कर्नाटक में जाति गणना के मुद्दे पर बुरी तरह फंसी कांग्रेस
राहुल गांधी की यह कैसी मुहब्बत की दुकान है जिसमें बैठ कर वह केवल मोदी विरोध और सत्ता की लिप्सा के चलते बहुसंख्यक सनातनी समाज, जो दशकों से हिन्दू हितचिंतकों के भगीरथ प्रयासों से अब एकात्मता की ओर बढ़ रहा है, को जाति गणना के नाम पर फिर से जातिवाद में धकेल कर सत्ता हथियाने का प्रयास कर रहे हैं। यहां यह उल्लेखनीय है कि 2018 में उनकी अपनी पार्टी की सरकार ने अपनी ही करायी गयी जाति गणना सार्वजनिक नहीं की थी क्योंकि उसके सार्वजनिक होते ही राज्य की शांति व्यवस्था पर असर पड़ने की सम्भावना थी और स्थिति कांग्रेस की राज्य सरकार के हाथों से निकल सकती थी।
राहुल गांधी भले ही पूरे देश में जाति जनगणना को अपनी प्राथमिकता बता रहे हों लेकिन कर्नाटक में कराई गई जाति जनगणना खुद मुख्यमंत्री सिद्धारमैया के गले की फांस बन चुकी है। उनके ऊपर 2015 में कराई गई जाति जनगणना की रिपोर्ट सार्वजनिक करने का चहुंमुखी दबाव है तो खुद उनके मंत्री इसके खिलाफ खुलकर सामने आ चुके हैं। उप-मुख्यमंत्री शिव कुमार और दूसरे कुछ मंत्री इसके सार्वजनिक होने से न सिर्फ असहमत हैं, बल्कि सार्वजनिक बयानों द्वारा समय-समय पर अपनी आपत्ति जता रहे हैं। रिपोर्ट पर कांग्रेस के भीतर अंतर्विरोधों ने भाजपा को हमलावर होने का मौका दे दिया है। केंद्रीय मंत्री प्रह्लाद जोशी द्वारा सिद्धारमैया पर तीखा कटाक्ष करते हुए रिपोर्ट को सामने लाने में हो रही देरी पर सवाल उठाया गया है। राज्यसभा सदस्य लहर सिंह ने भी कहा है कि राहुल गांधी और पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे अगर अपने बयानों को लेकर गंभीर हैं तो वे कर्नाटक की इस रिपोर्ट को सार्वजनिक क्यों नहीं करते?
दरअसल सिद्धारमैया की पिछली सरकार ने ही 170 करोड़ रुपए खर्च कर 2015 में कर्नाटक में आर्थिक व सामाजिक सर्वे कराया था जिसे जाति जनगणना का नाम दिया गया था। कहा जाता है कि 2018 में इसकी रिपोर्ट सरकार को दे दी गयी थी किन्तु इसे जारी नहीं किया गया। मंगलवार को मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने कहा कि उनकी सरकार रिपोर्ट को जारी करने के लिए प्रतिबद्ध है। मगर इसके खिलाफ दिए गए ज्ञापन पर हस्ताक्षर कर उप-मुख्यमंत्री डी. शिव कुमार ने साफ कर दिया कि इसको लेकर सरकार के भीतर ही तीखा मतभेद है। वोक्कालिगा संघ की ओर से दिए गए ज्ञापन पर हस्ताक्षर करने वालों में डी. शिव कुमार के अलावा कांग्रेस के कई मंत्री और विधायक भी शामिल हैं। डी. शिव कुमार खुद बोक्कालिगा समुदाय से आते हैं जो इस रिपोर्ट का खुला विरोध कर रहा है। सच तो यह है कि इसके विरोध में न केवल बोक्कालिगा समुदाय ही है, बल्कि कर्नाटक की राजनीति में सबसे प्रभावी माना जाने वाला लिंगायत समुदाय भी इसके खिलाफ खुलकर सामने आ चुका है।
वोक्कालिगा और लिंगायत दोनों प्रभावी समुदायों के विरोध के बाद सिद्धारमैया और खास कर कांग्रेस की मुश्किलें बढ़ गई हैं। दरअसल आबादी के हिसाब से अगर हिस्सेदारी की बात की जाएगी तो वोक्कालिगा चौथे नंबर पर आ जाएगा। सिद्धारमैया ने राजनीतिक नेताओं से केवल अनुमानों के आधार पर जाति आधारित जनगणना का विरोध नहीं करने की अपील की है। उन्होंने कहा कि रिपोर्ट सार्वजनिक हो जाने के बाद इस मुद्दे पर चर्चा करेंगे। केन्द्रीय मंत्री प्रह्लाद जोशी ने सिद्धारमैया पर हमला करते हुए कहा कि नाटकबाजी और गारंटी के सहारे जनता को लम्बे समय तक गुमराह नहीं किया जा सकता है।
कर्नाटक विधानसभा में विपक्ष के नेता आर. अशोक ने मुख्यमंत्री सिद्धारमैया से आग्रह किया है कि वह जाति जनगणना रिपोर्ट जारी करने में जल्दबाजी न करें और आगे बढ़ने से पहले सभी समुदायों और संगठनों को विश्वास में लें। उन्होंने सर्वेक्षण की मूल कार्य सूची गायब होने की जांच की भी मांग की है। भाजपा विधायक और पूर्व मंत्री सुनील कुमार ने इस संबंधी सीबीआई जांच की मांग की है। वहीं कर्नाटक पिछड़ा वर्ग आयोग के पूर्व अध्यक्ष व जाति जनगणना रिपोर्ट को तैयार करने वाले कांता राजू ने कहा कि उनकी रिपोर्ट वास्तविक और वैज्ञानिक है। उन्होंने भाजपा पर इसे राजनीतिक मुद्दा बनाने का आरोप लगाकर सनसनी पैदा कर दी है।
सामाजिक समीकरण का यह बदलाव कांग्रेस के लिए सुखद कभी भी नहीं रहा। पार्टी ने सत्ता विरोधी ध्रुवीकरण के कारण बहुमत खो दिया। ‘सामाजिक एवं आर्थिक’ सर्वे के नाम पर शुरू हुई जातिगत जनगणना की कवायद विवादों में घिरती रही है। अपने समुदाय को ओबीसी या एससी/एसटी में शामिल कराने के लिए जोर दे रहे लोगों के लिए यह सर्वे बड़ा मौका बन गया है। अधिकतर ने उपजाति के नाम जाति के कॉलम में दर्ज कराए। नतीजा, कर्नाटक में अचानक 192 से अधिक नई जातियां सामने आ गईं। लगभग 80 नई जातियां तो ऐसी थीं जिनकी जनसंख्या 10 से भी कम थी। एक तरफ ओबीसी की संख्या में भारी वृद्धि हो गई तो दूसरी तरफ लिंगायत और वोक्कालिगा जैसे प्रमुख समुदाय के लोगों की संख्या घट गई। इसीलिए सिद्धारमैया ने यह रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं की।
हालांकि इस गणना की प्रतियां राजनेताओं को अपने जिले का जातिगत समीकरण समझने के लिए बाजार में मिलती रहीं। और तो और जनगणना कराने वाली सिद्धारमैया सरकार ने भी इसे स्वीकार नहीं किया। इसके बाद बनी गठबंधन सरकार व उसके बाद आयी भाजपा सरकार ने भी 150 करोड़ खर्च कर बनी इस रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में छोड़ रखा है। सामाजिक और आर्थिक सर्वे जब शुरू हुआ, तब कर्नाटक की जनसंख्या 6.3 करोड़ थी, जिनमें से 5.98 करोड़ की आबादी ने गणना प्रक्रिया में भाग लिया। शेष 32 लाख की आबादी इससे दूर रही थी। कमोबेश यही स्थिति बिहार की भी रही है। बड़े गाजेबाजे के साथ आधी अधूरी गणना करायी गयी और फिर उसे पूरा सार्वजनिक भी नहीं किया गया। कुल मिलाकर राहुल गांधी और अलायन्स ने सोये नाग को जगा दिया है जो फन फैला कर जब अपने शबाब पर आएगा तो निश्चित रूप से जातिवाद पर आधारित राजनीतिक दलों को ही नुकसान पंहुचायेगा। एक बार तो यह जरूर सनातनी समाज को झकझोर देगा मगर फिर जातिवादी नेताओं की राजनीति को ही क्षत-विक्षत कर देगा। अधिकतर विशेषज्ञ यही सोचते हैं।