इस बार कुम्भ में दिखेगा संस्कृति, संस्कार और वैभव का महासंगम

कुंभ धार्मिक आस्था और पारंपरिक मान्यताओं से जुड़े सार्वजनिक आयोजनों में से एक है। कुंभ, जिसका आयोजन प्राचीन काल से इलाहाबाद (प्रयागराज), हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में नदियों के तट पर होता आया है। समय बदला, युग बदला, सामाजिक सरोकार बदले और लोगों के रहन-सहन के तौर-तरीके बदले। लेकिन कुम्भ से जुड़ी आस्था, संस्कृति और विश्वास का मन-मिजाज नहीं बदला। कुम्भ पीढ़ी-दर-पीढ़ी भारतीयों के संस्कारों में रचा-बसा है। असाधारण आधुनिकता के बावजूद इसकी पौराणिकता पर खरोंच तक नहीं आयी बल्कि इसकी बदौलत इसके नए समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र को गढ़ने में मदद मिली है। साथ ही प्रकृति के साथ जुड़े रहने की वैज्ञानिकता को सहजता को विस्तार मिला है। तभी तो 45 दिनों तक चलने वाले इस धार्मिक और सांस्कृतिक आयोजन में लाखों हिंदू एक विश्वास के साथ आते हैं कि पवित्र नदी में तीन डुबकी लगाकर सभी तरह के पापों से मुक्ति पाई जा सकती है। इसके पुण्य-प्रताप से मनुष्य के जन्म-पुनर्जन्म और मृत्यु-मोक्ष की प्राप्ति होती है। अपनी भूलों का प्रायश्चित करने और कर्मों में समाहित पाप-पुण्य के हिसाब-किताब का संतुलन बनाए रखने के लिए ‘कुम्भ स्नान’ आस्था, विश्वास और संस्कारों का संगम बन गया है। इसकी व्यापकता पर ध्यान दें तो पाएंगे कि यह दुनिया में किसी भी धार्मिक प्रायोजन के रूप में श्रद्धालुओं का सबसे बड़ा आयोजन है। इसके अनोखेपन की भव्यता ऐसी है कि देखने वालों की आंखें फटी की फटी रह जाती हैं। इसका रोमांचक अनुभव इसमें शामिल हुए बगैर नहीं किया जा सकता है। संस्कृत में कुंभ का अर्थ है कलश। ज्योतिषशास्त्र में यह ग्यारहवीं राशि का चिन्ह है। कुंभ का सीधा संबंध ज्योतिषीय गणना और धार्मिक-आध्यात्मिक मान्यताओं से है। ज्योतिष शास्त्रियों के अनुसार जब बृहस्पति ग्रह कुंभ राशि में और सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता है, तब कुंभ स्नान की शुभ घड़ी आती है। इस आधार पर ही छह साल बाद के आयोजन को अर्धकुंभ और 12 साल पर होने वाले आयोजन को महाकुंभ का नाम दिया जाता है। 
कुंभ का आधुनिक इतिहास 850 साल पुराना है। इसके आधुनिक आयोजन स्वरूप की शुरुआत आदि शंकराचार्य द्वारा की गई थी। जहां तक कुम्भ के पीछे की कहानी का सवाल है तो इसके मुताबिक समुद्र मंथन से जो अमृत कलश निकला था, उसको लेकर देवताओं और दैत्यों में झगड़ा हो गया। दोनों इसे दूसरे को नहीं देना चाहते थे। देवता इसे लेकर भागे और दैत्यों ने पीछा किया। इसी छीना-झपटी में इस अमृत कलश से कुछ बूंदें इलाहाबाद, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में छलक गयीं इसीलिये इन जगहों पर हर बारह साल के बाद एक बार महाकुंभ और कुछ स्थानों पर हर छह साल बाद अर्ध कुंभ का आयोजन होता है। पुराणों की कथा के अनुसार सुरों और असुरों में अमृत कलश हासिल करने की जो छीना-झपटी हुई थी, उसमें देवताओं की तरफ  से चंद्रमा, सूर्य, बृहस्पति और शनि ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल किया था। अमृत कलश से अमृत की बूंदें जिन चार स्थानों पर गिरी थीं, वहां हर तीन वर्ष बाद कुंभ मेला लगता आया है। इस तरह से 12 साल बाद यह मेला अपने पहले स्थान पर वापस पहुंच जाता है। अर्धकुंभ सिर्फ  इलाहाबाद और हरिद्वार में लगता है। इस बार यह मकर संक्त्रांति यानी 14 जनवरी से महाशिवरात्रि पर्व 4 मार्च 2019 तक इलाहाबाद यानी प्रयागराज में लगेगा। यह महाकुंभ है। इस भव्य आयोजन में कुल छह स्नान पर्व होंगे जिनकी शुरुआत पहले शाही स्नान से 14 जनवरी को होगी। साथ ही इस बार की खास बात यह है कि वसंत पंचमी और मौनी अमावस्या को छोड़कर बाकी के स्नान सोमवार के दिन होंगे। प्रयागराज का कुंभ सभी कुंभ समागमों में सर्वाधिक महत्व रखता है। कारण यहां आने वाले श्रद्धालुओं को तीन नदियों गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम में स्नान करने का सौभाग्य मिलता है। हर श्रद्धालु के लिए संगम में स्नान करने का एक अलग ही महत्व होता है। इसी तरह से हरिद्वार का संबंध मेष राशि से है। इस मेले का आयोजन हिमालय पर्वत श्रृंखला के शिवालिक पर्वत के नीचे स्थित हरिद्वार में गंगा नदी के तट पर किया जाता है। तपोवन, गंगाद्वार, मोक्षद्वार और मायापुरी आदि नामों से प्रचलित हरिद्वार हिंदुओं का प्रमुख तीर्थ स्थान है। कुंभ का आयोजन उज्जैन में शिप्रा नदी और नासिक में गोदावरी नटी के तट पर भी होता है। नासिक में यह हर 12 साल पर दो जगहों मुख्य शहर यानी नासिक और यहां से 38 किलोमीटर दूर त्र्यम्बकेश्वर में जहां ज्योतिर्लिंग त्र्यम्बकेश्वर स्थित है, होता है। उज्जैन और नासिक के कुंभों को सिंहस्थ कुंभ मेला के नाम से जाना जाता है। मध्य प्रदेश स्थित उज्जैन एक विशेष धार्मिक नगरी है। 

-शंभु सुमन