शन के लिए आतीं और दर्शन करके तृप्त होतीं। औरगज़ेब ने दर्शन करने की इच्छा ज़ाहिर की, लेकिन गुरु जी ने इन्कार कर दिया। राम राय के दावे संबंधी गुरु जी से बातचीत करने के लिए औरंगज़ेब ने एक सेवादार की ड्यूटी लगाई। गुरु जी ने सेवादार को स्पष्ट किया कि गुरु नानक ज्योति पर किसी का विरासती अधिकार नहीं। इसके लिए केवल योग्यता ज़रूरी है। दूसरा राम राय ने ऐसा घटिया काम किया है कि जिसकी किसी भी गुरु घर के चाहवान से उम्मीद नहीं की जा सकती। जब बादशाह को सेवादार के द्वारा इन बातों का पता चला तो उसने राम राय का दावा खारिज कर दिया। राम राय ने भी पेश न चलते देख अपनी जागीर देहरादून में ही डेरा लगाना ठीक समझा। गुरु हरिकृष्ण जी की आध्यात्मिक शक्ति की परख के लिए कई तरह से आज़माया गया, जैसे रानी की पहचान करना। गुरु हरिकृष्ण जी कुछ समय दिल्ली प्रचार की सेवा करते रहे। रोज़ाना नियम से दीवान सजाना, संगतें गुरु दर्शन कर तृप्ति हासिल करतीं। जो कुछ संगतें दर्शन-भेट के समय देतीं वह गुरु जी सब कुछ ज़रूरतमंदों में बांट देते। गुरु हरिकृष्ण जी केवल तीन वर्ष तक गुरु गद्दी पर विराजमान हुए। इस समय के दौरान गुरु जी ने जिस आध्यात्मिक शक्ति का प्रदर्शन किया, वह एक उदाहरण है चाहे राम राय का विरोध था या बादशाही आदेश, गुरु जी दृढ़ रहे। किसी प्रकार की सांसारिक बादशाही के भय-डर को कबूल नहीं किया। यही कारण है कि भाई गुरदास द्वितीय ने गुरु  हरिकृष्ण जी का अष्टम बलबीरा कहा है। भाई गुरदास जी कथन करते हैं :
हरिकृष्ण भयो असटम बलबीरा।
जिन पहुंचि देहली तजिओ सरीरा।
(वारां भाई गुरदास जी 41/22)

-डा. रूप सिंह