कौन न मर जाए इस अदा पर!

 

बहुत पहले कभी, बहुत प्रचलित और लोकप्रिय हुआ करता था यह गाना... अल्लाह बचाये नौजवानों से, रंग-रंगीले परवानों से। आज फुरसत में बैठ कर सोचते हैं, तो ख्याल आता है, कि पता नहीं कितनी बड़ी संख्या हो गई होगी नौजवानों की उस दौर में। शायद पूरा देश ही नौजवानी में आ गया होगा। अब इतनी बड़ी संख्या में नौजवानों/परवानों के लिए शम्माएं भी तो उसी तादाद में चाहिए होंगी। ऐसी स्थिति में उथल-पुथल का हो जाना, और लूट-खसूट मच जाना भी आम बात हो गई होगी। तभी तो उस दौर की युवा होती दोशीजाओं को अल्लाह से ़फरियाद करने की आवश्यकता आन पड़ी होगी।
अब यह भी बहुत सम्भव है कि उस समय के नौजवानों ने ताक-झांक और ताधिन धित्ता जैसी कार्रवाइयां बेलगाम होकर शुरू कर दी हों, जिससे कानून व्यवस्था, पुलिस तंत्र, शासन व्यवस्था सब निरुपाय होकर रह गये हों। यह भी हो सकता है कि अपनी इज़्ज़त-मान बचाने की खातिर ही देश की औरत जात ने एसी गुहार लगाई हो। नौजवानों की संख्या बढ़ जाए, तो बहुत स्वाभाविक है कि कोई और काम-धाम न मिलने पर वे बुरे कामों की ओर अग्रसर होने लगेंगे। बहुत पहले कभी जब इस देश में थोड़ा-थोड़ा राजनीतिक सतियुग मौजूद था, तब देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने एक बार कहा था—देश की युवा शक्ति के हर हाथ को कोई काम-धंधा दो। इसी सोच से उपजा होगा भाखड़ा बांध जिसने देश के खेतों को सिंचाई के लिए पानी दिया, और लोगों को दी बिजली की स़ौगात।
अब आज फिर मौका आया है जब देश की व्यवस्था के एक प्रमुख को भी यह कहना पड़ा है... अल्लाह बचाये इन बहानों से। जब दोशीजा एक हो, और मुश्टंडे ज्यादा हो जाएं, तो उसके लिए फिर ऐसे ही स्थिति पैदा हो जाती है, यानि ‘मैं इधर जाऊं कि उधर जाऊं।’
हमारे देश भारत की एक बड़ी अच्छी बात यह है कि यहां लोकतंत्र है, किन्तु इस लोकतंत्र की एक बड़ी समस्या यह है कि यहां राजनीतिक दल बहुत ज्यादा हैं। एक प्रांत में एक राजनीतिज्ञ ने दूसरे प्रांत के सियासतदान से कहा—हमारे यहां इतने राजनीतिज्ञ हैं कि प्रदेश की हर गली की हर ईंट के नीचे एक घाघ राजनीतिज्ञ बाहर निकलने को हर समय तैयार दिखता है। दूसरे ने पलट-वार करते हुए कहा—हमारे यहां तो भैया, स्थिति यह है कि प्रत्येक गली की प्रत्येक ईंट के नीचे दस-दस राजनीतिज्ञ एक-दूसरे से पहले बाहर निकलने हेतु, एक-दूसरे की टांग खींचने की कोशिश करते हुए मिल जाएंगे, वे भी एक से बढ़ कर एक...घाघ।
आज ‘देस’ के युवा वर्ग के पास न तो कोई काम-धंधा है, और न ही कोई उनका हाथ थामने वाला ही सामने दिखाई देता है। इसीलिए हर तरफ अफरा-तफरी-सी मची है... कोई लूटने में लगा है, को ई पीटने में, और कोई कूटने में, यानि ओखली में धान कूटा जा रहा है। फिरौतियां और रंगदारियां मांगने वालों की तो जैसे मौजें लगी हैं... ठीक वैसे ही जैसे पड़ोसी देश पाकिस्तान में चारों ओर फौजें हैं, और लूटने वालों के लिए मौजें ही मौजें। 
पाकिस्तान में जब कोटा-परमिट का दौर था, तब सूई से लेकर सोयाबीन के तेल तक की रास्ते में दिखती हर शै का कोटा हुआ करता था। हथियार वहां बेशक आज भी खुले आम मिल जाते हैं, परन्तु तब के ज़माने में पटवारखाने में एक तहरीर भर देने से हथियार का लाईसैंस मिल जाता था।
ऐसे भले दौर में एक महातड़ साथी जाट पठान ने तोप के लिए लाईसैंस हेतु अज़र्ी डाल दी। पटवारी ने देखी, तो उसने पहले नायब तहसीलदार और फिर तहसीलदार को इत्तिला दी। तहसीलदार ने डिप्टी कमिश्नर से बात करके उस जाट पठान को तलब कर लिया। जाट ने कंधे पर रखी कसी और कुर्त्ता-सलवार में ही जा पहुंचा कचहरी।
तहसीलदार अब हक्का-बक्का... यह साद-मुरादा आदमी क्या करेगा तोप का। फिर भी, उसने पूछ लिया—किस देश पर हमला करना है मियां तुमने जो तुम्हें तोप दरकार है?
—अपनी औ़कात कहां है जी किसी पर हमला करने की। वो तो बस, कभी रात-बेरात सियार-भेड़ियों की गुर्राहट सुन कर उन्हें भगाने की नीयत से कोई छोटा-मोटा हथियार चाहिए था। सो, सोच-समझ कर ही तोप के लिए तहरीर की है। जाट पठान ने हाथ जोड़ते हुए दरयाफ्त की।
—लेकिन तोप तो बहुत बड़ी होती है... तुम्हारे कुर्त्ते की जेब अथवा सलवार के भीतर तक तो नहीं जा सकेगी।
— कहां जी, तोप को तो हम कहां जेब में डालेंगे जी! वो तो बस, सरकार को भरमाने-बहाने के लिए तोप लिख दया था। चाहिए तो हमें भी कोई छोटी-मोटी इकनाली या दोनाली ही है। जाट पठान ने कहा।
—तो फिर तुम्हेें इक-नाली या दोनाली ही मांगनी चाहिए थी न! तोप मांगना तो अपराध है। तुम्हें क्या तोप चलाना आता है? तहसीलदार ने पूछा, तो पठान ने ब्यां करना शुरू किया—
हुजूर, माजरा यूं है, कि पिछले बरस अपने बेटे-के ब्याह पर हमने एक सौ मन चीनी, बीस पीपी घी और सौ मन चावल के लिए तहरीर दी थी, किन्तु कई दिनों की भाग-दौड़ के बाद सिर्फ बीस मन चीनी, पांच पीपा घी और दस ही मन चावल मिला था। ...सो, हमने यही सोच कर तोप के लिए तहरीर कर दी, कि यदि सरकार साहिब ने कम भी किया, तो बात अपने आप दो-नाली अथवा एक-नाली बंदूक पर जा टिकेगी। 
अब बारी तहसीलदार की थी। वो कभी सीधी नज़र से पठान जाट की तहरीर को पढ़ने लगते, और कभी उसके चेहरे की ओर देखने लगते—वही मासूमियत, वही सादगी। अब कौन न मर जाए इस अदा पर!