बुराई पर अच्छाई की जीत का विजय पर्व दशहरा

समय के प्रवाह में न जाने कितने दिन, महीने और साल बीत गए, परन्तु रावण पर राम की विजय की गाथा आज भी हमारे भारतीय समाज में पूर्ण श्रद्धा और उल्लास के साथ मनाई जाती है। सदियों  पूर्व राम ने सत्य और शक्ति के बल पर रावण रूपी असत्य और बुराई का अंत किया था। तब से यह ऐतिहासिक कालजयी घटना हमारी आत्मा व संस्कृति में रच-बस गई है। विजय दशमी का पर्व विजय का उल्लास लिए प्रतिवर्ष हमारे जीवन प्रांगण में दस्तक देकर हमें एक शाश्वत संदेश का ज्ञान करा जाता है। शरद ऋतु के शुक्ल पक्ष की दशमी को सुरमयी संध्या के अरुणिम उजाले में एक जन-सैलाब उमड़ पड़ता है और रावण के पुतलों का दहन कर बुराई पर विजय का घोष करते हैं। गांव की पगडंडियों से लेकर शहरों के राजपथ तक हजारों लोग इस परम्परा के प्रतिभागी बनते हैं। इस प्रकार विजय दशमी की एक और संध्या विदा हो जाती है। पर्व का संदेश तथा उमंग भी इस दिन की तरह ही बीती बात हो जाते हैं। इस महान घटना में निहित संदेश भुला दिए जाते हैं। यदि रामकथा को मात्र रोमांचक कहानी न मानकर वर्तमान जीवन संदर्भों से जोड़कर इस घटना का विश्लेषण करें तो इस महान सत्य की अमूल्य निधि हमारा आंतरिक संबल बनकर हमें आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है। हमारा संपूर्ण जीवन त्रेता युग का दर्पण ही तो है। राम सत्य है तो रावण असत्य, और सीता आदि-शक्ति। जीवन आकाश पर जब पाप, अनाचार, ईर्ष्या, द्वेष, काम-वासना, क्रोध, मद और लोभ आदि बुराइयों के बादल छा जाते हैं, तब हमारी आत्मा में समाया सत्य मलिन होकर अपनी वास्तविक सत्ता भूल जाता है और यहीं से जीवन में बिखराव प्रारम्भ हो जाता है। आज चारों ओर असत्य और बुराइयां पांव पसारती जा रही हैं, जिससे जीवन की सभी क्षमताओं पर कुठाराघात हुआ है। ऐसे में आवश्यक है असत्य को परास्त करने के लिए सत्य और शक्ति को पुन: जागृत करने की। राम ने नवरात्रि में नौ दिन निरंतर शक्ति की आराधना की। तब जाकर वह दसवें दिन राम रावण का संहार कर सके। आज दुर्भाग्य यह है कि तीज-त्यौहारों में निहित संदेशों को, उनके शाश्वत सत्य को हम मात्र क्षणिक आनन्द समझते हैं, अथवा परिवर्तित होते संदर्भों में उसकी पारम्परिक वास्तविकता से मुकरते हुए आधुनिकता के दिखावेपन और भौतिकता के सुख-भोग ही ग्रहण करते जा रहे हैं। प्रश्न तब यह उठता है कि विजयदशमी के वास्तविक संदेश को कितने लोग आत्मसात कर रहे हैं? विजयदशमी को पर्व मानकर जिस बाहरी संपन्नता का परिचय हम देते आ रहे हैं, उसकी पड़ताल करने का अवसर यह पर्व एक बार पुन: हमें दे रहा है। आइए! हम सभी अच्छाई और सत्य के माथे पर विजय का तिलक लगाकर इस विजय-पर्व को सार्थक और सघन बनाएं। समय की यही पुकार है।

(युवराज)