नोबेल विजेता नादिया मुराद दुनिया को यूं बताई आईएस की हकीकत 

इस साल का नोबेल शांति सम्मान कांगो के महिला रोग विशेषज्ञ डेनिस मुकवेगे और यजीदी महिला अधिकार कार्यकर्ता नादिया मुराद को मिला है। नादिया इसके पहले विश्व मीडिया की सुर्खियों में तब आयी थीं, जब कुछ साल पहले उसने आईएसआईएस के यातना कैंप से भागकर दुनिया को इन शान-ए मुस्तफा के सिपाहियों की जालिम हकीकत बतायी थी। वास्तव में उन्होंने ही इन आतंकियों की हकीकत का पर्दाफाश  किया था कि वे किस तरह इस्लाम की लड़ाई के नाम पर औरतों को उपभोग की मामूली चीज समझते हैं। अगर डॉ. डेनिस मुक्वेगे के साथ नादिया मुराद ने शांति पुरस्कार को बांटा है तो इसलिए कि उन्हीं की तरह उन्होंने भी दुष्कर्म की मर्दवादी हिंसा के विरुद्ध जन जागरूकता फैलाने का काम किया है। भले इसके लिए उन्हें अपनी क्रूर आपबीती बताकर अपनी तथाकथित इज्जत को तार-तार करना पड़ा हो। वास्तव में 25 वर्षीय नादिया मुराद को इस्लामिक स्टेट ने 2014 में अगवा कर लिया था। इसके बाद तीन महीने तक बंधक बनाकर उनके साथ दुष्कर्म किया गया था। बीबीसी रेडियो को नादिया ने अपनी आपबीती कुछ इस तरह सुनाई थी, ‘यह 3 अगस्त 2014 की बात है जब इस्लामिक स्टेट के चरमपंथियों ने हमारे गांव में धावा बोला। मैं अपनी मां और भाई-बहनों के साथ उत्तरी इराक में शिंजा के पास स्थित कोचू गांव में रहती थी। हमारे गांव में कोई 1700 लोग रहते थे। तकरीबन सभी लोग खेती का काम करते थे। मैं तब छठी कक्षा में पढ़ती थी। आईएस के लोगों ने गांव पर हमला करने से पहले किसी किस्म की कोई चेतावनी नहीं दी थी। जब हमारे गांव पर हमला किया गया तब तमाम लोग भागकर माउंट शिंजा पर चले गए। लेकिन हम जैसे कई लोग नहीं जा सके। हमें 3 से 15 अगस्त तक बंधक बनाए रखा गया। इसी दौरान खबरें आने लगी थीं कि उन्होंने तीन हजार से ज्यादा मर्दों का कत्ल कर दिया है तथा लगभग 5,000 महिलाओं और बच्चों को अपने कब्जे में ले लिया है। हम बहुत डरे हुए थे। हमें चेतावनी दी गई कि हम दो दिन के अंदर अपना धर्म बदल लें। 15 अगस्त को मैं अपने परिवार के साथ थी। आईएस के लगभग 1000 लड़ाके गांव में घुसे। वे हमें स्कूल में ले गए। स्कूल दो मंजिला था। पहली मंजिल पर उन्होंने पुरुषों को रखा और दूसरी मंजिल पर महिलाओं और बच्चों को। उन्होंने हमारे मोबाइल, पर्स, पैसा, जेवर सब कुछ छीन लिया। इसके बाद उनका नेता जोर से चिल्लाया, जो भी इस्लाम धर्म कबूल करना चाहते हैं, कमरा छोड़कर चले जाएं। हम जानते थे कि जो कमरा छोड़कर जाएंगे वो भी मारे जाएंगे। क्योंकि वो नहीं मानते कि यजीदी असली मुसलमान बन सकते हैं। इसलिए आईएस के लोग मानते हैं कि यजीदी को इस्लाम कबूल करना चाहिए और फि र मर जाना चाहिए। महिला होने के नाते हमें यकीन था कि वे हमें नहीं मारेंगे और हमें जिंदा रखेंगे और हमारा इस्तेमाल कुछ और चीजों के लिए करेंगे। वही हुआ जब मर्दों को स्कूल से बाहर ले जा रहे थे तो सही-सही तो पता नहीं कि किसके साथ क्या हो रहा था, लेकिन हमें गोलियां चलने की आवाजें आ रही थीं। इससे मैंने अनुमान लगाया कि मेरे भाई और दूसरे लोग मारे जा रहे थे। उन्होंने सभी मर्दों को गोली मार दी। यह नहीं देखा कि कौन बच्चा है कौन जवान और कौन बूढ़ा। लड़ाकों ने किसी को नहीं छोड़ा, सभी को मार दिया। फि र वे हमें दूसरे गांव