पेट्रोलियम पदार्थों की बढ़ती कीमतों का कमर-तोड़ प्रभाव

पिछले पखवाड़े एक दिन भी ऐसा नहीं रहा जब देश के पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में वृद्धि न हुई हो। इस समय पेट्रोल की कीमतें लगातार बढ़ते हुए, महानगरों में 87 रुपए प्रति लीटर के आसपास हैं। डीज़ल भी पीछे नहीं। कभी डीज़ल और पेट्रोल की कीमतों में कम से कम 20 रुपए प्रति लीटर का अन्तर होता था, आज वह कम होता-होता मात्र सात या आठ रुपए रह गया है। इसी अन्तर के कारण डीज़ल कारों की बहुत मांग होने लगी थी। ज्यों-ज्यों यह अन्तर कम होता जा रहा है, डीज़ल वाहन उद्योग की मांग बुरी तरह से गिरी है। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं कि पर्याप्त बिजली आपूर्ति के अभाव में आज आधुनिक खेती की जीवन रेखा भी डीज़ल उपकरण बन गये हैं।लेकिन डीज़ल की बढ़ती हुई कीमतों ने किसानों को असमर्थ बना दिया। उनकी कृषि की लागत बढ़ गई। सरकार ने नये बजट में किसानों की फसलों की लागत पर पचास प्रतिशत लाभ का वायदा किया था। लेकिन यह वायदा पुरानी निश्चित लागत पर है। डीज़ल कीमतें बढ़ने से डीज़ल पम्प सैटों और अन्य उपकरणों की बढ़ती लागत का संज्ञान नहीं लिया जाता, जिसके कारण बढ़ी कीमत भी किसान को कोई अतिरिक्त लाभ नहीं दे पाती। अगर डीज़ल कीमतों पर नियंत्रण हो जाता तो किसान कुछ अधिक कमाई प्राप्त कर लेता। लेकिन ऐसा हो न सका और असंतुष्ट किसान आज भी ‘करो या मरो’ के आंदोलन के कगार पर खड़ा है।यही नहीं, आम आदमी के बजट को भी इन बढ़ती हुई कीमतों ने ग्रहण लगा दिया। एल.पी.जी गैस सिलेंडरों की कीमतें इस मोदी काल में लगभग दुगुनी हो गईं। सड़क परिवहन निरन्तर महंगा हो रहा। हिमाचल की पैंतीस सौ निजी बसें हड़ताल पर चली गईं, क्योंकि डीज़ल की कीमतों ने उनकी परिवहन लागत के बखिये उधेड़ दिये। अब वे अपने यात्रा भाड़े में पांच से दस रुपए की वृद्धि चाहते हैं, जिसका सीधा असर आम आदमी की जेब पर पड़ेगा।जहां तक पेट्रोल कीमतों में निरन्तर वृद्धि का सवाल है। आज साधारण व्यक्ति तक अपने आने-जाने के लिए स्कूटी से लेकर छोटी-बड़ी कारों का इस्तेमाल करता है। पेट्रोल की कीमतों में निरन्तर वृद्धि आज एक दु:संवाद बन गई है। न केवल यह दैनिक बजट पर भारी बोझ है, बल्कि लोगों के रोज़मर्रा के कामों और गतिशीलता में बाधा बन रही है। देश पहले ही निष्क्रिय है, अब यह और भी इस पक्षाघात से पीड़ित लगने लगा, जिससे देश की सकल घरेलू उत्पादकता और आय पर कुप्रभाव पड़ रहा है। क्रय-शक्ति घटने से लोगों की मांग में कमी आ रही है, जिसके कारण लोगों के उद्योग और व्यापार में मंदी का वातावरण छा रहा है।कहने को तो अभी भारत के सांख्यिकी विभाग ने दावा किया है कि देश की आर्थिक विकास दर इस वर्ष की पहली तिमाही में 8.2 प्रतिशत पर पहुंच गई है। लेकिन इसके साथ ही अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने भी भारत को चेतावनी दे दी है कि इस आर्थिक विकास दर को बहुत स्थायी और गतिशील न मानियेगा, क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय कच्चे तेल की कीमतों में वृद्धि के कारण और उस कीमत पर लदे केन्द्रीय एक्साइज़ और राज्यों के वैट बोझ और स्थानीय करों के कारण उसकी कीमतों में कमी की कोई गुंजाइश नहीं। ये निरन्तर बढ़ेंगी और आर्थिक वृद्धि दर की गति को निरस्त कर देंगी। पेट्रोल और डीज़ल की निरन्तर बढ़ती कीमतों के सन्त्रास का सामना कांग्रेस और उसके साथ 21 दलों ने 10 सितम्बर को भारत बंद की कॉल ने किया। पूरे भारत में बाज़ार बंद, आक्रोश-पूर्ण धरना-प्रदर्शन हुए, इन्हें आंशिक सफलता मिली। इस भारत बंद की वजह से अगले आम चुनाव के लिए विपक्षी दलों का एक महागठबंधन भी तैयार होता दिखाई दिया, लेकिन इसका कोई सकारात्मक प्रभाव पेट्रोल और डीज़ल की उछलती कीमतों पर नहीं पड़ा। इसे केन्द्र अपनी एक्साइज़ और राज्य अपना वैट घटा कर सम्भव कर सकते थे। लेकिन सिवाय राजस्थान ने जो अभी विधानसभा चुनावों का सामना करने जा रहा है, किसी ने भी कर घटाने में रुचि नहीं दिखाई। केन्द्र का कहना है कि एक्साइज़ घटाने से उसके चालू खाते में इतना घाटा बढ़ जायेगा कि उसके लिए विकास कार्य तो क्या देय भुगतान भी कठिन हो जायेंगे। पंजाब सहित देश के अधिकतर राज्य भी अपनी वैट दर में कटौती के लिए तैयार नहीं, क्योंकि पहले ही उन्हें अपने खाली खजाने की समस्याओं से छुटकारा नहीं मिल रहा। सरकार पेट्रोलियम उत्पादों को जी.एस.टी. के दायरे में लाने के लिए भी तैयार नहीं, क्योंकि इससे उसे अपने कर राजस्व में भारी घाटा होता है। अत: फिलहाल तो जनता को पेट्रोलियम पदार्थों की बढ़ती कीमतों के भस्मासुर से छुटकारा दिखाई नहीं देता।