ले गए। तब तक रात हो गई थी। उन्होंने हमें वहां एक स्कूल में हमें तीन ग्रुपों में बांटकर रखा। पहले ग्रुप में युवा महिलाएं थीं। दूसरे में बच्चे। तीसरे में बची महिलाएं। हर ग्रुप के लिए उनके पास अलग योजना थी। बच्चों को वो प्रशिक्षण शिविर में ले गए। जिन महिलाओं को उन्होंने शादी के लायक नहीं माना उनका कत्ल कर दिया जिसमें मेरी मां भी शामिल थी। रात में वे हमें मोसुल ले गए। अब वे हमारा दुष्कर्म कर रहे थे। मैं कुछ भी सोचने समझने की स्थिति में नहीं थी। अगले दिन हमें मोसुल में इस्लामिक कोर्ट में ले जाया गया। वहां हर महिला की तस्वीर ली गयी। वहां पहले से ही महिलाओं की हजारों तस्वीरें थीं। इन सबके साथ एक फोन  नंबर भी था। ये फोन नंबर उस लड़ाके का होता था जो उस महिला के लिए जिम्मेदार होता था। तमाम जगहों से आईएस लड़ाके उस इस्लामिक कोर्ट आते और तस्वीरों को देखकर अपने लिए लड़कियां चुनते। फि र पसंद करने वाला लड़ाका उस लड़ाके से मोलभाव करता जो उस लड़की को लेकर आया था। फि र वह चाहे उसे खरीदे, किराए पर दे या अपनी किसी जान-पहचान वाले को तोहफे में दे दे। वह उसकी प्रॉपर्टी थी। पहली रात मेरे पास एक बहुत मोटा लड़ाका आया। उसने कहा मैं तुम्हें चाहता हूं मगर मैं उसे बिल्कुल नहीं चाहती थी। मैं गिड़गिड़ाने लगी। मैं उसके साथ नहीं जाना चाहती। लेकिन मेरी एक नहीं सुनी गई। एक हफ्ते बाद मैंने वहां से भागने की कोशिश की और पकड़ी गयी। वे मुझे कोर्ट ले गए और सज़ा के तौर पर छह सुरक्षा गार्डों ने मेरे साथ दुष्कर्म किया। तीन महीने तक हर दिन मेरे साथ यह सिलसिला जारी रहा। एक दिन जब मैं एक पुरुष के साथ थी जो मुझे बेचना चाहता था इसलिए वह मेरे लिए कुछ कपड़े खरीदना चाहता था। मैं कमरे में अकेली थी। मैं खिड़की से कूदी और बेतहाशा भाग निकली। मैंने मोसुल की तंग गलियों में एक मुस्लिम परिवार का दरवाजा खटखटाया। उन्हें अपनी आप-बीती सुनाई। उन्होंने मेरी मदद की और कुर्दिस्तान की सीमा तक पहुंचाने में मेरी मदद की।’ नादिया के मुताबिक शरणार्थी शिविर में किसी ने मेरी आपबीती नहीं पूछी। मैं दुनिया को बताना चाहती थी कि मेरे साथ क्या हुआ और वहां बाकी महिलाओं के साथ क्या हो रहा है। संयोग से उन्हीं दिनों जर्मन सरकार ने वहां के 1000 लोगों की मदद करने का फैसला किया। मैं भी उन लोगों में शामिल थी। अपना इलाज कराने के दौरान एक संगठन ने मुझसे कहा कि मैं संयुक्त राष्ट्र में जाकर आप-बीती सुनाऊं। आज मैं इन कहानियों को सुनाने के लिए दुनिया के किसी भी देश में जाने को तैयार हूं। क्योंकि मेरी आप-बीती किसी एक शख्स की आपबीती नहीं है वह उस क्रूर महत्वाकांक्षा की हकीकत है, जिसे आईएस के आतंकी न्याय और धर्म की चाशनी में लपेटकर अपने कुकृत्य को जायज ठहराने की कोशिश करते हैं। अंतत: नादिया मुराद की ये कहानी ही उन आतंकियों के खिलाफ  उनका सबसे बड़ा हथियार बनी। उन्होंने पहली बार जब यूएन में अपनी कहानी सुनाई तो इसने सुनने वालों को  झकझोर दिया था। उसके बाद ही आधिकारिक रूप से यह बात सामने आई थी कि आईएसआईएस ने इराक और सीरिया के कई हिस्सों में महिलाओं की जिंदगी को नरक से भी बदतर कर दिया था। इसी के बाद उसे तहस-नहस करने के लिए मज़बूत वेस्टर्न एलायंस बना और आज यह लगभग सिमट चुका है।

-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर